राजे के लिए कौन सी राह ?

रेतीला राजस्थान यकीनन ऊंटों के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन जिस तरह पिछले पांच सालों में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे समग्र इन्कार का प्रतीक बनकर उभरी, उसने भाजपा के सफे पर दुखंात कथा लिख दी कि,’इस बार फतह का ऊंट उसकी तरफ करवट नहीं लेगा।’’ और यही हुआ भी…..! प्रदेशवासियों के लिए पिछले पांच साल महारानी की मनमानी और भ्रष्टाचार की अतिशबाजी को देखते हुए ही गुजर गए। लोग इस बार के चुनावों में भाजपा सरकार से निर्णायक मुक्ति की उम्मीद लगाए बैठे थे और भगवा भाजपा के राजनीतिक जीवियों को अपनी आस्थाएं तर करने का कोई मौका नहीं देना चाहते थे तो दिया भी नहीं ! सियासत में झूठ की घुसपैठ ने लोगों का विश्वास हिला दिया था। उन्होंने वसुंधरा की सियासी कुटिलता को कड़ा सबक सिखाने के लिए चुनावी दंगल में सरकार की फजीहत का अध्याय लिख दिया? राजस्थान में ‘विकास’ का जुमला तो भाजपा के दिग्गजों ओर वसुंधरा राजे की चुनावी प्रचार वाणी का अलंकार साबित हुआ जबकि असल में चुनाव ‘हिन्दुत्व कार्ड’ पर लड़ा गया।

अगर भाजपा के लिए सब कुछ ठीक-ठाक था तो चुनावी वैतरणी पार कराने के लिए मोदी की’जुबानी दांव पेच’ से सनी भाषणबाजी की नौबत क्यों आई? लेकिन प्रदेश की दो दर्जन सभाओं में मोदी ने गड़े मुर्दे ही उखाड़े, बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार सरीखे महत्ती मुद्दों को छुआ तक नहीं? वसुंधरा राजे ने गहलोत के खिलाफ ”स्त्रीत्व’’ का आखिरी हथियार भी आजमाया और दर्द भरा नगमा गाया कि, ‘मैं महिला हूं, इसीलिए मुझे आसान, हमले का शिकार बनाया जा रहा है।’’

अगर राजे इतनी ही आसान टारगेट थी तो क्या उन्हें भाजपा की पहली क्षत्रप का खिताब मिल पाता जिसने मोदी-शाह की चक्रवर्ती जोड़ी को झुका दिया? वसुंधरा राजे ने यह समझे बगैर कि,’सरकार में आने और आदर्श सरकार होने में राई-पहाड़ सरीखा फर्क है, मनमानी को दर्द में उडेंलते हुए सहानुभूति बटोरने की लफ्फाजी रचने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि,’पूरे पांच साल में जनता के बीच रही ओर गांव-ढाणी तक पहुंची, जनता सच जानती है….जबकि उनके इस दावे की फजीहत तो एक वायरल हुए वीडियो ने कर दी जिसमें वोट मांग रही वसुंधरा राजे से ग्रामीण महिलाएं दो टूक कहती नजर आ रही थी कि,’क्यों वोट दें तुंम्हारे को? लड़के घर में बेरोजगार बैठे हैं?’’ विश्लेषक रतन त्रिखा कहते हैं,’अगर यह सच होता तो ‘सुराज गौरव यात्रा निकालकर गांव-ढाणियों की धूल फांकने की नौबत क्यों आती?’’ एक राष्ट्रीय स्तर के पाक्षिक को दिए गए साक्षात्कार में तब कांग्रेस के कद्दावर नेता अशोक गहलोत ने राजे के बयान का यह कहते हुए तिया-पांचा कर दिया हैं कि,’वसुंधराजी के प्रति जनता की सबसे बड़ी नाराजगी तो इसी बात को लेकर थी कि,’वे साढ़े चार साल तक महलों से निकली तक नहीं। राज्य के दौरे करना तो दरकिनार कोई सुनवाई तक नहीं की…?’’ वसुंधरा जनता को नहीं रिझा सकी तो जाति और धर्म की सियासत करती हुई देवताओं के देवरों तक पहुंच गई। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भले ही कहा हो कि,’मुस्लिमों के बगैर हिन्दुस्तान की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन वसुंधरा सरकार ने जारी किए गए अपने चुनाव घोषणा पत्र में अल्पसंख्यक समुदाय को लगभग साफ ही कर दिया।

