लम्बे संघर्ष के बाद घर लौटे अन्नदाता

कोरोना वायरस की दहशत के बीच सन् 2020 की पहली तालाबन्दी के दौरान केंद्र सरकार द्वारा लाये गये तीन कृषि क़ानूनों की वापसी के बाद किसानों की अन्य माँगों पर सरकार ने हाँ की मुहर लगा दी है। किसानों ने केंद्र सरकार से यह लड़ाई दिल्ली की सीमाओं पर पूरे एक साल 13 दिन तक लड़ी, जबकि अगर पंजाब की धरती से शुरू हुए इस आन्दोलन की समय-सीमा की बात करें, तो यह डेढ़ साल से अधिक चला। हालाँकि अभी एमएसपी पर क़ानून नहीं बना है, जिसका कि आश्वासन देकर सरकार ने समिति गठन की सहमति दे दी है।

इतिहास में यह बाद स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज होगी कि एक मनमानी करने वाली सरकार को किसानों ने लम्बा, त्यागपूर्ण और शान्तिपूर्ण आन्दोलन करके आख़िरकार झुका दिया। यह कोई आसान काम नहीं था। इसके कृषि क़ानूनों के विरोध में इस लड़ाई में असीमित समय के लिए घर छोडऩे, नुक़सान उठाने और यहाँ तक कि जान जाने तक का जोखिम किसानों ने उठाया। बड़ी बात यह रही कि इसे किसानों ने उसी तरह सहर्ष हँसकर स्वीकार किया, जिस तरह कोई देशभक्त अपने वतन को बचाने के लिए सब कुछ न्योछावर करने को तैयार हो जाता है। और उन्होंने हर तरह का नुक़सान उठाया भी, जिसमें सबसे बड़ा नुक़सान उन किसान परिवारों का हुआ, जिनके अपने इस आन्दोलन के दौरान शहीद हो गये। यह संख्या कोई छोटी नहीं, बल्कि 700 से अधिक थी।

किसानों ने इतने पर भी सीमाओं पर खड़े जवानों की तरह अपना हौसला बनाये रखा और सबसे बड़ी बात शान्ति बनाये रखी। जबकि उन्हें देशद्रोही, ख़ालिस्तानी, पाकिस्तानी और दलाल जैसे अशोभनीय और कलंकित करने वाले शब्दों से भी इस दौरान सम्बोधित किया गया। उन पर अत्याचार भी किये गये। शत्रुओं की तरह उनसे व्यवहार किया गया। किसानों के इस आन्दोलन की सबसे बड़ी बात यह है कि यह लड़ाई सिर्फ़ किसानों ने अपने लिए ही नहीं, बल्कि लोगों के लिए भी लड़ी। क्योंकि उन्होंने यह आन्दोलन खेती, जमीन बचाने के अलावा महँगाई पर रोक लगाने के मक़सद से भी किया। खैर, एक साल 13 दिन (कुल 378 दिन) तक चला यह आन्दोलन अब सरकार द्वारा किसानों की सभी माँगें माने जाने के आश्वासन पत्र दिये जाने के बाद स्थगित हो चुका है। लेकिन ख़बरें आन्दोलन के समाप्त की चलने लगी हैं। दरअसल समझने बात यही है कि यह आन्दोलन ख़त्म नहीं, बल्कि स्थगित हुआ है।

कुछ किसान नेताओं ने भी यह बात कही है कि किसान आन्दोलन समाप्त नहीं, बल्कि स्थगित हुआ है। हर महीने की 15 तारीख़ को किसान संगठन की बैठक होती रहेगी। किसानों की सभी माँगें पूरी होने के बाद भी संयुक्त किसान मोर्चा संगठित रहेगा। किसान आन्दोलन ख़त्म करने के सवाल पर संयुक्त किसान मोर्चा के नेता और भारतीय किसान यूनियन (टिकैत) के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत कहते हैं- ‘पहली बात तो यह कि आन्दोलन स्थगित हुआ है, खत्म नहीं। दूसरी बात, अभी हम (किसान) सरकार की चिट्ठी का अर्थ समझेंगे, फिर उसी के हिसाब से प्रतिक्रिया करेंगे।’

वहीं संयुक्त किसान मोर्चा के नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने कहा- ‘संयुक्त किसान मोर्चा की समीक्षा बैठक 15 जनवरी को दिल्ली में की जाएगी। इसके बाद यह समीक्षा बैठक हर महीने हुआ करेगी। अगर केंद्र सरकार अपने वादे से मुकरी, तो आन्दोलन फिर शुरू किया जाएगा।’

