राजे को लेकर भाजपा में फिर कोलाहल

इन दिनों वसुंधरा समर्थक कोराना के संक्रमण-काल में सेवा का सकारात्मक नमूना गढ़ रहे हैं। इसमें नयी विचारधारा थोपने और भोगोलिक विस्तार जैसा कोई बघार नहीं है। लेकिन अगर कुछ है, तो मज़बूत प्रतिस्पर्धी राजनीति की तपिश; जो प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया को झुलसा रही है। वसुंधरा राजे पर खीझते बेतुके तर्क देते नेता निश्चित रूप से अपने ही राजनीतिक नुक़सान की गारंटी हैं। सूत्रों का कहना है कि पूनिया का प्रचार तंत्र का पंचतंत्र इसे पचा नहीं पा रहा है, उसे इसमें राजनीतिक षड्यंत्र की छाया दिख रही है।
पूनिया को ख़ुद को साबित करने के लिए वैकल्पिक राजनीति का सकारात्मक मॉडल गढऩा चाहिए था, लेकिन वह तो हर क़दम पर फिसल रहे हैं। विश्लेषक कहते हैं कि वसुंधरा मंच के जन रसोई सरीखे सेवातंत्र में अगर साज़िश की कोई मुश्क है, तो पूनिया को ज़्यादा सूझबूझ से प्रतिक्रिया करनी चाहिए थी। जबकि वसुंधरा राजे से टकराव वाला धारावाहिक लम्बा ही खिंचता जा रहा है। चुनावी संवादों में भी पार्टी की भावी नीतियों का कोई ककहरा नहीं था। नतीजतन उप चुनावों में वोटर उनका एक शब्द भी नहीं पचा पाये। बहरहाल भाजपा के राजनीतिक गलियारों में सवालों का सैलाब उमड़ पड़ा है कि वसुंधरा अलहदा कार्यक्रमों के ज़रिये केंद्रीय नेतृत्व पर दबाव बनाने की कोशिश में है। वसुंधरा राजे के निकटतम सूत्र कहते हैं कि वसुंधरा मंच एक सोशल सर्विस है।
कोरोना वायरस के कहर से जूझते लोगों के प्रति हमदर्दी का रचनात्मक इज़हार है। क्या इन कोशिशों को लताड़ा जाना चाहिए। विश्लेषकों का कहना है कि अगर यह कार्यक्रम राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा की डोर में पिरोये हुए होते तो राजे के साक्षात्कार के अंदाज़े बयाँ को क्या कहा जाना चाहिए? जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सात साल के शासन-काल को सर्वोत्तम बताते हुए कहा कि मोदी सरकार ने इस अवधि में ऐसे कई कार्य किये, जो कांग्रेस सपने में भी नहीं सोच सकती। राजे ने कहा कि मोदी के अपूर्व बदलावों से विश्व में भारत का डंका बजा है। कोरोना को लेकर केंद्र सरकार पर की जा रही छींटाकशी को राजे ने ख़ारिज करते हुए कहा कि विपक्ष महामारी को मौक़ा भुनाने के अंदाज़ में देख रहा है। बंगाल चुनावों को लेकर भी राजे ने मोदी का प्रशस्ति गान किया कि भाजपा ने इन चुनावो में ऐतिहासिक बढ़त ली, तीन से बढ़कर 77 तक पहुँची। उन्होंने गहलोत पर तंज़ कसते हुए कहा कि सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को ख़ुश रखने के लिए उनके पास यही एक सटीक फार्मूला है कि खुलकर मोदी की मुख़लिफ़्त करते रहे, जबकि वे अपना घर ही नहीं सँभाल पा रहे। इसलिए अपनी कमियों पर पर्दा डालने के लिए प्रधानमंत्री पर मिथ्या आरोप लगा रहे हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि आख़िर क्यों मीडिया को दिये गये वसुंधरा के इस साक्षात्कार को मोदी के प्रति वफ़ादारी से जोड़कर नहीं देखा जा रहा। विश्लेषकों का कहना है कि पूनिया के प्रचार तंत्र ने मेल-मिलाप की सीमाएँ इस क़दर धुँधली कर दी हैं कि राजे का मोदी प्रशंसा अभियान रेत का ग़ुबार बन कर रह गया है। सियासी गलियारों में खदबदा रही सरगोशियों की बात करें, तो जबसे केंद्रीय नेतृत्व ने राजस्थान में नये नेतृत्व के रूप में संघ पृष्ठभूमि के सतीश पूनिया को प्रदेशाध्यक्ष की कमान सौंपी है, तभी से वसुंधरा राजे पार्टी को अन्दरख़ाने में नुक़सान पहुँचाने में लगी हुई हैं। चर्चा तो यह भी है कि भाजपा को नुक़सान पहुँचाने के लिए राजे समर्थक क़द्दावर नेता गुपचुप षड्यंत्र कर रहे हैं। इनका ख़ुलासा होने पर भूचाल आ सकता है, जिससे राजे को बड़ा सियासी नुक़सान हो सकता है।
विश्लेषकों की मानें, तो भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की नज़र में पूनिया लो-प्रोफाइल के नेता हैं; उनके सामने बेशक ढेरों चुनोतियाँ हैं। क्या पूनिया उन्हें पार कर लेंगे? लाख टके का सवाल है कि वसुंधरा को दरकिनार कर क्या पूनिया वैकल्पिक राजनीति का निर्माण कर पाएँगे? क्या पूनिया ऐसा कोई सियासी दाँव खेलने में माहिर है? विश्लेषक कहते हैं कि कोई भी बदलाव नयी उम्मीद लेकर आता है। सूत्रों का कहना है कि पिछले चुनावों में राज्य के लोगों ने मुख्यमंत्री के रूप में राजे को अलविदा ज़रूर कहा था; लेकिन ख़ारिज नहीं किया है।
विश्लेषकों का कहना है कि वसुंधरा राजे बेशक सामंतवाद की उपज रही हों, किन्तु एक प्रवीण राजनेता के तौर पर जनता के साथ संवाद स्थापित करने में ज़्यादा सफल रहीं। वाहवाही लूटने में शिरोमणि रहीं वसुंधरा ने हर अवरोध को पार किया। लेकिन राजनीति की ज़रूरतों को नकारकर वैचारिक ऊर्जा से संचालित होने वाले टकरावों के खेल से नहीं बच पायीं और यही क़दम उन्हें दम्भ की दुनिया में ले गया। ‘ज़िन्दगी से बढ़कर’ होना ही आरएसएस से उनके टकराव की वजह बना। नतीजतन जीत की दो सफल पारियाँ खेलने और पराजय को भी गरिमापूर्ण बनाने वाली इस अनुभवी नेता को आज पार्टी नेतृत्व तन्हा छोडऩे पर तुला है।