भाजपा के साम्प्रदायिकता से सने इस आलाप ने धु्रवीकृत होने का भान करा कर मुस्लिमों को पूरी तरह कांग्रेस के पाले में कर दिया। इधर अल्पसंख्यक भाजपा के हाशिए पर सिमटे तो उधर बजरंग बली की उपासना में ‘कांधे मूंज जनेऊ साजे….’’ की चर्चित चोपाई को नकारते हुए अभद्र भाषा के इस्तेमाल के लिए चर्चित उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हनुमानजी को दलित और वंचित बता दिया। इससे पहले छत्तीसगढ़ की चुनावी सभाओं में हनुमानजी को आदिवासी बता चुकने पर कांग्रेस के राज्यसभा सांसद प्रमोद तिवारी ने इसे योगी का प्रलाप बताते हए कहा कि,’सियासत में कोई इस हद तक भी गिर सकता है कि इष्ट देवताओं को लेकर ही प्रपंच रचने के तैयार हो जाए? केन्द्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री सत्यपाल ने तो योगी के अधकचरे ज्ञान के धुर्रे ही उड़ा दिए कि,भगवान राम और हनुमान के युग में जाति व्यवस्था नहीं, वर्ण व्यवस्था थी।

हनुमान जी दलित नहीं आर्य थे जबकि दलित, शोषित और वंचित शब्द आधुनिक नामकरण है। शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सारस्वत ने योगी के बयान की भत्र्सना करते हुए कहा, कि ‘इष्ट देवताओं के लिए ऐसी निकृष्ट भाषा कोई ‘दुष्ट’ ही बोल सकता है।

वरिष्ठ विश्लेषक प्रताप भानु मेहता कहते हैं, ‘आदित्यनाथ योगी के राजनीतिक कैरियर में जो बात सबसे ज्यादा स्तब्ध करने वाली थी वो ये कि आज तक उन्होंने इस बात का रत्तीभर भी संकेत नहीं दिया कि वे किसी बड़े विचार, और सभ्यता के बारे में बोलने की जरूरत समझते हैं? राजस्थान के मकराना, फतहपुर, रतनगढ़ और पोकरण की सभाओं में बोलते हुए उन्होंने जहरीली जुबान उगलने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि,’हम पांच साल तक तो कांग्रेस को उसके कार्यों के लिए गालियां देते हैं, लेकिन अब हिन्दू परम्परा में नाग पंचमी को नाग को दूध पिलाने की नीति छोडऩी पड़ेगी ….! विश्लेषक कहते हैं कि,’आखिर योगी ने ‘नाग’ किसे परिभाषित किया? भाजपा के प्रचार वीर नेता आखिर संस्कृति और परम्पराओं के लिए श्रेष्ठ माने जाने वाले भारत को कहां ले जाना चाहते है?

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने जयपुर, पाली ओर उदयपुर की सभाओं में वसुंधरा सरकार की किसी योजना का जिक्र तक करना जरूरी नहीं समझा, अलबत्ता उन्होंने यह कह कर कांग्रेस को इस कदर अस्पृश्य बना दिया कि,’कांग्रेस केा वोट देना तो दूर, उसे छूने का प्रयास भी किया तो महापाप होगा…! यहां मेहता की टिप्पणी बहुत कह जाती है कि,’नाथों की अलग आध्यात्मिक परम्परा रही है लेकिन उग्र नाथ योगियों का राजनीतिक इतिहास विखंडनकारी रहा है। नाथों को औरंगजेब ने संरक्षण दिया। उन्नीसवीं शताब्दी के राजा मानसिंह उनके शिष्य थे और अपनी रियासत को नाथों को अर्पित बताते थे। विश्लेषकों का कहना है कि,’वसुंधरा राजे ने भी राजस्थान को आदित्यनाथ योगी को अर्पित कर दिया था। अब अगर भाजपा की वापसी की उम्मीदों में राजे ने राजधानी में गोरक्षनाथ मठ स्थापित होने की हुंकार भरी होती तो क्या नाथ समुदाय का इतिहास भी स्कूली बच्चों को पढ़ाया जाता? मतलब तब तक तो भाजपा पूरी तरह नाथों को अर्पित हो ही चुकी थी। विश्लेषकों का कहना है कि,’इस बार अगर भाजपा राजस्थान में हिन्दूत्व के कार्ड पर चुनाव लड़ रही थी तो क्या इसके पीछे योगी का चेहरा नहीं झिलमिला रहा था?

