लगातार ढहते पहाड़ बड़े ख़तरे का संकेत

प्रकृति से मनुष्य का खिलवाड़ लगातार जारी है; लेकिन इसका नुक़सान भी मनुष्य को ही हो रहा है। पिछले कुछ वर्षों से देखा गया है कि भूस्खलन, भूकम्प और पहाड़ों के दरकने, गिरने की घटनाएँ बढ़ी हैं।

अभी बीते 6 सितंबर को ही बारिश के कारण एनएच-94 ऋषिकेश-गंगोत्री नेशनल हाईवे पर नागनी के पास दोपहर में बड़े-बड़े बोल्डर तेज़ी से नीचे सडक़ पर गिरे और इसके बाद पूरा पहाड़ सडक़ पर आ गिरा। यह हाईवे पंजाब के फ़िरोज़पुर को जोड़ता है। इस घटना में दो युवक बाल-बाल बच गये। भले ही किसी की जान नहीं गयी; लेकिन इस घटना से दर्ज़नों लोगों की जान जा सकती थी। इस भूस्खलन से सैकड़ों टन मलबा और बड़े-बड़े बोल्डर सडक़ पर बिखर गये। हाईवे बन्द होने से उसके दोनों तरफ़ वाहनों की लम्बी-लम्बी क़तारें लग गयीं, जिसे खोलने में प्रशासन की टीम लोक निर्माण विभाग के इंजीनियरों के छक्के छूट गये।

इस पहाड़ के गिरने से हालात इतने ख़राब हुए कि राष्ट्रीय राजमार्ग-94 का निरीक्षण करने कृषि मंत्री सुबोध उनियाल पहुँचे और उन्हें इसे लेकर राष्ट्रीय राजमार्ग, पीएमजीएसवाई और लोक निर्माण विभाग के अधिकारियों की तत्काल बैठक बुलानी पड़ी।

इससे कुछ ही दिन पहले नेशनल हाईवे-5 पर ज्यूरी के पास किन्नौर में भूस्खलन की घटना हुई। इस भूस्खलन से भी दोनों ओर यातायात प्रभावित हुआ। यह बहुत डराने वाली बात है कि पिछले कुछ वर्षों से किन्नौर में भूस्खलन की घटनाएँ बहुत हुई हैं। इससे पहले बटसेरी और निगुलसरी में हुए भीषण भूस्खलन से कई लोगों की मौत हो गयी थी। इस बार भी लोगों को भूस्खलन का अहसास पहले ही हो गया था, जिससे वे बच गये अन्यथा कई जानें जा सकती थीं। इससे पहले अगस्त में मसूरी में कई जगह भूस्खलन हो गया। मसूरी टिहरी बायपास रोड पर बाटा घाट के पास भूस्खलन हुआ। मसूरी गलोगी पॉवर हाउस के पास लगातार भूस्खलन होने से पॉवर हाउस तो क्षतिग्रस्त हो गया और स्थानीय लोगों को भी बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।

पहाड़ों पर बढ़ते इंसानी दबाव और पेड़ों के कटान से स्थितियाँ काफ़ी बिगड़ी हैं। यूँ तो हर साल बारिश में पहाड़ों के खिसकने, गिरने और भूस्खलन की घटनाएँ सामने आती रही हैं; लेकिन ये घटनाएँ हर साल बढ़ रही हैं। बारिश के मौसम में होने वाली इन भयावह घटनाओं का अंदाज़ा ऋषिकेश से श्रीनगर के बीच इस बार ही एक दर्ज़न से ज़्यादा स्थानों पर हो चुके भूस्खलन से लगाया जा सकता है। इस मार्ग पर मानसून से पहले भी क़रीब छ: ख़तरनाक क्षेत्र थे; लेकिन अब इनकी संख्या दो दर्ज़न से अधिक हो गयी है। इससे इस क्षेत्र के मार्गों से निकलने वाले लोग बेहद डरे हुए हैं।

क्या होता है भूस्खलन?

