राजनीति में न फँसें खिलाड़ी

कुश्ती के खिलाडिय़ों के आन्दोलन को जाट आन्दोलन बनाने की हो रही पूरी कोशिश

पिछले कई दिनों से जंतर-मंतर पर बैठे पहलवानों की सुनवाई नहीं हो रही है। बृजभूषण शरण सिंह पर एफआईआर दर्ज हुए भी काफ़ी समय हो चुका; लेकिन दिल्ली पुलिस ने बृजभूषण शरण सिंह से यह पूछने की भी हिम्मत नहीं दिखायी है कि मामला क्या है? लेकिन अब इस आन्दोलन में एक नया सियासी मोड़ देखने को मिल रहा है। इसलिए मुझे लगता है कि पहलवानों को न्याय मिलेगा या नहीं यह तो भविष्य बताएगा; लेकिन भाजपा को आगामी लोकसभा चुनाव और हरियाणा की विधानसभा में लाभ की संभावना बढ़ चली है, क्योंकि भाजपा हरियाणा में 35 बनाम एक का खेल पहले ही खेलती रही है।

दरअसल, राजनीतिक जानकारों का मानना है कि इस आन्दोलन को भाजपा जाट बनाम अन्य जाति करने की कोशिश कर रही है। ज़ाहिर है कि यूट्यूबर और छोटे चैनल, अख़बार इस आन्दोलन को कवर कर रहे हैं। परन्तु मुख्यधारा मीडिया का एक ख़ास तबक़ा और दिल्ली पुलिस इस आन्दोलन को पनपने नहीं देना चाहते। हालाँकि ख़ास पंचायतों के कुछ नेता और कुछ सामाजिक कार्यकर्ता महिला पहलवानों के के पक्ष में आकर खड़े हो रहे हैं। लेकिन फिर भी जानबूझकर इस आन्दोलन को जाट बनाम मोदी सरकार किया जा रहा है, जिसके चलते अभी तक इस आन्दोलन को बल नहीं मिल रहा है। सवाल यह है कि फिर इस आन्दोलन को कैसे बड़ा आकार मिले।

राजनीति के जानकारों का मानना है कि इस आन्दोलन को महिला बनाम मोदी किया जाए, तभी देश भर में भाजपा का माहौल बनेगा, अन्यथा यह आन्दोलन भाजपा को नुक़सान पहुँचा देगा। अगर याद करें, तो हरियाणा के पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 35-1 के फार्मूले से चुनाव लड़ा था यानी 36 जातियों में एक जाति- जाट एक तरफ़, और बाक़ी 35 जातियाँ एक तरफ़ के फार्मूले पर चुनाव लड़ा गया था, और इसी के चलते भाजपा जीती थी। इसलिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर महिला खिलाडिय़ों के शोषण का जो आन्दोलन चल रहा है, इस आन्दोलन को भी 35-1 के फैक्टर की ओर मोडऩे की कोशिशें की जा रही हैं, जो कि कहीं न कहीं इस आन्दोलन को कमज़ोर किये हुए है। माना जा रहा है कि इसलिए इस आन्दोलन में ख़ास पंचायतों को बढ़ावा दिया जा रहा है। अगर यह आन्दोलन केवल एक जाति या समाज का बनकर रह गया, तो फिर इसे ख़त्म होने में देर नहीं लगेगी। बृजभूषण भले कुश्ती संघ में शक्तिहीन हो गये; लेकिन अभी उनका बचाव हो रहा है।

ग़ौरतलब है कि पहलवानों का आन्दोलन पहली बार नहीं हो रहा है, पहले भी खिलाड़ी अपनी समस्याओं और माँगों को लेकर धरने पर बैठे हैं। लेकिन इस बार पहलवानों, ख़ासकर महिला पहलवानों ने जिस तरह के गम्भीर मुद्दे उठाये हैं, उसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। सन् 2008 में हॉकी खिलाडिय़ों ने कु-प्रबंधन और खेल की उपेक्षा करने का आरोप लगाते हुए तत्कालीन केंद्रीय खेल मंत्री एम.एस. गिल के ख़िलाफ़ दिल्ली के कनॉट प्लेस पर काले बेंज लगाकर धरना प्रदर्शन करते हुए प्रशासन में बदलाव की माँग को लेकर भूख हड़ताल की थी।