आखिर भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र में भाजपा ने योगी को पूरी तरह कृतार्थ किया तो इस भावविभेद की भाषा का अंतर भीं भांप लेना चाहिए कि भाजपा ने इस बार सिर्फ एक ही मुस्लिम उम्मीदवार को चुनावी मैदान में क्यों उतारा और वो भी टोंक में पूंछ दबने के कारण? तो फिर अमित शाह के इस दावे के कितने टके खड़े होते हैं कि,’हम हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर टिकट नहीं देते?

वरिष्ठ पत्रकार अंशुमान तिवारी कहते है कि,’क्या हम भारतीय राजनीति के वैचारिक ध्रुव लोकतंत्र की सर्वसमावेशी अदृश्य शक्ति का संकेत सुन रहे हैं? ‘‘क्या भारत बहुसंख्यक, अल्पसंख्यकों का देश है जो भारत के भविष्य की राजनीति का निर्धारण करेंगे? संघ प्रमुख मोहन भागवत की मानें तो, ‘हिन्दूत्व का अर्थ सर्व-समावेशी भारतीयता है….तो योगी कौनसी सर्वसमावेशी जुबान बोल रहे थे? बहरहाल कभी वसुंधरा राजे से मिलने तक से परहेज करने वाले मोदी वसुंधरा के साथ कितने घी-शक्कर हो चुके थे? जालोर, सिरोही और उदयपुर की सभाओं में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की चुनावी धुन सुने तो,’मोदी-राजे की जोड़ी मणिकांचन योग है !’’ गजब तो यह हुआ कि रोजगार के लिए पिछले पांच सालों से सिर धुनते युवाओं को शाह ने अपने जिगर का टुकड़ा बता दिया। उन्होंने कहा,’मेरे जिगर के टुकड़े एक बार फिर सरकार बनाने का मौका देंगे।’ ऐसा क्या उनके ‘टुकड़े-टुकड़े करने के बाद करते?

विश्लेषकों का कहना है कि, ‘इतिहास कभी दफन नहीं होता, अलबत्ता जानबूझकर उसे भुलाना भय और भ्रांति की वजह से ही हो सकता है। यह एक दिलचस्प हकीकत है कि,’चुनावी दंगल में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने जिस तरह मोदी-राजे मिलाप को मणिकांचन योग बताया उसने कभी यह कहकर धृष्टता की सीमा लांघ दी थी कि,’यह पार्टी मेरी मां राजमाता विजया राजे सिंधिया ने बनाई बढ़ाई है। उनके नाम और काम से ही आप यहां पहुंचे हैं। ”यह वही राजे है, जिन्होंने आठ साल तक संघ कैडर के पदाधिकारी को संगठन मंत्री के पद पर मनोनीत नहीं होने दिया। साल 2014 के चुनावी नतीजे आए तो राजे ने मोदी लहर को यह कहकर साफ नकार दिया ओर अहंकारी फिकरा कसा कि, ‘यह हमारी अपने जतन से कमाई गई जीत है और अपनी कमाई गई जीत का श्रेय हम किसी और को क्यों देना चाहेंगे? संघ के दखल को भी राजे ने यह कहकर नकार दिया कि, ‘मुझे अपने परफारमेंस पर अटूट भरोसा है। संघ प्रमुख की निगाहों से वसुंधरा की हठधर्मिता का नुमाइशी चेहरा उस वक्त भी गुजरा जब इस तर्क के बावजूद कि,’मुख्यमंत्री आवास सत्ता और संगठन का साझा केन्द्र नहीं होना चाहिए? लेकिन राजे ने तमाम नसीहतों को धत्ता बताते हुए अपने भरोसेमंद अशोक परनामी की संगठन के अध्यक्ष पद पर दुबारा ताजपोशी करवा ली। मोदी-शाह की लाख कोशिशों के बावजूद उन्होनेे ‘एंटीइंकबेंसी’ के अंदेशों को दुत्कार दिया और चुनावी नेतृत्व की कमान पूरी धोंस-डपट के साथ कब्जा ली? राजनीतिक रणनीतिकारों का कहना है कि ‘अब जबकि इस बार के चुनाव भाजपा के भविष्य की नई पटकथा लिखने जा रहे थे तो शिकस्त के रथ का सारथी कौन बनना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर तो पिछले दिनों भाजपा के ही नेता और केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने दे दिया कि, ‘अगर आप जीत का श्रेय लेने को उतावले थे तो हार का हकदार भी मोदी-शाह को ही होना चाहिए।