भूस्खलन दरअसल ज़मीन के नीचे खोखलापन आने, जलस्तर घटने, ज़रूरत से ज़्यादा भू-दबाव पडऩे और प्रकृति से छेड़छाड़ करने, उस पर मानव दबाव बढऩे, अधिक दबाव वाले संयत्र लगाने से होता है। भूस्खलन के चलते ही पहाड़ खिसकने शुरू हो जाते हैं और फिर गिर जाते हैं। पहाड़ी इलाक़ों में भूस्खलन होना न तो नयी बात है और न ही इसका डर दिलों से जा सकता। क्योंकि कब, कहाँ, भूस्खलन हो जाए इसका किसी को भी पहले से पता नहीं होता। इस बार पहाड़ों पर जिस तरह से भूस्खलन, पहाड़ों के गिरने और खिसकने की घटनाएँ बहुत ज़्यादा सामने आयी हैं, उससे पहाड़ों पर रहने वाले दहशत में हैं। फिर चाहे वे उत्तराखण्ड के निवासी हों, हिमाचल प्रदेश के रहने वाले हों या फिर जम्मू-कश्मीर के लोग। भूस्खलन या पहाड़ों के खिसकने, गिरने के पीछे दो मुख्य कारण होते हैं। पहला तो प्राकृतिक बदलाव, हलचल आदि और दूसरा मानव दबाव और उसके द्वारा चलायी जाने वाली गतिविधियाँ। इनमें प्रमुख गतिविधि जंगलों की अंधाधुंध कटाई है। केवल पेड़ ही अपनी जड़ों के ज़रिये बारिश में मिट्‍टी को कटने से रोकते हैं और छोटे-बड़े पत्थरों को रोककर रखते हैं।

पेड़ों के कटने से बारिश होने पर मिट्‍टी बहने लगती है और पत्थर खिसकने शुरू हो जाते हैं। इससे बड़े-बड़े पत्थर ढलान पर रुक नहीं पाते और पहाड़ खिसक जाते हैं और कई बार पूरे के पूरे गिर जाते पेड़ों के कटने से बारिश होने पर मिट्‍टी बहने लगती है और पत्थर खिसकने शुरू हो जाते हैं। इससे बड़े-बड़े पत्थर ढलान पर रुक नहीं पाते और पहाड़ खिसक जाते हैं और कई बार पूरे के पूरे गिर जाते हैं। हिमाचल प्रदेश, ख़ासकर उसके ज़िला किन्नौर में और उत्तराखण्ड, ख़ासकर उसके पिथौरागढ़, केदारनाथ में पहाड़ों के खिसकने, गिरने, भूस्खलन के मामले बहुत तेज़ी से बढ़ रहे हैं।

इसकी एक वजह इन जगहों पर तेज़ी बढ़ता निर्माण भी है। आजकल तो सडक़ों के चौड़ीकरण और टनल आदि के बनने से भी यह सब हो रहा है; क्योंकि इसके लिए भारी विस्फोट किये जाते हैं, जिससे पहाड़ दरक जाते हैं और धीरे-धीरे वे कमज़ोर होकर गिर जाते हैं। इसके अलावा मिट्‍टी के अपक्षय, अपरदन, भूकम्प और ज्वालामुखी विस्फोट वाले क्षेत्रों में ऐसी घटनाएँ ज़्यादा होती हैं। जानकार और भूविज्ञानी कई बार लोगों को, ख़ासकर सरकारों को चेतावनी दे चुके हैं; लेकिन न निर्माण और पेड़ों का कटान करने से लोग बाज़ आते हैं और न सरकारें इस पर सरकारें ग़ौर करती हैं।

ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ शेफील्ड के शोधकर्ताओं के अध्ययन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वहाँ सन् 2004 से 2016 के दौरान 50,000 से ज़्यादा लोगों को जान भूस्खलन के चलते चली गयी। इन शोधकर्ताओं ने इन 12 वर्षों में हुए 4,800 से ज़्यादा ख़तरनाक भूस्खलन की घटनाओं का ज़िक्र किया। रिपोर्ट में कहा गया कि इन भूस्खलनों में इंसानी गतिविधियों के चलते 700 ख़तरनाक भूस्खलन हुए।