इससे पहले सन् 1970 में दिल्ली के राजपथ पर खिलाडिय़ों ने सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया, जिसमें रेसलर भी शामिल थे। लेकिन इस बार मामला न सिर्फ़ खिलाडिय़ों की तौहीन का है, बल्कि महिला खिलाडिय़ों के ख़िलाफ़ कथित रूप से यौन उत्पीडऩ का भी है, वह भी एक ऐसे बाहुबली नेता का; जिसके ख़िलाफ़ भले ही क़रीब 40 क्रिमिनल मुक़दमे हों। लेकिन वह भाजपा का क़द्दावर नेता भी है और मौज़ूदा दौर में मोदी सरकार में सांसद भी।

ऐसे में इसमें कोई दो-राय नहीं कि इस बड़े नेता के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई होने में पहले ही संदेह है। दरअसल कभी भी निष्पक्ष जाँच के लिए ज़रूरी है कि नेता को उसके पदों से अलग किया जाता और राजनीतिक संरक्षण देना बंद किया जाता, तब दूध का दूध और पानी का पानी होता।

बहरहाल असली सवाल यह है कि क्या पहलवानों का आन्दोलन जाति की भेंट चढ़ सकता है? क्या इस आन्दोलन को ख़त्म करने की एक कोशिश की जा रही है। हालाँकि नाम नहीं छापने की शर्त पर कुछ लोग तो यहाँ तक दावा कर रहे हैं कि इस मुहिम का मोहरा ख़ुद सत्यपाल मलिक भी हैं? हालाँकि मुझे इसमें संदेह है और इस बात में कोई दम भी नहीं लगता। क्योंकि सत्यपाल मलिक तमाम पदों पर सरकार के ख़िलाफ़ मुखर होकर बोल रहे हैं। सवाल थोड़े अटपटे ज़रूर हैं; लेकिन है गम्भीर! लेकिन सच्चाई इससे इतर हो, इसकी कोई गारंटी नहीं है।

दिल्ली लुटियंस के राजनीतिक गलियारे में तो खुलकर कानाफूसी हो रही है कि पूर्व राज्यपाल भाजपा का मोहरा हैं। मोहरा किस तरह हैं? यह समझने वाले समझ रहे होंगे, लेकिन वो या तो निशाने पर हैं, या निशाने के लिए हैं। हालाँकि दावे के साथ कुछ कहा नहीं जा सकता।

सामाजिक चिंतक और किसान नेता प्रबल प्रताप शाही कहते हैं कि क्या मोदी और शाह इतने नादान हैं कि एक सांसद को बचाने के लिए एक बड़ा वोट प्रतिशत खोएँगे? और और वह इतने कमज़ोर हैं कि बृजभूषण शरण सिंह को गिरफ़्तार नहीं करा सकते? प्रधानमंत्री मोदी को कर्नाटक में कांग्रेस के चुनावी घोषणा-पत्र में बजरंग दल पर बैन लगाने की बात को लेकर चिन्ता है; लेकिन प्रधानमंत्री को बजरंगबली के भक्त और अखाड़े में बजरंगबली के साधक बजरंग पूनिया और अन्य महिला पहलवानों की कोई चिन्ता नहीं है? इससे साफ़ हो जाता है कि प्रधानमंत्री सिर्फ़ और सिर्फ़ राजनीति करते हैं।

वहीं दूसरी ओर शाही यह भी कहते हैं कि संघ से जुड़े हुए चंद जाट और राजपूत युवा जंतर-मंतर के इस आन्दोलन को समाज में वैमनस्य फैलाने के लिए जाट बनाम राजपूत की लड़ाई बनाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं, उसी के तहत भडक़ाऊ सामग्री सोशल मीडिया के माध्यम से फैला रहे हैं, जिससे कि इस आन्दोलन को भ्रमित किया जा सके, क्योंकि वे जानते हैं कि हरियाणा और अन्य जाट बाहुल्य क्षेत्रों में जाट बनाम अन्य से ही उन्हें फ़ायदा होगा। भाजपा को लगता है कि अगर हिन्दुत्व का मुद्दा फेल होता है, तो जाति का कार्ड खेल दिया जाता है। जबकि और यह जंतर-मंतर पर तो यह ख़ुद-ब-खुद अपने आप ही हो रहा है। इसलिए खिलाडिय़ों को अपने इस आन्दोलन को जातिगत राजनीति की दलदल में फँसने से बचाना होगा।

