राजे के मंसूबों पर वज्रपात

बीती 8 मार्च को अपनी सालगिरह के जश्न का पासा फेंककर वसुंधरा राजे ने भाजपा आलाकमान को अपनी ताक़त का अहसास कराने का नया सियासी दाँव खेल दिया। बेशुमार मन्दिरों वाले क़स्बे के शेरायपाटन में आयोजित इस जश्न में 11 सांसदों और 42 विधायकों के अलावा भारी तादाद में कार्यकर्ताओं की मौज़ूदगी से राजे के चेहरे पर गर्वीली मुस्कान खिंचती नज़र आयी। नतीजतन राजे का ग़ुरूर शायराना अंदाज़ में उनके सर चढ़कर बोला- ‘बिजली जब चमकती है, तो आकाश बदल देती है; नारी जब गरजती है, तो इतिहास बदल देती है।’

सालगिरह के जश्न में राजे ने पूरे जोशीले अंदाज़ में आगामी विधानसभा चुनावों में नेतृत्व की कमान थमने की अभिलाशा का प्रदर्शन कर दिया। नतीजतन आतलाकमान की पेशानी पर सिलवटें पड़े बिना नहीं रहीं। उधर ख़ुशी से फूलकर कुप्पा हुईं वसुंधरा अपनी आस्था तर करने के लिए दिल्ली पहुँचीं; लेकिन उनसे मिलना तो दरकिनार प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने उन्हें ड्योढ़ी पर भी पाँव रखने की इजाज़त नहीं दी।

इससे पहले नेतृत्व की कमान सौंपने के लिए वसुंधरा समर्थकों का भाजपा आलाकमान को लिखा गया एक सौहार्दपूर्ण ख़त उनकी ख़ता बन चुका था। चिट्ठी में विधायकों ने वसुंधरा राजे को प्रदेश में मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने के लिए जो नया सियासी व्याकरण गढ़ा था, उसका सुर शीर्ष नेतृत्व को रास नहीं आया। मीडिया में चिट्ठी बम की किरचें उड़ीं, तो प्रदेश प्रभारी अरुण सिंह ने नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए राजे समर्थकों को क़ैफ़ियत के लिए जयपुर के एमएनआईटी गेस्ट हाऊस में तलब कर लिया। चिट्ठी में लोकतांत्रिक मूल्यों का हवाला देते हुए दलील दी गयी थी कि राजनीति में चेहरा बहुत मायने रखता है, जनता चेहरे को ही देखती है। अलबत्ता राजे समर्थक विधायकों ने राजनीतिक परिस्थितियों के अनुकूल कोई पटकथा तैयार नहीं की थी। नतीजतन अरुण सिंह के साथ बहस के दौरान मुद्दे को अलग मोड़ दे दिया कि व्यवस्था को जिस तरह चलाया जा रहा है, वह सही नहीं है।

 

