लॉकडाउन में कपड़ा उद्योग ठप होने से भीलवाड़ा की अर्थ-व्यवस्था चौपट

संगम स्पिनर्स मिल में पिछले 12 साल से करघा चलाकर अपने परिवार का गुज़र-बसर करने वाले राकेश बैरवा को अहसास तक नहीं था कि एक दिन उन्हें खाने के लाले पड़ जाएँगे। भीलवाड़ा शहर से करीब 10 किलोमीटर दूर स्थित इस पॉवरलूम में पोलिस्टर से कपड़ा बनता है। कोविड का कहर बैरवा पर भी टूटा। रोज़गार का सहारा तो हाथ से फिसला ही लॉकडाउन के बाद नौ दिन तक उनका परिवार खाने को भी तरस गया। बमुश्किल आँसुओं का आवेग रोकते हुए उन्होंने कहा- ‘न तो हमें खाना नसीब हुआ और न ही हम भोजन जुटाने के लिए बाहर जा सके। 12 घंटे करघे के शोर में काम करने के बाद महीने में करीब 7,000 रुपये मिलते थे। इसमें 6 जनों के परिवार का मुश्किल से गुज़ारा हो पाता था। जब मिल बन्द हुई और मेरे पास दो जून के भोजन के लिए पैसे भी नहीं थे।’ बैरवा भीलवाड़ा से लगभग 450 किलोमीटर दूर सवाई माधोपुर ज़िले के आदिवासी गाँव के रहने वाले हैं। पिछले 12 साल से वह संगम मिल्स में काम कर रहे थे। दोनों हाथों से सिर को थामते हुए बैरवा बिलख पड़े- ‘साब जी! किराये के मकान में रह रहे थे। लॉकडाउन घोषित हुआ, तो मकान मालिक ने घर खाली करवा लिया।’

रोज़ी-रोटी गँवाने और बेघर होने वालों की संख्या तो हज़ारों में थी। रुआँसे स्वर में बैरवा ने कहा- ‘साब! हमने हेल्पलाइन के कंट्रोल से बार-बार गुहार की। लेकिन न तो हमारे पास राशन पहुँचा और न ही कोई खैर-खबर लेने पहुँचा। हमें आश्वासन तो ज़रूर मिला कि तुम्हारे लिए टीम राशन लेकर पहुँचने वाली है; लेकिन कहाँ आया कोई!’

राकेश बैरवा जैसे करीब 75 हज़ार लोग भीलवाड़ा की टैक्सटाइल इंडस्ट्री में काम करते हैं। महामारी की विपदा और प्रशासन की अनदेखी से कोई भी अछूता नहीं रहा। राजस्थान के मेवाड़ सम्भाग का भीलवाड़ा भारत का प्रख्यात टैक्सटाइल हब गिना जाता है। सालाना आठ से 10 फीसदी की वृद्धि वाला यह उद्योग सिन्थेटिक धागों, ऊनी कपड़ों, सूती धागों और फेब्रिक्स सरीखे उत्पादों के निर्यात के लिए प्रसिद्ध है। सालाना 1,300 करोड़ का निर्यात करने वाले इस उद्योग की भीलवाड़ा में करीब 400 इकाइयाँ हैं। 25 हज़ार करोड़ सालाना टर्न ओवर वाले इस उद्योग में 75 हज़ार श्रमिक काम करते हैं। इनमें 70 फीसदी महिलाएँ शामिल हैं। यहाँ अधिकतर लोग बिहार, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल और उत्तर प्रदेश के हैं। लॉकडाउन के दौरान भीलवाड़ा टैक्सटाइल इंडस्ट्री 15 से 20 हज़ार करोड़ का नुकसान भुगत चुकी है। अब अनलॉक के बाद भी मुश्किलें कम नहीं हो पा रही हैं। टैक्सटाइल इंडस्ट्री 20 से 25 फीसदी क्षमता से ही काम कर पा रही है। जीडीपी में 15 से 17 फीसदी तक का योगदान देने वाली यह इंडस्ट्री सवा लाख लोगों को सीधा रोज़गार देती है। पहले मंदी भुगत चुका यह उद्योग कारीगरों की कमी और काम की खराब परिस्थितियों से दो-चार होने के बाद अभी भी कोविड के संक्रमण से जूझ रहा है। अनलॉक शुरू होने के बाद आर्थिक गतिविधियाँ धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ रही है। लेकिन लगातार संक्रमण बढऩे, माँग में कमी और मज़दूरों के वापस नहीं आ पाने से कपड़ा मिलें 20 से 25 फीसदी क्षमता पर ही काम कर पा रही है।