80 के दशक में तो राजे के बिना राजनीति की चर्चा ही नहीं होती थी। शेखावत के बाद यह वसुंधरा के उदय की शुरुआत थी। जल्द ही उन्होंने ख़ुद को न सिर्फ़ नयी भूमिका में स्थापित कर लिया, बल्कि ऐसा विकल्प दिया, जो कभी ग़लती कर ही नहीं सकता था। लेकिन अँधेरे की कोख से जन्म लेने वाली सुबह का इंतज़ार एक रात भी करती है। यही सृष्टि का नियम है; सबके लिए। वसुंधरा भी इसका अपवाद नहीं हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि राजे भाजपा की सबसे प्रखर नेता हैं; लेकिन उनका उत्कर्ष ही उनके पराभव की वजह बन रहा है। अलबत्ता यह उनकी निजी ऊर्जा है कि जनता का उन पर वरदहस्त है।
सूत्रों का कहना है कि बिरला की ताजपोशी ही झिंझोड़कर बता गयी थी कि अब मोदी शाह की जोड़ी राजस्थान की राजनीति को वसुंधरा मुक्त करने की जुगत में है। बेशक बिरला की ताजपोशी को अमित शाह की निजी पसन्द बताया जा रहा था। मगर हक़ीक़त समझें, तो इसमें पूरी तरह सियासत का बघार लगा हुआ था। कोई जमाना था, जब बिरला और वसुंधरा राजे के रिश्तों में आत्मीयता रही होगी? लेकिन इतनी भर कि बिरला वसुंधरा मंत्रिमंडल में संसदीय सचिव की दहलीज़ पर ही टिके रहे। सूत्रों की मानें तो इसके बाद रिश्ते कितने तल्ख़ हुए? कहने की ज़रूरत नहीं है।
पिछले चुनावों में जब अमित शाह ने राजस्थान का दौरा किया था, तो उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि जब तक वसुंधरा राजे हैं, प्रदेश में नेतृत्व का मुद्दा नहीं है। अब वही शाह राजस्थान में नये नेतृत्व की बिसात बिछाने में जुटे हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि इस राजनीतिक क़वायद में लोकसभा अध्यक्ष बिरला की भूमिका किस हद तक होगी? सूत्रों का कहना है कि पूरे प्रदेश को केसरिया रंग में रंगने का लक्ष्य लेकर भाजपा का नया फार्मूला सतीश पूनिया हैं। लेकिन क्या यह फार्मूला वसुंधरा राजे को अप्रासंगिक की मुंडेर पर लटकाने में कामयाब हो सकेगा? सवाल यह भी है कि क्या पूनिया पार्टी की आकांक्षाओं को पूरा करने में कामयाब हो पाएँगे? पूनिया के लिए यही सबसे बड़ी चुनोती है।

