रूसी क्रांति आज भी तर्कसंगत

agriculture

रूस में हुई मज़दूर क्रांति को आज 100 साल हो गए। 1917 में रूस के मज़दूरों और किसानों ने व्लादीमीर लेनिन के नेतृत्व में ज़ार की सत्ता को उखाड़ फेंका था। पूरी दुनिया के लिए यह एक हैरानी, पर बेहद खुशी का लम्हा था। उस समय में कोई भी यह कल्पना नहीं कर सकता था कि मशीनों पर काम करने वाले हाथ कभी राजसत्ता की बागडोर भी थाम सकते हैं। इस क्रांति ने पूरी दुनिया का नक्शा बदल दिया। सामंतवादी व पूंजीवादी निज़ाम के सामने एक चुनौती खड़ी हो गई।
उसी समय फासीवाद के प्रतीक एडोल्फ हिटलर ने रूस पर हमला कर दिया। उसे इस बात का अहसास नहीं था कि जहां मज़दूर-किसान सत्ता में हो वहां जीत पाना आसान नहीं । यह सही है कि सर्द मौसम ने रूसियों का साथ दिया, पर यह भी सच है कि जहां नाज़ी सैनिक वेतन की खातिर लड़ रहे थे वहीं रूसियों की लड़ाई अपनी अस्मिता को बचाने की थी। लेनिनगार्ड की गलियां उस युद्ध की आज भी गवाह हैं। हिटलर के लिए यह युद्ध उसके जीवन का अंतिम युद्ध साबित हुआ।
कार्ल मार्क्स के अर्थशास्त्र को लेकर चला रूस देखते ही देखते दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बन गया। इसमें इस बात का महत्व यह नहीं है कि वह व्यवस्था कब तक रही, उसमें क्या परिवर्तन आया। महत्वपूर्ण यह है कि रूसी क्रांति ने मज़दूरों को शोषण के खिलाफ एक जुट होने का संदेश दिया। सामंतवाद को गहरी चोट दी और पूंजीवाद को जनकल्याण की योजनांए लागू करने पर मजबूर कर दिया। आज पूरे विश्व में ‘पूंजीवादÓ को सम्मान की नज़र से नहीं देखा जाता। वे देश जिनमें पूरी तरह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था लागू है, वहां भी वे समाजवाद का नाम लेने पर मजबूर हैं। आज का पूंजीपति या एकाधिकार का हिमायती भी मुखर रूप से यह नहीं कह सकता कि पूंजीवादी व्यवस्था के लिए लोग वोट दें। वे इसके लिए तरह-तरह के मुखौटे पहनता है। कभी धर्म का नाम लेता है कभी संप्रदाय का । कभी क्षेत्रवाद की बात फैलाता है तो कभी भाषा का मामला खड़ा करता है। लेकिन उसमें यह साहस नहीं है कि वह कह सके कि देश में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था लागू की जाएगी।
मार्क्स की पुस्तक ‘ दास कैपिटलÓ समाजवादी सोच के लोगों के लिए एक ग्रंथ है। मज़दूरों और किसानों की लूट का पता इस पुस्तक के आधार पर लगता है यह कारण है कि आज भी जब पूंजीवादी दुनिया पर मुसीबत आती है तो बाज़ार में ‘दास कैपिटलÓ की मांग तेज़ी से बढ़ जाती है।
इसी के आधार पर कम्युनिस्ट आंदोलन खड़ा हुआ जो पूरे विश्व में फैला। मार्क्स और लेनिन की सोच के अनुसार मानव के हाथों मानव की लूट की एक बड़ी वजह उत्पादन के साधनों  का निजी हाथों में रहना है। यही कारण है कि कम्युनिस्ट देशों में ये संसाधन सार्वजनिक क्षेत्र में दिए जाते हैं, ताकि उनका मुनाफा कुछ एक लोगों या परिवारों के पास इक_ा न हो। मज़दूर को उसके श्रम की पूरी कीमत और किसान को उसकी फसल का पूरा मूल्य मिले।
रूस जो कि सोवियत संघ बना, से चली यह मज़दूर क्रांति पूरे  यूरोप, चीन, कोरिया वियतनाम और क्यूबा वगैरहा में फैली। लेकिन 70 साल बाद इसमें विघटन के संकेत मिले और सोवियत संघ टूट गया। लोगों को इससे भी बेहतर किसी व्यवस्था की ज़रूरत महसूस होने लगी। पूंजीवादी देशों खासतौर से अमेरिका को अब विश्व का बाज़ार अपना लगने लगा। आज इस बात को लगभग 25 साल हो गए। इन 25 सालों में दुनिया बहुत बदली विज्ञान ने विकास किया और कहा जाने लगा कि अब का मानव, इस व्यवस्था में बेहतर जीवन जी रहा है।। कहा गया कि कम्युनिज़म खत्म हो गया है।
रूस में जहां लेनिन के बुत तक गिरा दिए गए थे, आज लोग उसकी तस्वीर ले कर 1917 की क्रांति का जश्न मनाते नज़र आ रहे हैं। हालांकि वहां के राष्ट्रपति पुतीन ने इन समारोहों का बहिष्कार किया है, सरकारी टीवी चैनलों पर 100 साला समारोहों की खबर तक नहीं चली लेकिन लोग फिर से इक_ा हो रहे हैं क्योंकि आर्थिक तंगी और समाज में गरीब और अमीर के बीच की खाई गहरी होती जा रही है।
इन हालात में मार्क्स या लेनिन का याद आना और रूस की ‘वोल्शविकÓ क्रांति  जश्न बहुत अर्थ रखता है। वह क्रांति आज भी उतनी ही तर्कसंगत है जितनी उस वक्त थी।