वास्तव में देखा जाए, तो किसानों ने एक अहंकारी और स्वयंभू सरकार को झुकाया है, जिससे लोग सबक लेंगे कि अपने हक़ की लड़ाई कैसे लड़ी जाती है। यह आन्दोलन आज़ादी के बाद का देश का सबसे बड़ा किसान आन्दोलन तो है ही, अन्य कोई आन्दोलन भी इतना बड़ा आज़ादी के बाद देश में अभी तक नहीं हुआ है। सबसे बड़ी बात यह है कि किसान संगठनों ने आन्दोलन स्थलों से हटने के समय वहाँ पूरी तरह साफ़-सफ़ार्इ ख़ुद की  है। राकेश टिकैत सभी किसानों के जाने के बाद आन्दोलन स्थल से हटे। यह एक आन्दोलन के अगुआ की नैतिकता है।

किसानों की एकजुटता और सहनशीलता के आगे सरकार झुकी, यह बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात यह है कि किसानों ने सरकार को यह मानने के लिए विवश कर दिया कि वह ग़लती कर रही थी, जिसका उसे खेद है। हालाँकि इसके पीछे भाजपा का एक डर भी था, और यह डर चुनावों में हार के अलावा जनता में अपनी धूमिल होती और बिगड़ती छवि को लेकर था। किसान आन्दोलन के स्थगन से सरकार की छवि कितनी चमक सकेगी? यह तो समय और जनता का फ़ैलसा ही बताएगा। लेकिन प्रधानमंत्री का किसानों के साथ-साथ पूरे देश से माफ़ी माँगना इस बात का सुबूत है कि अन्नदाता का अपमान करने का हक़ किसी को नहीं है।

यह ज़रूरी भी है और सही भी। क्योंकि कृषि प्रधान देश में अगर किसान ही दु:खी हों यह देश, देश की सरकार और देश के दूसरे नागरिकों के लिए शर्म की बात है। इससे भी ज़्यादा शर्मिंदगी की बात यह है कि इतने पर भी हम शर्मिंदा नहीं हैं कि देश के अन्नदाता दु:खी हैं। इतना दु:खी कि वे ख़ुदकुशी करने को मजबूर हैं।

आज ऐसे समय में भी हर साल हज़ारों किसान बदहाली के चलते ख़ुदकुशी करने को मजबूर हो रहे हैं, जब ख़ुद प्रधानमंत्री छोटे किसानों को ख़ुशहाल करने की बात लाल क़िले की प्राचीर से कहते हैं। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि न तो प्रधानमंत्री किसानों की आय दोगुनी करने के अपने वादे को अभी तक निभा सके हैं और न ही देश का किसान ख़ुशहाल दिख रहा है। यह बात उनके ख़ुदकुशी के आँकड़ों से पुष्ट होती है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़े बताते हैं कि सन् 2016 से सन् 2020 तक कुल 53 हज़ार 341 किसानों ने ख़ुदकुशी की, जिनमें कुछ फ़ीसद खेतिहर मज़दूरों का भी है। हालाँकि सरकारी आँकड़ों में ख़ुदकुशी करने वालों की संख्या इतनी नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक, देश में हर रोज़ 28 किसानों और खेतिहर मज़दूर ख़ुदकुशी करते हैं। लेकिन कुछ जानकार यह संख्या ज़्यादा होने की पुष्टि करते हैं।

अफ़सोस की बात यह है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है, इसके बावजूद देश के ही अन्नदाताओं की आर्थिक हालत इतनी ख़राब है कि वह दिन-रात की मेहनतों के बावजूद क़र्ज़ में डूबे रहते हैं। इसकी वजह यह है कि किसानों के उत्पादों को सस्ते में ख़रीदकर दलाल और बिचौलिये बहुत कम समय में उनसे अधिक पैसा कमा लेते हैं। वहीं जो उत्पाद सरकार किसानों से ख़रीदती है, वह पैसा भी उन्हें नक़द नहीं मिलता। गन्ना फैक्ट्रियाँ तो किसानों से उधार गन्ना लेकर लाखों-करोड़ों के बारे-न्यारे करती हैं। इस प्रकार देश के किसानों से दो तरह से ठगी होती है। एक, उनके उत्पाद सस्ते ख़रीदे जाते हैं और दूसरे, उन्हें अमूमन नक़द भुगतान नहीं किया जाता। इसके विपरीत किसानों को खेती करने के लिए जिन-जिन चीज़ों की ज़रूरत पड़ती है, वे सब उन्हें नक़द और महँगी ख़रीदनी पड़ती हैं।

