रंगीन नफ़रतें

मज़हब ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता बताने वाले नहीं होते, बल्कि मन की आँखें खोलने वाले होते हैं। लेकिन अब लोगों के मन की आँखें ही बन्द होती जा रही हैं। लोग इस क़दर कुछ कट्टपंथियों का अन्धानुकरण करने लगे हैं कि वे अन्धविश्वासी हो चुके हैं। ऐसे लोग किसी एक मज़हब में नहीं, बल्कि हरेक में हैं। ऐसे लोग एकता और सद्भाव की बात करने वालों की नहीं, मज़हबों के नाम पर भडक़ाने वालों की बात मानते हैं। दूसरों के रहन-सहन, वेशभूषा, मज़हब और ख़ान-पान को लेकर चिढ़ रखने की होड़ लग चुकी है। इसी होड़ में रंगे-पुते लोग अब रंगों को लेकर भी नफ़रतों की आग जलने के कगार की ओर बढ़ रहे हैं। यह आग भडक़ाने का काम कौन लोग कर रहे हैं? यह किसी से छिपा नहीं है।

ऐसे लोगों ने अब रंगों को भी मज़हबों के नाम पर बाँट दिया है। मसलन, केसरिया रंग सनातनियों (हिन्दुओं) का है। हरा रंग मुसलमानों का है। सफ़ेद रंग ईसाइयों का है। यहूदियों का पीला रंग है। बौद्धों का गहरा लाल रंग है। सिखों का नीला रंग है। कुछ मज़हबों में एक से अधिक रंगों को भी पसन्द किया जाता है। लेकिन क्या ऐसा कोई रंग है, जो किसी इंसान की ज़िन्दगी में न हो? या वह उससे हमेशा के लिए दूर रहे सके और उसका उपयोग वह कभी न करे? सम्भव ही नहीं है। फिर भी अब रंगों के हिसाब से नफ़रतें पनपने लगी हैं। ख़ासकर सनातन धर्म और इस्लाम धर्म के लोग रंगों को लेकर अब नफ़रतों की आग की लपटों की तरफ़ बढ़ते दिख रहे हैं। लेकिन रंगों को मज़हबी नज़रों से देखने वाले और रंगों के हिसाब से नफ़रतों की आग भडक़ाने वाले किसी भी व्यक्ति को यह समझ नहीं आता कि सभी रंग प्रकृति के हैं और अगर एक भी रंग इनमें से कम कर दिया जाए, तो दूसरे रंगों का न केवल महत्त्व कम होगा, बल्कि बचे हुए रंग फीके भी लगेंगे। एक ही मज़हब के लोगों में, बल्कि एक ही परिवार में भी सबकी पसन्द के अलग-अलग रंग होते हैं। तो क्या उन्हें आपस में नफ़रत करनी चाहिए?

सभी रंगों का एक मतलब होता है। हर रंग कोई-न-कोई सन्देश देता है। किसी प्रेरणा का प्रतीक होता है। मसलन, लाल रंग मंगल, पराक्रम, धन, ख़शी और स्वास्थ्य का प्रतीक होता है। केसरिया (नारंगी) रंग ऐश्वर्य, वीरता, सक्रियता, ख़शी, स्वतंत्रता, ऊर्जा, सामाजिकता, सृजनात्मकता और ध्यान का प्रतीक माना जाता है। इसलिए भारत के राष्ट्रीय ध्वज में भी इसका स्थान सबसे ऊपर आता है। हरा रंग प्रकृति का है और यह शान्ति, शीतलता, सुख और स्फूर्ति का प्रतीक होता है। सफ़ेद रंग को लोग बेरंग समझते हैं। लेकिन सफ़ेद रंग सातों रंगों का मिश्रण होता है, जो कि पवित्रता, शुद्धता, शान्ति, ज्ञान, विद्या गृहण, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और नैतिक स्वच्छता का प्रतीक होता है। पीला रंग मानसिक, बौद्धिक उन्नति के साथ-साथ ज्ञान, विद्या, सुख, शान्ति, योग्यता और एकाग्रता का भी प्रतीक होता है। गेरुआ रंग नयी सुबह, नये उजाले, नयी ऊर्जा, शुद्धिकरण का प्रतीक और आज्ञाकारक तथा ज्ञान प्राप्ति का सूचक होता है। नीला रंग ऊँचाई, गहराई के साथ-साथ बल, पौरुष, वीरता, ठंडक, एकता, वफ़ादारी और सतर्कता का प्रतीक होता है। शान्ति प्रदान करता है। गुलाबी रंग प्रेम, प्रणय, सकारात्मकता, कोमलता, नेतृत्व और सुन्दरता का प्रतीक होता है।

