राजस्थान में बाल ‘विवाह का पंजीकरण’ अनिवार्य

राजस्थान विधानसभा में विवाह का अनिवार्य पंजीकरण संशोधन विधेयक पारित

हाल ही में राजस्थान विधानसभा में राज्य सरकार ने राजस्थान में विवाहों का अनिवार्य पंजीकरण संशोधन विधेयक ध्वनिमत से पारित करवा लिया। विपक्ष (भाजपा) और सरकार समर्थित विधायकों ने इस विधेयक का विरोध किया। नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया ने तो इसे काला क़ानून तक कह डाला है। विधानसभा में प्रतिपक्ष नेता गुलाबचंद कटारिया ने जिसे काला क़ानून कहा है, उसे जानना ज़रूरी है।

ग़ौरतलब है कि 17 सितंबर को राजस्थान विधानसभा में पारित क़ानून के मुताबिक, राज्य में होने वाले विवाहों के अनिवार्य पंजीकरण के अंतर्गत अब बाल विवाह का भी क़ानून के तहत पंजीकरण करवाया जा सकेगा। नये क़ानून में यह प्रावधान किया गया है कि अगर शादी के वक़्त लडक़े की आयु 21 साल व लडक़ी की आयु 18 साल से कम है, तो उसके माता-पिता को 30 दिन के भीतर ही इसकी सूचना पंजीकरण अधिकारी को देनी होगी। बाल विवाह के मामले में लडक़ा-लडक़ी के माता-पिता पंजीकरण अधिकारी को तय प्रारूप में ज्ञापन देकर सूचना देंगे। इसके आधार पर वह अधिकारी इस बाल विवाह को पंजीकृत करेगा।

बाल विवाह के पंजीकरण को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष आमने-सामने आ गये हैं। संसदीय कार्यमंत्री शान्ति धारीवाल ने सरकार की ओर से सफ़ार्इ दी कि बाल विवाह के पंजीकरण का मतलब उन्हें वैधता देना नहीं है। बाल विवाह करने वालों के ख़िलाफ़ पंजीकरण करवाने के बाद भी पहले की ही तरह कार्रवाई की जाएगी। उसमें कोई रियायत नहीं दी गयी है। मंत्री धारीवाल ने तर्क दिया कि सरकार ने यह क़दम सर्वोच्च न्यायालय के सन् 2006 में दिये गये अहम फ़ैसले के मद्देनज़र उठाया है, जिसमें सभी तरह के विवाहों के अनिवार्य पंजीकरण का निर्देश जारी करने का उल्लेख है। मंत्री जहाँ इसके पीछे सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को आधार बता रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सदन में नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया ने कहा कि आप इसे लागू भले ही कर दें, लेकिन यह काला क़ानून ही रहेगा।

ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 2006 में सीमा बनाम अश्विनी कुमार के मामले में फ़ैसला देते हुए निर्देश दिये थे कि सभी प्रकार के विवाहों का पंजीकरण अनिवार्य होगा। देश में विवाह पंजीकरण अनिवार्य सम्बन्धी कोई केंद्रीय क़ानून नहीं है; लेकिन अधिकतर राज्यों ने अपने-अपने क़ानून बनाये हैं। विवाह पंजीकरण की अहमियत विशेषतौर पर महिलाओं के लिए अधिक है।

अक्सर बिना किसी ऐसे वैध दस्तावेज़ के अभाव में शादीशुदा महिलाओं को छोड़ दिया जाता है। पुरुष दूसरी शादी कर लेते हैं। महिलाएँ कई तरह के शोषण का अधिकार भी होती हैं। कई बार वे छोड़ दिये जाने पर भी पति से मुआवज़ा या हक़ भी नहीं माँग पातीं। ऐसी ही कई समस्याओं को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने विवाह पंजीकरण अनिवार्य करने के निर्देश जारी किये थे। अब राजस्थान सरकार ने अपने राज्य के क़ानून में संशोधन कर बाल विवाह का पंजीकरण भी अनिवार्य कर दिया है। अब इस बात की आशंका जतायी जा रही है कि कहीं आम लोग, ख़ासतौर पर गाँवों में- जहाँ बाल विवाह अधिक होते हैं; इसका मतलब बाल विवाह को वैध बनाने से न ले लें। बेशक सरकार कह रही है कि इस संशोधन का मतलब बाल विवाह के मामलों में कोई रियायत देना नहीं है; लेकिन ज़मीनी स्तर पर सरकार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। वैसे भी राजस्थान देश के उन राज्यों की सूची में शामिल है, जहाँ बाल विवाह होते हैं।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान में इस समय क़रीब डेढ़ करोड़ बालिका वधू हैं। राजस्थान समाज की पहचान रूढि़वादी समाज वाली है। यहाँ लड़कियों को बोझ मानने वाली मानसिकता बरक़रार है। हालाँकि बाल विवाह को रोकने के लिए क़ानून तो बनाये गये; लेकिन इसके बावजूद यह कुप्रथा चिन्ता का विषय बनी हुई है। दुनिया भर के एक-तिहाई बाल विवाह भारत में होते हैं, जिसके चलते भारत के लिए यह कुप्रथा दुनिया भर में शर्मिंदगी का कारण बनी हुई है। सन् 1929 में शारदा अधिनियम बनाया गया, फिर सन् 1978 में और उसके बाद सन् 2006 में अधिनियम बना।

