राजनीतिक चक्रव्यूह में घिरा मैसूर का टाइगर

Tipu

नासा के वल्लोप्स फ्लाइट्स फैसिलिटी, यानी जहाँ से राकेट परीक्षण होता है वहां 1780 के एंग्लो मैसूर युद्ध का चित्र लगा हुआ है। यह एक युद्ध दृश्य को दर्शाता है जिसकी पृष्ठभूमि में कुछ रॉकेट उड़ रहे हैं। ”इस पेंटिंग ने मेरा ध्यान आकर्षित किया क्योंकि रॉकेट लॉन्च करने वाले पक्ष पर सैनिक गोरे नहीं थे, बल्कि दक्षिण एशिया में पाई जाने वाली नस्लीय विशेषताओं के साथ काली चमड़ी वाले थे। टीपू सुल्तान की सेना अंग्रेज़ों से लड़ रही है। यह चित्र अमेरिका में टीपू सुल्तान की उस उपलब्धि को उजागर करती है जिसे अपने देश में लोग लगभग भूल चुके हैं,ÓÓ पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी आत्मकथा में यह उल्लेख किया है।
18वीं शताब्दी में मैसूर के शासक हैदर अली और उनके बेटे और उत्तराधिकारी टीपू सुल्तान ने 1780 और 1790 के दौरान ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सफलतापूर्वक पहले लोहा-युक्त रॉकेट का इस्तेमाल किया। कंपनी के साथ उनके संघर्ष ने ब्रिटिश को इस तकनीक से अवगत कराया। जिसका उपयोग 1805 में कॉनरेव रॉकेट के विकास के साथ यूरोपीय रॉकेट्री के लिए किया जाता था। इसलिए यह कहा जा सकता है कि रॉकेट और अंतरिक्ष जहाज की तकनीक पश्चिम को भारत से मिली है और इसमें टीपू सुल्तान की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
मैसूर के शासक की एक नायक के रूप में प्रशंसा करते हुए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने हाल ही में कहा, ”टीपू सुल्तान अंग्रेज़ों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। वे युद्ध में मैसूर रॉकेट के विकास और उपयोग में अग्रणी भी थे। यह तकनीक बाद में यूरोपियों ने अपनाई।ÓÓ कर्नाटक के ”दुर्जेय सैनिकÓÓ पर राष्ट्रपति कोविंद की टिप्पणी, हालांकि, भाजपा को पसंद नहीं आई क्योंकि भगवा पार्टी के अनुसार टीपू सुल्तान ने अपने शासनकाल में बहुत से हिन्दुओं की हत्या की थी और अनेक हिन्दुओं को अपना धर्म बदलने के लिए मजबूर किया था।
हाल में भाजपा के एक मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने टीपू सुल्तान को ”एक कू्रर हत्यारा, नीच कट्टरपंथी और सामूहिक बलात्कारीÓÓ कहा और ”मैसूर टाइगरÓÓ की जयंती के उपलक्ष्य में हो रहे कार्यकर्मों में भाग लेने से इनकार कर दिया था। हिंदू कट्टरपंथियों ने जाहिर तौर पर अपना दावा 18वीं सदी के पिछले दो दशकों में अंग्रेजी अधिकारियों, लेखकों, कलाकारों और कार्टूनिस्टों द्वारा टीपू सुल्तान के विरुद्ध प्रचारित आरोपों पर आधारित किया है। जब टीपू ने युद्ध में अंग्रेज़ों को चुनौती दी थी तो अंग्रेज़ों ने उनको बदनाम करने के लिए उन्हें एक कट्टरपंथी मुसलमान के रूप में पेश किया और कहा कि इस राजा ने हिंदू मंदिरों को तोड़ा और हिंदू और ईसाई को अपने धर्म को बदलने के लिए मजबूर करता रहा है। कहा कि केवल अंग्रेज ही मैसूर की प्रजा को बचा सकते हैं। टीपू को अयोग्य साबित करके ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी छवि सुधारना चाहती थी।
हिन्दू कट्टरपंथी भले ही टीपू सुल्तान को क्रूर शासक बताएं मगर भारतीय इतिहास की पुस्तकों में उनको अच्छे शब्दों में याद किया जाता रहा है और एक आदर्श के रूप में दर्शाया गया है। 19वीं शताब्दी में उनकी मृत्यु के बाद कई कन्नड़ लोक गीतों, जिन्न्हें लवनीस भी कहते हैं, उन्हें गाकर  युद्ध के मैदान में उनकी वीरता का बखान करते रहे। इनमें से कई आज भी प्रचलित हैं। दिलचस्प है कि ऐसे लोकगीत कर्नाटक के किसी और राजा के लिए नहीं गाए गए। 19वीं शताब्दी और 20वीं सदी के अंत में पूरे राज्य में मैसूर शासक पर हजारों नाटकों का मंचन किया गया था। इतिहास की पुस्तकें और लोकप्रिय साहित्य, जैसे कि अमर चित्र कथा कॉमिक्स, ने उन्हें स्पष्ट रूप से एक बहादुर योद्धा कहा है।