मेवाड़ चेम्बर ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्री के महासचिव आर.के. जैन कहते हैं कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद टैक्सटाइल इंडस्ट्री में कारोबार 30 फीसदी तक ही शुरू हो पाया है। लॉकडाउन में बिहार, उत्तर प्रदेश और उड़ीसा से अधिकतर मज़दूर अभी भी वापस नहीं लौटें हैं। हालाँकि शर्टिंग जैसे नये क्षेत्र में कदम रख देने की वजह से 40 फीसदी कारोबार चल रहा है। जैन कहते हैं कि आने वाले दो-तीन महीने इस सेक्टर को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। ज़्यादातर लोग त्योहार, शादी-ब्याह और छोटे-बड़े कार्यक्रमों के लिए खरीदारी करते हैं। लेकिन कोरोना-काल में तंगी की वजह से माँग निकलने की कम उम्मीद है। श्रमिक संगठनों के सूत्रों का कहना है कि केंद्र सरकार की ओर से घोषित आर्थिक पैकेज का लाभ भी टैक्सटाइल सेक्टर को नहीं मिल पाया है। इसके अलावा मोरेटोरियम की सुविधा भी खत्म हो चुकी है। ऐसे में उद्योग के लिए कर्ज़ की ईएमआई भी बोझ बन रही है। वैसे भी औद्योगिक इकाइयाँ तो पहले ही नकदी के संकट  से जूझ रही हैं।

भीलवाड़ा की कहानी को उसके अलग-अलग अध्यायों में देखें, तो हर बात रोमांचित करती है। भारत की टैक्सटाइल सिटी के नाम में प्रख्यात भीलवाड़ा (राजस्थान) की अर्थ-व्यवस्था का सबसे बड़ा स्रोत यह उद्योग है। भारत में बनने वाले कुल पोलिस्टर में 50 फीसदी भीलवाड़ा में बनता है। केंद्र्रीय टैक्सटाइल मंत्रालय ने इसे विराट पॉवरलूम क्लस्टर की संज्ञा से अलंकृत किया है। प्रश्न है कि देश की सबसे बड़ी टैक्सटाइल इंडस्ट्री होने, उत्पादन और निर्यात में अग्रणी होने, जीडीपी में महत्त्वपूर्ण योगदान देने तथा सवा लाख लोगों को रोज़गार देने वाला यह उद्योग विकास की मानक इबारत गढ़ रहा है। प्रदेश की अर्थ-व्यवस्था को ज़बरदस्त उछाल दे रहा है। किन्तु उसे डूबने से बचाने की किसी को कोई फिक्र नहीं है। श्रमिक नेता गुमान सिंह कहते हैं कि ऐसा उपक्रम जो प्रदेश की अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ बना हुआ है और निर्यात के क्षेत्र में जिसका दबदबा है; उसके संरक्षण में सरकार ने उदासीनता ही दिखायी है। वहीं कोविड-2019 के दौरान उद्यमियों और श्रमिकों ने जैसा कुछ भुगता, उसमें संवेदना को झकझोर देने वाली कई कहानियाँ हैं। गुमान सिंह कहते हैं कि ऐसा क्या हुआ कि इस विराट उद्योग में सुधारों की सुगंध मिलने का संयोग ही नहीं बन सका? सूत्रों की मानें तो कोविड-19 की आपदा से पहले भीलवाड़ा टैक्सटाइल हब को जीएसटी के मुद्दे पर व्यापारियों की हड़ताल को लेकर ज़बरदस्ती का खामियाज़ा भुगतना पड़ा; जिससे इंडस्ट्री को करीब 300 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। श्रमिक नेता प्रभुदयाल कहते हैं कि इस हड़ताल का सबसे बड़ा आघात तो 20 हज़ार दिहाड़ी मज़दूरों को झेलना पड़ा है। जीएसटी की खोट ने व्यापारियों की मुरादों पर तो स्यापा डाल दिया, कोरोना-काल में लॉकडाउन ने इसकी गर्दन और मरोड़ दी। प्रभुदयाल कहते हैं कि बेशक इस हड़ताल को भीलवाड़ा टैक्सटाइल ट्रेड फेडरेशन ने पूरा समर्थन किया। तीन रिटर्न से लदे-फदे इस कानून ने ट्रांसपोर्ट को भी खासा नुकसान पहुँचाया। क्लॉथ मर्चेंट एसोसिएशन के सचिव जगदीश सोमानी का कहना है कि टैक्सटाइल उद्योग की जड़ें तो देश का आर्थिक संवर्धन है। ऐसे में इस उद्योग पर जीएसटी की तलवार क्यों? सोमानी कहते हैं कि छोटे-मँझोले व्यापारी जब तक जीएसटी का पेच समझ पाते, उनके धन्धे पर नोटबंदी की चोट कर दी। मीडिया के एक रिपोर्ट की मानें तो भीलवाड़ा टैक्सटाइल उद्योग ने अनचाहे करों की चपेट में आकर अपना चोला बदल लिया है। प्रश्न है कि सबसे तेज़ विकसित होने वाले क्षेत्र पर करों का बोझ सबसे ज़्यादा क्यों? भीलवाड़ा की स्थिति को समझें, तो लगातार हो रहे स्लोडाउन ने इसे झकझोर कर रख दिया है। उत्पादन में 15 से 20 फीसदी की गिरावट आ गयी है। सिंथेटिक वीविंग मिल्स एसोसिएशन के अध्यक्ष संजय पेडीवाल कहते हैं कि स्थितियाँ कतई अनुकूल नहीं हैं। शनिवार और रविवार को अवकाश रखने का क्या मतलब? पेडीवाल कहते हैं कि उत्पादन में गिरावट तो कोविड-2019 से 6 माह पहले शुरू हो गयी थी। नतीजतन श्रमिकों की संख्या में भी 15 से 20 फीसदी की गिरावट आ गयी। श्रमिकों का असंतोष भी बढऩा स्वाभाविक था। वेतन में कटौती ने भी कामगारों को कम्पनियाँ छोडऩे को बाध्य किया। कामगारों की नाराज़गी ने दूरगामी असर दिखाया और टैक्सटाइल हब की करीब 100 से अधिक फैक्ट्रियाँ बन्द हो गयीं। इसका सबसे बड़ा असर तो इसकी मार्केटिंग पर पड़ा। परिणामस्वरूप अनेक राज्यों ने अपने सौदों को रद्द करना शुरू कर दिया। पेडीवाल कहते हैं कि हमारी तुलना में बांग्लादेश और चीन ज़्यादा सुविधा दे रहे हैं। वहाँ से भारत में भारी मात्रा में माल आ रहा है। जब तक इसे नहीं रोका जाएगा, भीलवाड़ा टैक्सटाइल के उत्पादकों की तरफ कौन देखेगा?