बाल विवाह को रोकने के लिए भारत सरकार ने 01 नवंबर, 2007 से बाल विवाह निषेध अधिनियम-2006 लागू किया। इसके तहत 21 साल से कम आयु के पुरुष और 18 साल से कम आयु की महिला की शादी को बाल विवाह की श्रेणी में रखा गया है, जिसे दण्डनीय अपराध माना गया है। साथ ही बाल विवाह सम्पन्न कराने वालों को भी इसके तहत दो साल की सज़ा या एक लाख का ज़ुर्माना या दोनों हो सकते हैं। किन्तु किसी महिला को कारावास में दण्डित नहीं किया जा सकता है। इस अधिनियम के तहत किये गये अपराध संज्ञेय और ग़ैर-जमानती हैं। दरअसल यह अधिनियम तीन उद्देश्यों को पूरा करता है- बाल विवाह की रोकथाम, बाल विवाह में शामिल बच्चों की सुरक्षा और अपराधियों पर मुक़दमा चलाना। यह अधिनियम न तो शादी करने वाले किसी पुरुष और न ही नाबालिग़ लडक़े से शादी करने वाली किसी महिला के लिए दण्ड का प्रावधान करता है। क्योंकि यह माना जाता है कि शादी का फ़ैसला अक्सर लडक़े-लडक़ी के परिवार वाले करते हैं और ऐसे फ़ैसलों में उनकी राय नहीं ली जाती और न ही मानी जाती है। इस अधिनियम में बाल विवाह के ख़िलाफ़ शिकायत करने का भी प्रावधान है और बाल विवाहों के मामलों की निगरानी के लिए बाल विवाह निषेध अधिकारी नियुक्त करने की भी व्यवस्था है।

इन अधिकारियों के पास बाल विवाह को रोकने, क़ानून का उल्लघंन करने वालों की रिपोर्ट बनाने, अपराधियों पर आरोप लगाने, जिसमें बच्चों के अभिभावक भी शामिल हो सकते हैं; के अधिकार हैं। इसके अलावा बच्चों को ख़तरनाक और सम्भावित ख़तरनाक हालात से बाहर निकालने का भी अधिकार दिया गया है। क़रीब एक अरब 40 करोड़ की आबादी वाले देश भारत के लिए बाल विवाह को ख़त्म करना एक बहुत बड़ी चुनौती है।

यूनिसेफ की सन् 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में उस समय 22 करोड़ 30 लाख बालिका वधू थीं। इनमें से 10 करोड़ से अधिक की शादी 15 साल की उम्र से पहले ही हो गयी थी। रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश में बालिका वधुओं की संख्य सबसे अधिक 3 करोड़ 60 लाख बतायी गयी। इसके बाद बिहार और पश्चिम बंगाल आते हैं, जहाँ यह संख्या 2 करोड़ 20 लाख प्रति राज्य है। बाल विवाह किसी बच्चे को अच्छे स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा के अधिकार से वंचित करता है। सेंटर फॉर रिसर्च नामक संगठन की निदेशक डॉ. रंजना कुमारी का मानना है कि बाल विवाहों के पीछे सामाजिक व आर्थिक हालात भी ज़िम्मेदार होते हैं। समाज में लड़कियों को लडक़ों से कमतर आँकने और बोझ समझने वाली मानसिकता को दूर करने के लिए बहुत प्रयास करने की ज़रूरत है। इस दिशा में सरकारी योजनाओं का ज़मीन पर अपेक्षित प्रभाव देने के लिए आर्थिक निवेश और सामाजिक पहल की दरकार है।

बाल विवाह का एक सम्बन्ध ग़रीबी और अनपढ़ता से भी है। कोविड-19 महामारी की मार ग़रीब, निम्न आय वाले तबक़ों पर अधिक पड़ी है। ग़रीबी के बढऩे और लॉकडाउन में स्कूलों के लम्बे समय तक बन्द रहने के कारण बाल विवाहों की संख्या में बढ़ोतरी की आंशका जतायी गयी है। बाल विवाह की अधिकतर शिकार लड़कियाँ ही होती हैं और इसके चलते उनका बचपन उनसे छीनकर उन्हें जबरन ऐसी ज़िन्दगी जीने को विवश कर दिया जाता है, जो उनके लिए बहुत जोखिम भरा होता है। देश में लड़कियों, महिलाओं में ख़ून की कमी (एनीमिया) एक बहुत बड़ी समस्या है। अल्पपोषित नाबालिग़ लड़कियाँ शादी के बाद कम उम्र में ही माँ बन जाती हैं, तो वे अधिकतर कुपोषित बच्चों को ही जन्म देती हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी यही कहना है कि 15-19 आयु वर्ग की किशोरियों की मौत का प्रमुख कारण गर्भावस्था या शिशु को जन्म देने सम्बन्धी जटिलताएँ हैं। केंद्र सरकार के लिए यह शर्म से सिर झुका देने वाली बात है कि दुनिया के एक-तिहाई बाल विवाह भारत में होते हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने फरवरी, 2020 में अपने बजटीय भाषण में इस बात का ज़िक्र किया था कि सन् 1978 में सन् 1929 के शारदा एक्ट में संशोधन कर लड़कियों की शादी की नयूनतम उम्र 15 से बढ़ाकर 18 कर दी गयी, जिसका मक़सद बाल विवाह को ख़त्म करना था। अब वक़्त आ गया है कि जबरन और कम आयु में होने वाली शादियों को पूरी तरह से ख़त्म किया जाए, ताकि लड़कियाँ उच्च शिक्षा हासिल कर सकें और अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा कर सकें। दरअसल वित्त मंत्री का इशारा लड़कियों की शादी की उम्र वर्तमान न्यूनतम आयु 18 से और बढ़ाने की ओर था। केंद्र सरकार का मानना है कि सम्भवत: ऐसे क़दम उठाने से बाल विवाह कम हो जाएँ।