वसुंधरा की महत्ता समझे नेतृत्व

कोटा लाडपुरा विधानसभा क्षेत्र के पूर्व भाजपा विधायक भवानी सिंह राजावत अपनी तेज़ तर्रार छवि और जुझारू शख़्सियत के लिए जाने जाते हैं। वसुंधरा राजे के समर्थकों की अगली पांत में गिने जाने वाले राजावत भले ही राजे को लेकर पार्टी में मची हलचल से ख़ुश नहीं हैं; लेकिन मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते और ऐसे किसी भी विवाद से बचते रहे हैं, जो दलीय निष्ठा पर सवाल खड़े कर सकता है। क्या वास्तव में पार्टी ख़ेमेबाज़ी के गलियारे से गुज़र रही है? संगठन ने जिस तरह इकतरफ़ा राह पकड़ी है, उसका ख़ामियाज़ा पार्टी ने कितना और कैसे उठाया? इन तथ्यों पर ‘तहलका’ की भवानी सिंह राजावत से बातचीत के कुछ अंश :-

उप चुनावों में भाजपा के कमज़ोर प्रदर्शन के बारे में आप क्या कहेंगे?
उप चुनावों से पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा ने वसुंधरा राजे ने तथा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया के हाथ मिलवाते हुए कहा था कि एकला चलने से काम नहीं चलेगा, मिलकर चलो। लेकिन क्यों सतीश पूनिया इस नसीहत पर अमल नहीं कर पाये? क्यों उन्होंने उप चुनावों में वसुंधरा राजे को दूर रखा? लेकिन एकजुटता की नसीहत देने वाले नड्डा ने उप चुनावों में राजे को दूर रखा और सतीश पूनिया को ही ‘फ्री हैंड’ दे दिया?
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा प्रखर और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ हैं। उन्होंने जयपुर प्रवास के दौरान प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया से वसुंधरा को साथ लेकर चलने की सलाह दी थी, तो इसकी बड़ी वजह उप चुनावों की फ़िज़ाँ और समय का तक़ाज़ा था। लेकिन पता नहीं क्यों पूनिया दिग्भ्रमित हो बैठे और विराट जनाधार वाली नेता वसुंधरा की उपेक्षा कर बैठे? चुनावी नतीजे क्या हुए? ‘ढाक के तीन पात’।

क्या भाजपा के प्रदेश प्रभारी अरुण सिंह की रणनीति वसुंधरा राजे को उप चुनावों से दूर रखने की थी?
राजे को उप चुनाव से दूर रखना केंद्रीय नेतृत्व की रणनीति का हिस्सा हो सकता था। लेकिन भाजपा के प्रदेश प्रभारी अरुण सिंह के वसुंधरा राजे से बरसों पुराने सम्बन्ध रहे हैं। वह वसुंधरा और केंद्रीय नेतृत्व की दूरियाँ कम कर सकते थे।

राजस्थान में भाजपा का मतलब ही वसुंधरा राजे है, फिर भी केंद्रीय नेतृत्व ने सतीश पूनिया पर दाँव क्यों खेला?
देखिए, जनसंघ से भाजपा तक के 40 साल के राजनीतिक सफ़र में मैंने प्रदेश की भाजपा राजनीति के अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। तीन बार मुख्यमंत्री रहे भैरो सिंह का चुनाव संयोजक भी रहा हूँ। लेकिन राजस्थान के जननायक माने जाने वाले शेखावत भी जोड़-तोड़ से ही सरकार बना पाये। आख़िर पार्टी हाई कमान ने 2002 में वसुंधरा राजे को कमान सौंपी। उन्होंने इतिहास भी रचा। परिवर्तन यात्रा निकालकर 200 में से 120 सीटों पर क़बज़ा किया। वर्ष 2014 में जब उन्होंने 200 में से 162 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत से सरकार बनायी। तभी राजनीतिक हलक़ों में मुहावरा प्रचलित हो गया था कि राजस्थान में वसुंधरा ही भाजपा और भाजपा ही वसुंधरा है।

वसुंधरा समर्थकों का लेटर बम कोटा में ही फूटा है। आप क्या कहना चाहेंगे?
कोटा मे संगठन के पुराने लोगों ने अपनी भड़ास निकाली है। इसलिए लोगों को ऐसा लगने लगा कि कोटा मे बम फूट गया है। बाद में पूरा प्रदेश उबल पड़ा। पंचायतों से लेकर पालिका और निगम चुनाव हार गये। कोटा जैसे गढ़ में हार गये। अब कहने को क्या बचा?

नेता प्रतिपक्ष कटारिया और उप नेता राजेन्द्र सिंह राठौड़ वसुंधरा राजे समर्थकों पर कटाक्ष की भाषा क्यों बोलते हैं? कटारिया कहते हैं कि किसी की मनमर्ज़ी से यह संगठन नहीं चलता? कोर कमेटी की बैठकों में राजे को लेकर संशय क्यों चल रहा है?
इन नेताओं का वसुंधरा राजे समर्थकों पर भाषाई कटाक्ष सुर्ख़ियाँ बटोरने के लिए हो सकता है। कटारिया तो वैसे भी विवादास्पद बयानों के लिए चर्चित हैं। कोर कमेटी की बैठकों में राजे को लेकर संशय का तो कोई आधार ही नहीं है। वसुंधरा राजे तो संस्कारित नेता है, शीर्ष नेतृत्व को उनकी महत्ता समझनी चाहिए।