वसुंधरा सरकार की योजनाओं को लेकर लोगों का नजरिया कभी भी उत्साहवर्धक नहीं रहा। लेकिन आंकड़ों को लेकर नेताओं की बयानबाजी भी कोढ़ में खाज साबित हुई। रोजगार के आंकड़े तो पतंग के मांझे की तरह उलझ गए।

पता नहीं यह हड़बड़ाहट चुनावी माहौल की वजह से रही या हकीकत से बेखुदी के कारण कि, मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की जुबान पर 44 लाख को रोजगार देने के दावे कुलबुलाते रहे तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह यह तादाद 26 लाख बताते रहे और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मदनलाल सैनी 35 हजार पर ठिठक गए। लेकिन हकीकत से हर कोई बेखबर रहा। वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी इसे झूठ में पगी फितरत की संज्ञा देते हैं। इसका हश्र यह हुआ कि यह उलटबांसी एक अजीबोगरीब तल्खी में तब्दील हो गई। विश्लेषक कहते है सच बेपर्दा हो चुका था और संकल्प तिनके तिनके हो चुका था, लेकिन भाजपा नेताओं का दुस्साहस देखिए कि,’अपनी निष्ठुर नीति को चाशनी में लपेटकर वोट मंडी में बेचने की हिमाकत करते रहे? वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी कहते हैं कि,’फसल की सुध लेने का काम तो किसी स्तर पर भी नहीं हुआ ना फसल का वाजिब दाम मिला, ना कर्ज में राहत? मुखोटों की नाटकीयता वाली मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बड़े बोल वाले प्रचार का प्रताप प्रपंच में सना रहा कि,’हमने 50 हजार तक का कर्ज माफ कर दिया। लेकिन किसान केे दर्द की नब्ज को तो समझा ही नही कि, ‘जब खेती पर इस्तेमाल होने वाली हर चीज टैक्स के शिकंजे में थी तो राहत कैसी? विश्लेषकों का सवाल चुनावी घोषणा पत्र को घेरता नजर आया जिसमें कहा गया था कि,’पांच हजार युवाओं को रोजगार भत्ता देंगे? युवाओं का सवाल था, ‘डिग्रियों को लेकर हम उनसे काम मांग रहे थे या खैरात?

गांव-ढाणियों की औरतें तो वसुंधरा राजे की बड़े तीखे अंदाज में हमलावर रही कि,’तू कांई करयो जो तने वोट देवां?’’ गांव-ढाणियों में खबरनवीसों की पड़ताल मे बुजुर्ग तो बड़ी बेबाकी से कहते रहे, कि,’वसुंधरा के गिर्द चौतरफा असंतोष इस कदर भड़का हुआ था कि, उनके लिए बचने की कोई राह ही कहां बची थी?