विश्लेषकों का कहना है कि वसुंधरा राजे की मंशा को मोदी और शाह पूरी तरह भाँप चुके थे। नतीजतन ऐलानिया कह दिया कि इस बार नेतृत्व उनकी तरफ़ करवट नहीं लेगा। मोदी और शाह की चक्रवर्ती जोड़ी का हर गूढ़ फ़ैसला कोई बड़ा लक्ष्य और अपने आम आदमी पार्टी में एक सियासी मंसूबा संजोये रहता है, ताकि अपने विरोधियों और वंशवादी लोगों को बड़ा झटका दिया जा सके। सूत्रों का कहना है कि भले ही वसुंधरा नहीं समझ पायी; लेकिन इससे काफ़ी पहले ही बिरला की ताजपोशी झिंझोड़ कर बता गयी थी कि अब मोदी-शाह की जोड़ी राजस्थान की राजनीति को वसुंधरा मुक्त करने की जुगत में है। बेशक बिरला की ताजपोशी को अमित शाह की पर्सनल च्वाइस बताया जा रहा था। जबकि हक़ीक़त समझें, तो इसमें पूरी तरह सियासत का बघार लगा हुआ था। कोई ज़माना था, जब बिरला और वसुंधरा राजे के रिश्तों में आत्मीयता रही होगी? लेकिन इतनी भर कि बिरला वसुंधरा मंत्रिमंडल में संसदीय सचिव की दहलीज़ पर ही टिके रहे। इसके बाद रिश्ते कितने तल्ख़ हुए? कहने की ज़रूरत नहीं है। लोकसभा चुनावों में तो नौबत यहाँ तक आ गयी थी कि वसुंधरा राजे बिरला का टिकट कटवाने पर आमादा हो गयी थीं। वसुंधरा पूरी तरह कोटा राजपरिवार के इज्यराज सिंह को टिकट दिलवाने पर लामबंद थीं। लेकिन शाह के आगे राजे की एक नहीं चली और टिकट बिरला को मिलकर रहा। जबकि टिकट मिलने की आस में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आये इज्यराज सिंह न घर के रहे, न घाट के। मोदी किस तरह आडवाणी और जसवंत सिंह को हाशिये पर धकेलने में कामयाब हुए; यह वसुंधरा समझतीं, तो विधानसभा चुनाव अपनी कमान में लडऩे का राजहठ नहीं करतीं। केंद्रीय मंत्रिमंडल में गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुन मेघवाल, और कैलाश चौधरी सरी$खे अपने विरोधियों को शामिल किया जाना वसुंधरा राजे ने कितनी सूनी आँखों से तितर-बितर देखा होगा, यह कहने की ज़रूरत नहीं। सूत्रों का कहना है कि राजे की अंदरूनी तिलमिलाहट सबसे ज़्यादा इस बात को लेकर रही कि एक साल की सांसदी के बाद ही बिरला सर्वोच्च आसन पर जा बैठे, जबकि संसदीय कार्यकाल की चार पारियाँ खेल चुके उनके सांसद बेटे को राज्य मंत्री का पद भी नहीं मिला?

सूत्रों की मानें तो यह एक दिलचस्प हक़ीक़त है कि जब तक लालकृष्ण आडवाणी क़द्दावर रहे, वसुंधरा राजे निरंकुश बनी रहीं। राजमहलों की सामंती शैली की राजनीति करते हुए उन्होंने किसी की परवाह भी नहीं की। तब वह किस क़दर आँखें तरेरने में माहिर थीं, इसकी बानगी इसी बात से समझी जा सकती है कि जब सन् 2014 के चुनावी नतीजे आये, तो उन्होंने अहंकारी भाव में फ़िक़रा कसने में क़सर नहीं छोड़ी कि यह सिर्फ़ नरेन्द्र मोदी की जीत नहीं, बल्कि यह हमारी जतन से कमायी गयी जीत है। किसी और को इसका श्रेय क्यों लेने देना चाहेंगे? उनके राजनीतिक जीवन का इतिहास बाँच चुके विश्लेषकों का कहना है कि वसुंधरा राजे अपनी हथेलियों में राजयोग की लकीरें देखने की इस क़दर अभ्यस्त हो चुकी है कि प्रदेश की सियासत को लेकर किसी भी मुद्दे पर ख़ुदमुख़्तारी दिखाने से नहीं चूकती। विश्लेषकों का कहना है कि यही हठीलापन राजे के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी रही है। मनमानी के इतने मौक़े उनकी पीठ पर लदे हैं, वह मौक़ापरस्त होने का कौशल ही भूल गयी हैं। इस वक़्त जबकि राजे केंद्रीय मंत्रिमंडल में उनके विरोधियों को तवज्जो देने और प्रदेश भाजपा में नया नेतृत्व तैयार किये जाने की धुन सुन रही है। बावजूद इसके महारानी इस सच को क़ुबूलने के लिए तैयार नहीं कि उन्हें अब राजनीतिक हाशिये पर डाल दिया गया है।

वसुंधरा के रोचक राजनीतिक रोज़नामचे को बाँच चुके विश्लेषकों का कहना है कि इन स्थितियों से राजे कहीं भी दुविधाग्रस्त नज़र नहीं आ रही हैं। आज भी उनकी ज़ुबान पर रटा-रटाया जुमला है कि ‘मैं कहीं नहीं जाने वाली। जीना यहाँ, मरना यहाँ…’