इस तरह की सदियों से मार सहने वाले किसानों को इस बार कृषि क़ानूनों के झमेले में डाला जा रहा था, जो कि उनके हित में नहीं बताये जा रहे थे। यही वजह रही कि किसानों को इन कृषि क़ानूनों के विरोध में आन्दोलन करना पड़ा। इससे केंद्र सरकार की देश के अलावा दुनिया में भी निंदा हुई। इसके अलावा उसे हाल के चुनावों में इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा। माना जा रहा है कि चुनावों में हार का डर सामने देख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि क़ानूनों की वापसी की घोषणा 19 नवंबर, 2020 को गुरु पर्व के दिन बड़े ही भावुक तरीक़े से की। 29 नवंबर को इस साल के शीत सत्र के पहले दिन 29 नवंबर को संसद के दोनों सदनों में फटाफट तीनों कृषि क़ानूनों की वापसी के लिए कृषि क़ानून वापसी विधेयक पास कर दिया। हालाँकि अभी किसानों की बाक़ी माँगों को लेकर कोई काम नहीं हुआ है; लेकिन सरकार ने इसके लिए किसानों को पत्र सौंपकर आश्वासन ज़रूर दिया है, जिनमें आन्दोलन में शहीद हुए किसानों के परिजनों को मुआवज़ा देने और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर क़ानून बनाने को लेकर एक समिति गठित करने की सहमति समेत किसानों की अन्य सभी प्रमुख माँगें मान ली हैं।

‘तहलका’ ने आन्दोलन शुरू होने से लेकर आन्दोलन के हर पहलू को अपने अंकों में निष्पक्ष और निर्भीक तरीके से स्थान दिया है। किसानों की घर वापसी भले ही आन्दोलन समाप्त करने की शर्त पर नहीं हुई है; लेकिन तसल्ली वाली है। हम किसानों को इस बड़ी जीत की बधाई देते हैं और कामना करते हैं कि अब कुछ ऐसा हो, जिससे देश के सभी किसानों की आर्थिक दशा सुधरे और वे ख़ुशहाल हों।

एमएसपी का आकलन

सन् 1965 में देश की तत्कालीन सरकार ने यह निर्णय लिया कि कुछ कृषि उत्पादों को सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य अर्थात् मिनिमम सपोर्ट प्राइस (एमएसपी) पर ख़रीदेगी। तबसे सरकार द्वारा तय भाव पर किसानों द्वारा उगायी गयी कुछ फ़सलों के उत्पादों को देश की सरकार ने अपने तथा राज्य सरकारों के माध्यम से ख़रीदना शुरू किया। इन उत्पादों की ख़रीद के लिए केंद्र सरकार ने भारतीय खाद्य निगम की स्थापना की, जो राज्य सरकारों की ख़रीद संस्थाओं के ज़रिये किसानों से लेबी (सहकारी ख़रीद केंद्र) की मदद से किसानों के उत्पाद ख़रीदती हैं।

भारतीय खाद्य निगम की मानें, तो कृषि उत्पाद खरीद की इस श्रेणी में कुल 23 उत्पाद आते हैं, जिन्हें कि सरकार द्वारा ख़रीदा जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से किसानों के पाँच-छ: उत्पाद ही इन ख़रीद केंद्रों पर ख़रीदे जाते हैं। इनमें भी गेहूँ और धान की सबसे ज़्यादा ख़रीद होती है; लेकिन यह भी केवल क्रमश: 22 और 28 फ़ीसदी ही है। बाक़ी खाद्यान्नों में कुछ की ख़रीद उत्पादन से 10 फ़ीसदी, तो कुछ की पाँच फ़ीसदी से भी कम की जाती है। लेकिन ये उत्पाद भी चार-पाँच ही हैं। अर्थात् 23 में से 13 से अधिक उत्पादों को सरकार नहीं ख़रीदती। इसके बावजूद जो भी उत्पाद सहकारी ख़रीद केंद्रों पर ख़रीदे जाते हैं, उन्हें बेचने में भी किसानों को तरह-तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। इस बार की ही बात करें, तो धान की ख़रीदी इतनी देरी से हुई कि छोटे किसानों ने मजबूरन आढ़तियों को कम भाव में धान बेच दिये। किसानों के लिए यह हर साल का रोना है। ऐसे में अगर एमएसपी पर क़ानून बन जाता है, तो सम्भवत: किसानों को राहत मिले तथा वे बिचौलियों, आढ़तियों और दलालों के हाथों ठगे जाने से बच सकें।

लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या केंद्र सरकार द्वारा बनायी गयी यह समिति एमएसपी पर क़ानून बनाने के निर्णय तक पहुँच सकेगी? क्या समिति एमएसपी को लेकर कोई ऐसा निर्णय ले पाएगी, जिससे किसानों को हर फ़सल पर होने वाले नुक़सान से निजात मिल सके?

आर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) की रिपोर्ट के मुताबिक, सन् 2000 से सन् 2017 तक केवल 18 साल में देश के किसानों को 45 लाख करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ है। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह नुक़सान किसानों को उनके कृषि उत्पादों का उचित दाम न मिलने की वजह से हुआ है।

हाल ही में जारी नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट में कहा गया है कि किसानों की प्रति महीने औसत आय केवल 10,218 रुपये है, जिसमें खेती से उन्हें केवल औसतन 3,798 रुपये प्रति माह ही प्राप्त होते हैं। इसके अलावा एक अन्य सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में 80 फ़ीसदी छोटे किसान हैं और उनकी दैनिक आय महज़ 27 रुपये है। किसानों की इतनी कम आय की वजह उनके कृषि उत्पादों का बाज़ार में सही भाव नहीं मिलना है। आज देश के ज़्यादातर कृषि वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी इस बात के पक्ष में हैं कि किसानों को उनके उत्पादों का सही भाव मिले। लेकिन वहीं कुछ तथाकथित कृषि विशेषज्ञ और सरकार के नुमाइंदे कहते हैं कि एमएसपी लागू करने से बाज़ार की स्थिति बिगड़ जाएगी। महँगाई बढ़ जाएगी। लेकिन सवाल यह है कि कई महीने खेतों में मेहनत करके, लागत लगाकर फ़सल पैदा करने वाला किसान अपनी लागत भी वापस नहीं पाता, जबकि बिचौलिये, दलाल और आढ़तिये चंद मिनटों या कुछ ही दिनों में किसान से भी ज़्यादा मुनाफ़ा उन्हीं उत्पादों से कमा लेते हैं। तो क्या सरकार और यह तथाकथित कृषि विशेषज्ञ इन बिचौलियों, दलालों और आढ़तियों के पक्ष में खड़े हैं? क्या सरकार को देश का पेट भरने वाले अन्नदाता से ज़्यादा चिन्ता उन लोगों की है, जो अपने मुनाफ़े के चक्क में किसानों को लूटने के अलावा जनता की भी जेब काटते हैं और इसके बावजूद मिलावट करके जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते हैं? इसके पीछे क्या रहस्य है? यह बताने की हमें ज़रूरत नहीं; आप ख़ुद समझदार हैं।

एमएसपी पर ना-नुकुर क्यों?

किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने में अब तक की सभी सरकारों ने ना-नुकुर की है। यही वजह रही कि सन् 1965 में एमएसपी पर कृषि उत्पादों की ख़रीद की सहमति के बावजूद आज तक न्यूनतम समर्थन मूल्य क़ानून नहीं बन सका। न ही आज तक किसी सरकार ने रंगनाथन समिति और स्वामीनाथन समिति की सिफ़ारिशें लागू कीं। यहाँ तक कि सन् 2011 में वर्किंग रूल्स ऑफ कंज्यूमर अफेयर्स के अध्यक्ष रहते हुए नरेंद्र मोदी ने तत्कालीन यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार को रिपोर्ट ऑफ वर्किंग ग्रुप कंज्यूमर अफेयर्स के नाम से एक रिपोर्ट सौंपकर एमएसपी को वैधानिक दर्जा देने की माँग की थी। तब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। लेकिन अब जब मोदी ख़ुद प्रधानमंत्री हैं, तो वह इस पर क़ानून बनाने से कतराते रहे हैं, और अब किसानों द्वारा दबाव बनाये जाने पर एमएसपी पर क़ानून बनाने के लिए उनकी सरकार ने समिति बनाने पर सहमति दी है। जबकि सरकार दूसरे क़ानूनों की तरह बिना चर्चा के चुपचाप यह क़ानून बना सकती है।