शोधकर्ताओं के मुताबिक, एशिया महाद्वीप में भूस्खलन सबसे ज़्यादा होते हैं। जून, 2013 में उत्तराखण्ड में हिमालय में हुए भूस्खलन से 5,000 से अधिक लोगों की मौत हुई थी। दरअसल भारत की भू-जलवायु परिस्थितियाँ प्राकृतिक आपदाओं का बड़ा कारण हैं। यहाँ बाढ़, चक्रवात, भूकम्प, भूस्‍खलन, पहाड़ों के खिसकने और सूखा पडऩे की घटनाएँ आम हैं। भारत में क़रीब 60 फ़ीसदी भूभाग पर भूकम्प का ख़तरा रहता है। 400 लाख हेक्‍टेयर से अधिक क्षेत्र में वाढ़ आती है। कुल 7,516 किलोमीटर लम्बी तटरेखा क्षेत्र में से 5,700 किलोमीटर क्षेत्र पर चक्रवात का ख़तरा रहता है। वहीं खेती योग्‍य क्षेत्र का क़रीब 68 फ़ीसदी हिस्सा सूखे की चपेट में रहता है। इसके अलावा अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, पूर्वी और पश्चिम घाटों में सुनामी का ख़तरा रहता है। हिमालय के साथ-साथ पहाड़ी इलाक़ों और पूर्वी व पश्चिम घाट के इलाक़ों में अक्‍सर भूस्‍खलन का ख़तरा लगातार बना रहता है।

देश में प्राकृतिक आपदाओं के कुशल प्रबन्धन के लिए आपदा प्रबन्धन सहायता कार्यक्रम सरकार द्वारा चलाये जाते हैं। इसके अलावा इसरो द्वारा अपेक्षित आँकड़ों और सूचनाओं को उपलब्‍ध कराने की दिशा में काम किया जाता है। इतना ही नहीं, संचार व मौसम विज्ञान की जानकारी के लिए भू-स्थिर उपग्रह, भू-प्रेक्षण उपग्रह, हवाई सर्वेक्षण प्रणाली और अन्य तरीक़ों से आपदाओं की पूर्व जानकारी लेने और प्रबन्धन करने की कोशिश की जाती है। इसके बावजूद बड़ी आपदाओं की कई बार जानकारी किसी को नहीं हो पाती। इसरो के नेशनल रिमोट सेंसिंग केंद्र (एनआरएससी) में स्‍थापित निर्णय सहायता केंद्र में भूस्‍खलन, भूकम्प, बाढ़, चक्रवात, सूखा और दावाग्नि जैसी प्राकृतिक आपदाएँ बार-बार धोखा दे जाती हैं, जिसके बाद सिवाय सिर पीटने के कुछ नहीं बचता है।

कहने का मतलब यह है कि तमाम आपदाओं की पूर्व सूचनाओं को समय पर पाने और उन्हें रोकने की सभी योजनाएँ फेल हो जाती हैं और यह तब तक होता रहेगा, जब तक लोग प्रकृति से खिलवाड़ बन्द नहीं कर देते। इंसान को उपग्रहों पर पहुँचने की होड़ छोडक़र ज़मीन पर व्यवस्थाएँ ठीक करने की पहले ज़रूरत है। बेहतर हो कि इंसान पहले उन ग़लतियों को करना छोड़े जिनसे प्रकृति के साथ-साथ उसकी गोद में पल रहे प्राणियों को नुक़सान पहुँच रहा है।

इसके लिए इंसान को न केवल जंगलों को नष्ट करना छोडऩा होगा, बल्कि ख़तरनाक हथियारों का निर्माण भी बन्द करना होगा। पौधरोपण करना होगा। क्योंकि ख़तरे लगातार बढ़ते जा रहे हैं और धीरे-धीरे इंसान का जीवन ही ख़तरे में पड़ता जा रहा है। लोगों को सोचना होगा कि जब उनका जीवन ही नहीं बचेगा, तो आविष्कार किये हुए यंत्र और हथियार किस काम आएँगे? किसके काम आएँगे?