पेड़ीवाल कहते हैं कि दक्ष कामगारों की कमी और प्रतिकूल परिस्थितियों ने भीलवाड़ा के टैक्सटाइल उद्योग को इस कदर बदहवास कर दिया है कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में आना तो दूर, अपनी सामान्य चाल भी नहीं चल पा रहा है; जबकि बांग्लादेश और चीन को प्रतिस्पर्धा में पछाडऩा तो सोच से भी परे है। हम बांग्लादेश और चीन के निर्यात को तभी रोक सकते हैं, जब हम नयी तकनीक को अपनाने में कामयाब हो जाएँ। सबसे बड़ी बात तो बांग्लादेश और चीन के कामगारों की कार्यकुशलता है। जब हम कामगारों को पर्याप्त मज़दूरी भी नहीं दे पाएँगे, तो बांग्लादेश की सप्लाई चेन का कैसे मुकाबला कर सकते हैं। सूत्रों की मानें तो सूती और सिंथेटिक्स धागे से कपड़ा बनाने वाले पॉवरलूम कुशल कारीगरों की मज़दूरी बढ़ाने के नाम पर चुप्पी साध लेते हैं। ऐस में कारीगर कब तक रुक पाएँगे? प्रश्न है कि राज्य सरकार और उद्योगों ने बुनियादी हकीकत को समझने की कितनी कोशिश की है। हालाँकि राज्य सरकार ने उद्योग की कठिनाइयों को स्वीकार भी किया है और इन्हें अतिरंजित भी नहीं माना है; लेकिन उद्योग को आर्थिक संकट से उबरने और मंदी को थामने के लिए क्या किया? यह तो दिखायी नहीं देता।