आरएसएस ने 1970 के दशक के अंत में टीपू सुल्तान पर एक संक्षिप्त कन्नड़ जीवनी प्रकाशित की थी जो उन्हें देशभक्त और वीर व्यक्तित्व के रूप में दर्शाती है और उसमें उनके ऊपर कोई नकारात्मक टिप्पणी नहीं की। 2012 के अंत में भाजपा छोडऩे के बाद अपनी पार्टी बनाने के लिए कर्नाटक जनता पक्ष के नेता बी एस येदियुरप्पा ने एक समारोह में टीपू सुल्तान जैसी पगड़ी पहनकर और हाथ में एक तलवार लेकर मैसूर शासक की प्रशंसा करते हुए मुसलमान मतदाताओं से समर्थन की मांग की थी। दो साल बाद जब भाजपा में वापस लौटे तो येदियुरप्पा कर्नाटक में टीपू जयंती के जश्न के विरुद्ध सबसे आगे दिखाई दिए। ऐसा प्रतीत होता है मानों 18वीं शताब्दी के मैसूर शासक के विरोध महज़ दक्षिण भारत में राजनीतिक स्थान बनाने के उद्देश्य से किया जा रहा है। जनता का ध्यान आकर्षित करने के लिए ऐतिहासिक चिह्नों का उपयोग तो अब वैसे भी आम बात है।
कोई ठोस ऐतिहासिक रिकॉर्ड मौजूद नहीं है जिनसे जानकारी मिलती हो कि टीपू सुल्तान ने युद्ध में जीते हुए हिंदू मंदिरों को नष्ट कर दिया था। मगर ऐसे लिखित प्रमाण बहुत हैं जो ये सिद्ध करते हैं कि टीपू ने अपने राज्य में कई धार्मिक स्थानों की मरम्मत करवाई थी और उनकी आर्थिक सहायता की थी। श्रृंगेरी के शारदा मंदिर के पास एक दस्तावेज है जिसके मुताबिक जब मराठा सरदारों ने एक बार मंदिर को लूट लिया तो स्वामी श्री सच्चिदानंद भारती तृतीय ने टीपू सुल्तान से मदद मांगी थी। मैसूर शासक ने मंदिर की बहाली के लिए उदारता से धन भेजा था और श्री शारदा की मूर्ति को फिर से स्थापित किया गया था। मंदिर ने अपने पुरालेखों में टीपू सुल्तान के साथ अपना पत्राचार सुरक्षित रखा है। इसमें उन पत्रों को भी शामिल किया गया है जिसमें टीपू ने स्वामी से दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करने में मदद करने के लिए सतचंडी और सहस्त्रचंडी जाप करने के लिए अनुरोध किया था। दक्षिण कन्नड़ जिले के कोल्लूर में श्री मुकाम्बिका मंदिर हर रोज़ मैसूर टाइगर के नाम पर एक विशेष पूजा करता है जिसे ‘सलाम मंगलराठीÓ कहते हैं।
मैसूर के निकट नानजानगढ़ के श्रीकांतेश्वर मंदिर में टीपू सुल्तान द्वारा दान किए गए पन्ना की एक शिवलिंग है। मंदिर के साहित्य के अनुसार मंदिर में अनुष्ठान करने के बाद टीपू का एक पालतू हाथी, जो अंधा हो गया था, उसकी दृष्टि बहाल हो गई। स्थानीय देवता को हकीम नानजुंडा के नाम से संबोधित करते हुए टीपू सुल्तान ने दान किया था। हिंदू मंदिरों के कई अन्य उदाहरण हैं जहां मैसूर शासक या तो आर्थिक मदद की है या वहां गए थे। मैसूर गजट के संपादक श्रीकानातायह ने 156 मंदिरों को सूचीबद्ध किया है जिनको टीपू ने नियमित रूप से वार्षिक अनुदान दिया था।
ये सच है कि मैसूर शासक ने हिंदू और ईसाई समुदाय को कभी कभी निशाना बनाया। परन्तु इतिहासकार केट ब्रैटबैंक के अनुसार, ”यह आक्रमण किसी समुदाय विशेष के प्रति द्वेष के कारण नहीं बल्कि उन्हें सबक सिखाने के लिए थे। जो लोग अंग्रेज़ों का समर्थन करते थे उन्हें मैसूर राज्य के विश्वासघाती के रूप में देखा जाता था। टीपू ने महादेविज जैसे मुस्लिम समुदायों के खिलाफ भी कार्रवाई की थी जो ब्रिटिश सरकार का समर्थन करते थे और ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के लिए काम करते थे।ÓÓ इतिहासकार सुसान बेयली कहती हैं, ”उन्होंने हिंदू और ईसाइयों के साथ अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक संबंधों को मज़बूत करने की पूरी कोशिश की। दिलचस्प है कि टीपू के दाहिना हाथ कहे जाने वाले मुख्यमंत्री एक हिंदू थे। उसका नाम पूर्णिया था।
टीपू सुल्तान, ताजमहल और बाबरी मस्जिद पर चल रहे विवाद इस ओर इशारा करते हैं कि आजकल के राजनीतिक अपने फायदे के लिए इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश करने से भी नहीं चूकते।