विश्लेषक कहते हें कि 163 वोटों के एक तिहाई बहुमत से सत्ता में आई वसुंधरा सरकार ने मुसीबतों को बुलावा अपने अलोकतांत्रिक तरीकों से ही दिया। सामंती शैली में राजनीति और मोदी-शाह के साथ तलख रिश्तों ने वसुंधरा राजे के राजनीतिक जीवन के समापन की पटकथा लिख दी है। राजे का राजहठ और लोकतांत्रिक व्यवस्था से बदशगुनी छेड़-छाड़ अब उनके लिए सियासत में वापसी के कपाट हमेशा के लिए बंद कर देगी। बहरहाल फिलहात तो भाजपा के राजनीतिक हल्कों में वसुंधरा राजे के लिए नई भूमिका तलाशने की चर्चा सरगर्म है। सूत्रों की मानें तो फिलहाल उन्हें विधानसभा प्रतिपक्ष नेता की दौड़ में आगे माना जा रहा है। लेकिन सूत्रों का कहना है कि,’भाजपा हाईकमान वसुंधरा राजे को पार्टी प्रदेशाध्यक्ष मदनलाल सैनी के स्थान पर समायोजित करने के विकल्प पर भी विचार कर रहा है। लेकिन विश्लेषक कहते हैं कि,’मोदी-शाह की चक्रवर्ती जोड़ी से तल्ख रिश्तों के मद्देनजर राजे के लिए हर राह मुश्किल है।

नफरत की फितरत

राजमहलों से राजनीति में कदम रखने वाली वसुंधरा राजे के बारे में यह बात कितनी सच है कि उन्हें, ‘नफरत को पालने का शौक है? और इस जहरीले शौक की नोक पर उन्होंने कितनों को सूली पर चढ़ाया? इसकी लंबी फेहरिस्त मिलेगी? इतिहास को खंगालें तो उन्होंने अपने पारिवारिक प्रतिद्वंदियों को भी नहीं बख्शा तो अपनी पार्टी और राजनीतिक प्रतिद्वंदियों की तो क्या बिसात थी? उन्हें राजस्थान के मुख्यमंत्री पद पर पहुंचाने वाले पार्टी के दिग्गज ललित किशोर चतुर्वेदी के राजनीतिक जीवन का उन्होंने जिस तरह तिया-पांचा किया आज भी सिहरन पैदा करता है। मुख्यमंत्री के मौजूदा कार्यकाल में घनश्याम तिवाड़ी अच्छी खासी जीत हासिल करने के बाद भी सत्ता के सिरमौर नहीं बन पाए तो सत्ता तंत्र का हिस्सा बनने की आस लगाए तत्कालीन नगरीय विकास मंत्री प्रताप सिंह सिंघवी को तो उन्होंने पहले ही आंखे तरेरते हुए कह दिया था कि वे इस बार ऐसा कोई सपना नहीं पाले? जबकि सिंघवी के पुरखों की बदौलत ही भाजपा ने शेखावत के नेतृत्व में राजस्थान में सत्ता तंत्र पर पांव जमाए थे। आखिर क्या थी इसकी वजह? दरअसल सिंघवी के कुछ फैसले वसुंधरा राजे को रास नहीं आ रहे थे। कहा जाता है कि इनमें 25 बीघे के एक भूखंड को एसईजेड के अधिग्रहण से बाहर रखने का फैसला वसुंधरा राजे के हितों में आड़े आ रहा था। कहा जाता है कि वसुंधरा राजे के पिछले कार्यकाल में तो जयपुर विकास प्राधिकरण भ्रष्टाचार के सबसे बड़े प्रतिष्ठान के रूप में कुख्यात हो गया था। दरअसल उस दौरान सिंघवी का यह आदेश वसुंधरा की राह में शूल उगा गया था,कि जिसमें कहा गया था कि ‘निजी क्षेत्र की कालोनियां को मंजूरी देने संबंधी और भू-उपयोग बदलने की सभी फाइलें मंजूरी देने से पहले उनके पास आनी चाहिए। सिंघवी का यह आदेश वसुंधरा राजे को बुरी तरह विचलित कर देने वाला था। इन आदेशों से सिंघवी तो वसुंधरा राजे की आंखो की किरकिरी बने ही, सिंघवी के भरोसेमंद जयपुर विकास प्राधिकरण के आयुक्त जगदीश चन्द्र कातिल को भी बलि का बकरा बनना पड़ा। कहते हैं कि उन्हें अपमानजनक स्थिति में पद से हटना पड़ा। सूत्रों की मानें तो जगदीश चन्द्र ने किसी और महकमें में तबादला लेने की बजाए एच्छिक सेवानिवृति लेना बेहतर समझा। इस बात ने भी लोगों को बहुत चौंकाया कि जगदीश चन्द्र की जगह वसुंधरा राजे दिल्ली विकास प्राधिकरण में रहे तजुर्बेकार डी.बी. गुप्ता को ले तो आई लेकिन गुप्ता को शस्त्रविहीन अधिकारी बनाए रखते हुए सारे अहम अधिकार अपने पास रख लिए। नतीजतन पूरे प्राधिकरण में जबरदस्त खलबली मच गई। कहते हैं कि तभी इस चर्चा ने जोर पकड़ा कि प्राधिकरण में एक बीघा जमीन के भू-उपयोग परिवर्तन के लिए तीन से आठ लाख की रिश्वत देनी पड़ती है। हालांकि बाद में यही गुप्ता वसुंधरा राजे के दूसरे कार्यकाल में मुख्य सचिव बने? सूत्र कहते हैं कि जयपुर विकास प्राधिकरण तो वसुंधरा के अभी हाल के कार्यकाल में भी भ्रष्टाचार का गढ़ बना रहा? आज शेखावत के दामाद नरपत सिंह राजवी भी अगर भूले-बिसरे नेता बनकर उपेक्षा की गलियों में खाक छान रहे हैं तो आश्चर्य कैसा? पिछले कार्यकाल में वसुंधरा राजे के दायां हाथ रहे चंद्रराज सिंघवी और सत्यनारायण गुप्ता आज राजनीति के कौन से धुंधलके में खो गए?होटल राजमहल पैलेस को लेकर वसुंधरा राजे की जयपुर के राजघराने से रार क्या ठनी कि,’दीया कुमारी को इस बार विधानसभा चुनावों में टिकट से ही महरूम कर दिया गया?