विश्लेषक उनकी बेफ़िक्री को नज़रअंदाज़ नहीं करते। उनका कहना है कि राजे भाजपा नेतृत्व को बेचैन करने की कोई नयी क़िस्सागोई की शुरुआत कर सकती हैं। मोदी-शाह में वसुंधरा को लेकर ग़ुस्से की खदबदाहट है, तो इसकी बड़ी वजह है चुनावी रैलियों में उस धुन की अनसुनी करना कि ‘वसुंधरा तेरी ख़ैर नहीं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि अगर तभी इस धुन के मर्म को समझ लिया जाता और वसुंधरा केा चुनावी मैदान से हटा लिया जाता, तो राजस्थान की सत्ता भाजपा के हाथों से फिसलने से रोकी जा सकती थी। उस दौरान प्रदेश में आरएसएस ने केंद्रीय नेतृत्व को आगाह किया था कि सरकार के प्रति लोगों में जबरदस्त नाराज़गी है। इसलिए चुनावी कमान वसुधरा के हाथों में सौंपना बहुत बड़ा जोखिम होगा। लेकिन अपनी होनहार नेता के प्रति संघ का यह नज़रिया राजे समर्थकों को हज़म नहीं हुआ।

जनवरी, 2016 में जब अमित शाह ने राजस्थान का दौरा किया था, तो उन्होंने न सिर्फ़ वसुंधरा राजे की प्रशंसा की थी, बल्कि यहाँ तक कह दिया था कि जब तक वसुंधरा राजे हैं, प्रदेश में नेतृत्व का मुद्दा नहीं है। राजे भी उसी तर्ज में शाह की शैदाई बनी नज़र आयीं कि उन्होंने पार्टी को फिर से जीवंत बना दिया है। शाह ने हमें चुनावी रंग में ला दिया है। लेकिन एक-दूसरे की ख़ूबियाँ गिनाने की ज़ुबानी रंगबाज़ी अब पूरी तरह ग़ायब है। अब शाह राजस्थान में नये नेतृत्व की बिसात बिछाने में जुटे हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि इस राजनीतिक क़वायद में लोकसभा अध्यक्ष बिरला की भूमिका किस हद तक होगी?

सूत्रों का कहना है कि अभी से पूरे देश को केसरिया में रंगने का लक्ष्य लेकर चल रही भाजपा का नया फार्मूला केंद्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत को मुख्यमंत्री पद के लिए गढऩे को लेकर होगा, तो राज्यवर्धन सिंह को प्रदेश अध्यक्ष के लिए तैयार किया जाना होगा। गजेन्द्र सिंह शेखावत मोदी के बेहद क़रीब माने जाते हैं। हालाँकि सूत्रों का कहना है कि संघ मॉडल पर प्रचारक और विस्तारक संघ विचारधारा के साथ प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हो सकता है। सूत्रों का कहना है कि मोदी की तर्ज पर यह कहानी राजस्थान में दोहरायी जा सकती है। लेकिन क्या वसुंधरा के जोरावर रहते हुए इस कहानी की पटकथा को लिखना आसान होगा?

दरक चुका शीशा

 राजनीतिक धैर्य के अनोखे प्रदर्शन के बाद भाजपा आलाकमान ने वसुंधरा राजे से अपनी रहस्यमय दूरी का ख़ुलासा करने का फ़ैसला कर लिया है। बेशक वसुंधरा राजे ने विधानसभा चुनावों में नेतृत्व की पाग बाँधकर कृतज्ञ करने की गुज़ारिश में कोई कसर नहीं छोड़ी। आलाकमान ने वसुंधरा के प्रति लोगों के उत्साह बार-बार परखा; लेकिन हर बार उन्हें कोई सन्तोषपरक प्रतिक्रिया नहीं मिली। राजनीतिक विश्लेशक के.बी. शर्मा कहते हैं कि इस पर तो अटकलें भी नहीं लगायी जा सकतीं। दरअसल राजे समर्थकों का इस बात को हवा देना ही बेतुका लगता है। शर्मा कहते हैं कि अगर आलाकमान ने वसुंधरा को हरी झण्डी दे दी होती, तो अब तक आस्तीनें चढ़ाती नज़र आतीं। लेकिन वह तो ज़ाहिर चुप्पी की मांद में ही दुबककर बैठी हैं। शर्मा कहते हैं कि कोई ज़माना था, जब अमित शाह ने मोदी-वसुंधरा की जोड़ी को मणिकांचन योग बताया था; लेकिन अब तो शीशा दरक चुका है।