श्रमिक नेता और अरविंद गुप्ता की मानें तो टैक्सटाइल इंडस्ट्री के सिमटने के कई कारण हैं, जिसमें मुख्य रूप से महँगी बिजली इसकी वजह हैं। टैक्सटाइल इंडस्ट्री को बिजली उपभोग का 7.50 से 8 रुपये प्रति यूनिट का भुगतान करना पड़ता है; जबकि राजस्थान की तुलना में मध्य प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र के पॉवरलूमों को आधे दामों में बिजली मुहैया होती है राज्य में टैक्सटाइल उद्योग को राज्य सरकार से बिजली बहुत महँगे दामों पर खरीदनी पड़ती रही है। चाहे वह छोटी इंडस्ट्री हो या मध्य स्तर की या बड़ी इंडस्ट्री हो। राजस्थान में छोटी इंडस्ट्री के लिए बिजली की दर 6 रुपये से लेकर 6.45 रुपये तक है, जिस पर 65.00 प्रति हॉर्स पॉवर फिक्स चार्ज और लगाया जाता है। मध्यम वर्गीय इंडस्ट्री पर बिजली की दर 7 रुपये की है, जिस पर 75.00 प्रति हॉर्स पॉवर फिक्सड चार्ज और लगता है। गुप्ता कहते हैं कि सरकार ने तकनीकी अपग्रेडेशन फंड की राशि का भी समय पर भुगतान नहीं किया। बांग्लादेश, चीन और इंडोनेशिया तो तरक्की के सूरमा हैं। कच्चा माल और श्रमिकों की उपलब्धि के नज़रिये से देखा जाए तो भारत की अपेक्षा काफी सस्ते हैं। इसकी तरक्की की सम्भावनाओं को कुचलने में तो सबसे बड़ा हाथ नोटबंदी और जीएसटी का है। ऐसे विपरीत माहौल में अर्थ-व्यवस्था पेंदे में नहीं बैठेगी तो क्या होगा? इंडस्ट्री को कामगार मुहैया कराने वाले जॉब ब्रोकर सुदीप ताहिल की मानें तो स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। जब फैक्ट्रियोंं के दरवाज़े ही बन्द हो जाएँगे, तो हमारी भी रकम डूबेगी नहींं तो क्या होगा? सुदीप ताहिल कहते है कि जब पार्टी ही फेल हो जाएगी, तो हमारा भुगतान कहाँ से होगा? पेडीवाल कहते हैं कि हमारा रेडीमेड कपड़ों का कारोबार अच्छा-खासा चल रहा था। प्रतिमाह तीन से चार लाख मीटर कपड़े का उपयोग हो जाता था। अब बमुश्किल एक लाख मीटर कपड़ा ही इस्तेमाल में आ पाता है। सबसे बड़ी मुश्किल तो मार्केट में भुगतान की स्थिति की है, जो बदतर हो चुकी है। ऐसे में कारीगरों, श्रमिकों और फैक्ट्री कर्मचारियों की गुज़र-बसर तो अँधेरे में सिमट गयी है। 35 वर्षीय हरीश गर्ग कामगारों की दुर्दशा का आईना हैं। तीन बच्चों का पिता हरीश कहते हैं कि पिछले छ: महीनों से काम की तलाश में भटक रहे हैं। जहाँ भी जाते हैं, सूखा जवाब मिलता है- मार्केट ही डाऊन है, तो तुमको रोज़गार कहाँ से दें?

राजस्थान की टैक्सटाइल इंडस्ट्रीज में मंदी के पीछे क्या कारण है? इसको समझने के लिए कई घटनाक्रमों को साथ जोडक़र देखना होगा, तभी यह तस्वीर स्पष्ट हो पाएगी। इन घटनाओं से केंद्र और राज्य सरकार की टैक्सटाइल इंडस्ट्रीज की ज़रूरतों और माँगों के प्रति असंवेदनशीलता ही उजागर होती है; जबकि टैक्सटाइल उद्योग कृषि उद्योग के बाद राज्य में सबसे ज़्यादा लोगों को रोज़गार मुहैया कराता है। राजस्थान मिल्स एसोसिएशन के अधिकारियों की मानें तो टैक्सटाइल उद्योग से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तौर पर लगभग पाँच लाख लोग जुड़े हुए हैं।

एम.सी.आई. अधिकारियों के अनुसार, पिछले एक वर्ष में राजस्थान के पॉलिस्टर यार्न उद्योग में 30 से 35 फीसदी तक की गिरावट देखी गयी है और अब इन उद्योगों को पैरों पर खड़े होने के लिए राज्य सरकार की मदद की ज़रूरत है; खासकर बिजली के मामलों में। परन्तु राजस्थान में बिजली की दरें इतनी महँगी हैं कि कोई भी उद्योग सरकार से बिजली कैसे खरीदेगा।