हो गई वसुंधरा की विदाई

वर्ष 2011 सं पहले तक अपनी ही पार्टी से अलग-थलग दिखने वाली वसुंधरा राजे वर्ष 2013 आते-आते तो पूरे राजस्थान की राजनीति की मुख्य धुरी बन गई। वर्ष 2008 के विधानसभा चुनावों में राजस्थान में भाजपा की करारी हार हो गई थी और मुख्यमंत्री पद छिन जाने के बाद वसुंधरा राजे विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष बन गई। लेकिन यह दौर लंबा नहीं चला और पार्टी में उनके खिलाफ ऐसा माहोल बन गया कि 2011 में उन्हें यह पद भी छोडऩा पड़ा। इसकी वजह बनी प्रदेश में एक और चुनाव मे भाजपा की करारी हार। इस पराजय के बाद राजस्थान की राजनीति में गहरी पैठ रखने वाले स्थानीय नेता ही उनके खिलाफ गोलबंद हो गए। नतीजतन वसुंधरा राजे प्रदेश की राजनीति में हाशिए पर आ गई। राजस्थान की राजनीति मेंं बाहरी गिनी जाने वाले वसुंधरा राजे को 2018 के विधानसभा चुनावों में फिर शिकस्त मिली। वसुंधरा राजे भले ही इस बार मोदी-शाह के साथ चलते तल्ख रिश्तों के बावजूद राग अलापने में पीछे नहीं रही कि,’मैं कहीं नहीं जाने वाली…..जीना यहां मरना यहंा…! लेकिन गुरूवार 10 जनवरी केा भाजपा नेतृत्व से राजे को राजस्थान छोडऩे का परवाना मिल गया….उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर प्रदेश की राजनीति से बाहर कर दिया गया…. इस बार जिस तल्ख अंदाज में वसुंधरा को बाहर किया गया है, उनकी वापसी की कोई उम्मीद नहीं बची है।