शर्मा का कहना है कि इतिहास कभी दफ़न नहीं होता, अलबत्ता जानबूझकर उसे भुलाना भय और भ्रान्ति की वजह से ही हो सकता है। यह एक दिलचस्प हक़ीक़त है कि पिछले चुनावी दंगल में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने मोदी-राजे मिलाप को मणिकांचन योग बताया; लेकिन वसुंधरा ने यह कहकर धृष्टता की सीमा लाँघ दी कि यह पार्टी मेरी माँ राजमाता विजया राजे सिंधिया ने बनायी और बढ़ायी है। उनके नाम और काम से ही आप यहाँ पहुँचे हैं। यह वही राजे हैं, उन्होंने आठ साल तक संघ कैडर के पदाधिकारी को संगठन मंत्री के पद पर मनोनीत नहीं होने दिया। सन् 2014 के चुनावी नतीजे आये तो राजे ने मोदी लहर को यह कहकर साफ़ नकार दिया ओर अहंकारी फ़िक़रा कसा कि यह हमारी अपने जतन से कमायी गयी जीत है और अपनी कमायी गयी जीत का श्रेय हम किसी और को क्यों देना चाहेंगे? संघ के दख़ल को भी राजे ने यह कहकर नकार दिया कि मुझे अपने परफॉर्मेंस पर अटूट भरोसा है। संघ प्रमुख की निगाहों से वसुंधरा की हठधर्मिता का नुमाइश चेहरा उस वक़्त भी गुज़रा जब इस तर्क के बावजूद कि मुख्यमंत्री आवास सत्ता और संगठन का साझा केंद्र नहीं होना चाहिए? लेकिन राजे ने तमाम नसीहतों को धता बताते हुए अपने भरोसेमंद अशोक परनामी की संगठन के अध्यक्ष पद पर दोबारा ताजपोशी करवा ली। मोदी-शाह की लाख कोशिशों के बावजूद उन्होंने एंटीइंकबेंसी के आदेशों को दुत्कार दिया और चुनावी नेतृत्व की कमान पूरी धौंस के साथ क़ब्ज़ा ली? शर्मा का कहना है कि अब जबकि इस बार के चुनाव भाजपा के भविष्य की नयी पटकथा लिखने जा रहे हैं, तो रथ का सारथी कौन बनना चाहिए? कम-से-कम वसुंधरा तो नहीं। वसुंधरा सरकार की योजनाओं को लेकर लोगों का नज़रिया कभी भी उत्साहवर्धक नहीं रहा। लेकिन आँकड़ों को लेकर नेताओं की मुख़्तलिफ़ बयानबाज़ी भी कोढ़ में खाज साबित हुई। रोज़गार के आँकड़े तो पतंग के माँझे की तरह उलझ गये।

फार्मा का कहना है कि पार्टी में वसुंधरा के गिर्द चौतरफ़ा असन्तोष इस क़दर भड़का हुआ है कि उनके लिए बचने की कोई राह ही कहाँ बची है? शर्मा कहते हैं कि 163 वोटों के एक-तिहाई बहुमत से सत्ता में आयी वसुंधरा सरकार ने मुसीबतों को बुलावा अपने अलोकतांत्रिक तरीक़ों से ही दिया। सामंती शैली में राजनीति और मोदी-शाह के साथ तल्ख़ रिश्तों ने वसुंधरा राजे के राजनीतिक जीवन के समापन की पटकथा लिख दी है। राजे का राजहठ और लोकतांत्रिक व्यवस्था से बदशगुनी छेड़छाड़ अब उनके लिए सियासत में वापसी के कपाट हमेशा के लिए बन्द कर चुकी है।