इसी तरह काला रंग अँधेरे, नकारात्मकता का प्रतीक समझा जाता है। लेकिन इस रंग की वजह से ही बाक़ी के सभी रंग प्रकट हो पाते हैं। सोचिए, अगर ब्रह्माण्ड काला नहीं होता, तो चीज़ें दिखतीं कैसे और रंगीन कैसे नज़र आतीं? काले रंग की वजह से ही दूसरे रंगों को हम देख पाते हैं। इसका मतलब यह है कि हर रंग अपने में प्रकृति का, ज़िन्दगी का कोई-न-कोई हिस्सा भरता है और उसे रंगीन करता है। इससे यह सिद्ध होता है कि किसी मज़हब में पसन्द किये जाने वाले रंग का विरोध करने वाले या उस रंग से नफ़रत करने वाले लोग ईश्वर और उसकी संरचना अर्थात् प्रकृति से नफ़रत कर रहे हैं। ज़िन्दगी रंगीन है; रंगहीन नहीं। रंगहीन ज़िन्दगी हो भी नहीं सकती। भले ही किसी की ज़िन्दगी कितनी भी दुश्वार क्यों न हो। ऐसे में किसी रंग के नज़रिये एक-दूसरे से नफ़रत करना मूर्खता नहीं, तो और क्या है? लोगों की इसी मूर्खता का फ़ायदा मज़हबी कट्टरपंथी और राजनीतिक लोग उठा रहे हैं। ये लोग आपकी ज़िन्दगी से कुछ रंग छीनना चाहते हैं। जब वे इसमें कामयाब हो जाएँगे, तब आप अपनी ज़िन्दगी में उन रंगों को न केवल शामिल करने से परहेज़ करेंगे, बल्कि उन रंगों और उन्हें पसन्द करने वालों से नफ़रत करेंगे। आपस में लड़ेंगे, झगड़ेंगे। इसके बाद आपकी आने वाली पीडिय़ाँ इसे परम्परा और संस्कृति मान लेंगी और इस पर तब तक क़ायम रहकर लड़ती-मरती रहेंगी, जब तक वे बड़े विनाश के मुहाने पर नहीं पहुँच जाएँगी।

क्या आप यह चाहते हैं कि आपके बच्चों की ज़िन्दगी इन फ़िज़ूल की उलझनों में बर्बाद हो? जिन रंगों को प्रकृति ने आपको दिया है; आप उनमें से कुछ से इस वजह से नफ़रत क्यों करने पर आमादा हो कि उन्हें किसी दूसरे मज़हब के लोग पसन्द करते हैं। क्या रंगों का भी कोई मज़हब होता है? सभी रंग तो प्रकृति के ही हैं। तो क्या आप प्रकृति से उन रंगों को समाप्त कर दोगे? क्या उन रंगों के, जो आपके मज़हब में प्राथमिकता नहीं पा सके हैं; बग़ैर अपना काम चला सकोगें? क्या आपको मालूम नहीं कि आप जो खाते-पीते हो, पहनते-ओढ़ते हो, देखते हो; सबमें ही सभी रंग भरे हुए हैं। फिर यह पागलपन क्यों? किसके लिए?