पहलवानों और खिलाडिय़ों को राजनीतिक समझ नहीं आती; लेकिन कम-से-कम समाज के बुजुर्गों और ख़ास नेताओं को तो समझना चाहिए कि ग़ैर-जाटों और महिला संगठनों को आगे करें, तभी तो देश का मुद्दा बन पाएगा। पहलवानों के धरने से भाजपा का फ़ायदा हो रहा है और वो चाहते हैं कि यह ख़ास और जाट आन्दोलन के रूप में चले। जैसा भाजपा ने पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसान आन्दोलन के दौरान किया और 2022 चुनाव मे जाट बनाम अन्य कर के फ़ायदा लिया था।

हालाँकि भाजपा को पहलवानों के इस आन्दोलन से जाट वोटों का बहुत बड़ा नुक़सान होगा, मुझे इस पर संशय है; क्योंकि भाजपा ने पहले ही तमाम तथाकथित जाट नेताओं की झोली में कुछ न कुछ डालकर उनका मुँह बन्द कर रखा है। तमाम जाट नेता भाजपा में हैं और वो इस समय महिला पहलवानों के मामले में ख़ामोशी के साथ बैठे हैं। उनका ख़ामोश रहना और महिला पहलवानों के बारे में कुछ न बोलना भी कई सवाल खड़े करता है। महिला खिलाडिय़ों के साथ आकर बैठने वाले लोग किसान आन्दोलन के मुक़ाबले 2-3 फ़ीसदी भी नहीं हैं।

इसलिए अगर अभी यह आन्दोलन देश की महिला सुरक्षा बनाम महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़ नहीं बना, तो यह आन्दोलन चलने वाला नहीं। आज सिर्फ़ महिला खिलाडिय़ों के ख़िलाफ़ अत्याचारों का ही मुद्दा नहीं है, बल्कि महिला सुरक्षा को लेकर कोई बेहतरी न होना, बल्कि महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध और अत्याचार का मुद्दा भी है। अगर याद हो, तो हाथरस कांड, बदायूँ कांड, उन्नाव कांड और न जाने कितने ही महिलाओं पर अत्याचारों के मामले हैं, जिन्हें इस महिला खिलाड़ी आन्दोलन में शामिल किया जा सकता है, ताकि यह आन्दोलन जाट बनाम एक सांसद न बने, बल्कि महिला बनाम भाजपा सरकार बने।

सवाल यह है कि महिला पहलवानों के साथ किसान ही खड़े क्यों हों, क्यों देश के दूसरे तबके खुलकर नहीं बोल रहे हैं। क्या यह देश में महिला सुरक्षा का मुद्दा नहीं है। अगर आज इन महिला खिलाडिय़ों को न्याय नहीं मिल सका, तो फिर देश की महिलाएँ, ख़ासतौर पर बेटियाँ सुरक्षित रह सकेंगी, इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकेगा। हालाँकि कई नेता इन महिला खिलाडिय़ों के साथ आकर खड़े हो चुके हैं; लेकिन सवाल यह है कि केवल चंद मिनट महिला खिलाडिय़ों के बीच आकर भाषण देने भर से कुछ नहीं होने वाला, इसके लिए इन नेताओं को महिला खिलाडिय़ों के साथ इस तरह खड़ा होना पड़ेगा। इन महिला खिलाडिय़ों का सबसे बड़ा संबल महिलाएँ बन सकती हैं, जो इनके साथ खड़ी हो सकती हैं।

कई महिलाएँ महिला सुरक्षा की लड़ाई लड़ती हैं, वो भी इनके साथ एकजुट होकर आ सकती हैं। इसके लिए सबको अपनी-अपनी दुकान चलाने की फ़िक्र छोडऩी होगी और राजनीति से दूर रहकर महिला खिलाडिय़ों को न्याय दिलाने के लिए आगे आना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि यह एक जाट आन्दोलन नहीं, बल्कि महिला उत्पीडऩ का मामला है, और वो भी उन महिलाओं के उत्पीडऩ का मामला है, जो दुनिया में देश का गौरव बढ़ाने के लिए मैडल जीतकर लाती हैं। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)