यूपी की पिच पर सपा-बसपा

कांग्रेस उभार से 'चिंतित' दोनों दल उसे 'अकेला' छोड़ने की फिराक में

खबर है कि बसपा और सपा कांग्रेस के बगैर उत्तर प्रदेश में ”गठबंधन” की तैयारी कर रहे हैं। हो सकता है यह सिर्फ कांग्रेस पर ”दबाव” बनाने के लिए हो। बसपा और सपा आरएलडी के साथ मिलकर गठबंधन की जो तैयारी कर रहे हैं उसमें एसपी के ३७, बसपा के ३८ और आरएलडी के ३ सीटों पर लड़ने के फार्मूले की ख़बरें छनकर बाहर आ रही हैं।
बहुत दिलचस्प यह है कि इन तीनों के गठबंधन की सीटों का टोटल ७८ बनता है। तो कुल ८० में से बाकी की दो सीटें किसे? यह दिलचस्प सवाल है। बता दें यह दो सीटें अमेठी और रायबरेली की हैं जहाँ यह अघोषित ”गठबंधन” अपने उम्मीदवार नहीं उतारना चाहता। यानी बिना समझौते, बिना किसी आधिकारिक बातचीत के अपनी तरफ से सपा-बसपा कांग्रेस के लिए दो सीटें ”छोड़ना” चाहते हैं।
पिछले चार लोक सभा चुनाव में कांग्रेस ने देश के सबसे बड़े लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में क्रमशः १० (१९९९), ०९ (२००४), २१ (२००९) और ०२ (२०१४) जीती हैं। साल १९८५ में कांग्रेस ने सबसे ज्यादा ८२ (८५ में से) और १९७७ और १९९८ में एक भी सीट नहीं जीती।
साल १९९९ में उतर प्रदेश के विभाजन के बाद उत्तराखंड बना और उत्तर प्रदेश की लोक सभा सीटें ८५ से ८० हो गईं। साल २०१४ के लोकसभा चुनाव में, जब ब्रांड मोदी के प्रचंड लहर चली तो भाजपा ४२.३० प्रतिशत वोट शेयर के साथ ७१ सीटें जीत गयी। जाहिर है इस प्रचंड एकतरफा लहर में दूसरों के हिस्से भला क्या बचता? बसपा को एक भी सीट नहीं मिली और वोट मिले १९.६० फीसदी। सपा को सीटें मिलीं ५ और वोट फीसद रहा २२.२० जबकि कांग्रेस को सीटें मिलीं २ और उसका वोट प्रतिशत ७.५० रहा। हालाँकि वह तब सपा-बसपा के मुकाबले बहुत कम सीटों पर लड़ी थी।
पिछले लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न जीत सकने वाली बसपा अब खुद तो ३८ सीटों पर लड़ना चाहती है और दो सीटें जीतने वाली कांग्रेस के साथ समझौता ही नहीं करना चाहती। और ”भाजपा” को हराने के नाम पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की सीटें कांग्रेस के लिए छोड़कर उसे अघोषित रूप से ”अपने गठबंधन के साथ” रखना चाहती है। क्या कांग्रेस इस असम्मानजनक फार्मूले के लिए सहमति भरेगी? शायद नहीं।
ऐसी स्थिति में क्या कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अकेले लड़ने के लिए मजबूर होगी? शायद हाँ। याद करिये छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के हाल के विधानसभा चुनाव में बसपा (मायावती) ने अपनी ”हैसियत” से ज्यादा सीटों की मांग की थी, कांग्रेस ने उसपर अहसान नहीं करके अकेले मैदान में जाने का फैसला किया था। अब यह फैसला कमोवेश सही ही साबित हो चुका है। यहाँ तक की सपा ने भी अकेले ताल ठोंकी थी।
उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा दोनों संगठन के लिहाज से कांग्रेस से कहीं बेहतर हैं। लेकिन याद करिये २००९ का लोकसभा चुनाव। तब भी कांग्रेस ऐसी ही कमजोर संगठनात्मक स्थिति में होते हुए भी यूपीए-१ की अपने नेतृत्व वाली सरकार की सफलता से उभार पर होने के कारण लोकसभा की २१ सीटें जीत गयी थी।
हाल के तीन विधानसभा चुनाव जीतकर कांग्रेस फिर ”उभार” पर दिख रही है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भाजपा की हिंदुत्व की पिच पर ही उसे चुनौती देते दिख रहे हैं। ऐसे में २०१९ के चुनाव से पहले कांग्रेस फिर उभरी तो क्या बसपा-सपा का बगैर कांग्रेस चुनाव में जाना समझदारी वाला फैसला होगा?
कांग्रेस का एक सोया समर्थक वर्ग उत्तर प्रदेश क्या देश भर में आज भी है। हवा बनी तो कांग्रेस की लाटरी निकलते देर नहीं लगेगी। ऐसे ही उभार के चलते २००९ के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस २०६ सीटें जीत गयी थी।
बसपा-सपा ही नहीं पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से लेकर आंध्र प्रदेश में चंद्र बाबू नायडू तक इस बात को समझते हैं। उन्हें मालूम है कि भले वे अपने प्रदेशों में कितने मजबूत हों, भाजपा के राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर कांग्रेस जनता को भा गयी तो उनकी अपनी स्थिति राज्यों में गड़बड़ा जाएगी।
यह सभी दल क्षेत्रीय होते हुए भी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति बनाये रखना चाहते हैं। हालाँकि सच यह भी है कि उनकी इस महत्वाकांक्षा से लोक सभा चुनाव में वोट का बंटवारा होना लाजिमी है और इसका फायदा भाजपा को ही होगा। हाल के विधानसभा चुनावों के नतीजों का विश्लेषण किया जाए तो जाहिर होता है कि जहाँ-जहाँ भाजपा-कांग्रेस की सीधी टक्कर होती है वहां भाजपा लड़खड़ा जाती है। तिकोनी टक्कर वाले चुनावों में भाजपा को लाभ मिलता है।
यदि २००७ के विधानसभा चुनाव की बात की जाये तो बसपा को २०६, सपा को ९७, भाजपा को ५१ और कांग्रेस को २२ सीटें मिली थीं। इसी तरह २०१२ के चुनाव में सपा को २९.१५, बसपा को २५.९१, भाजपा को १५ और कांग्रेस को ११.६३ फीसद वोट मिले थे और इन दलों को क्रमशः २२४, ८०, ४७ और २८ सीटें मिली थीं। इसी तरह २०१७ के विधानसभा चुनाव में भाजपा को ३९.७, बसपा को २२.२, सपा को २२.० जबकि कांग्रेस को ६.२ फीसद वोटों के साथ क्रमशः ३१२, १९, ४७ और ७ सीटें मिली थीं।
साल २००९ के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने दम पर २०६ सीटें जीती थीं। ऐसे में मोदी की लहर में २०१४ में ४४ सीटों पर पहुँची कांग्रेस आज भी देश में भाजपा के अलावा सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी है। तीन विधानसभा चुनाव जीतकर कांग्रेस और इसके अध्यक्ष राहुल गांधी अचानक २०१९ के लोक सभा चुनाव के लिए भाजपा-मोदी के मजबूत विकल्प दिखने लगे हैं। २०१४ के बाद जो कांग्रेस टीवी चैनलों में ”स्पेस” के लिए तरसती थी, वह अचानक भाजपा की टक्कर का स्पेस पाने लगी है।
 कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी बहुत नपे-तुले तरीके से राज्यों के हिसाब से गठबंधन करने की कोशिश में हैं। इससे मायावती से लेकर ममता और अखिलेश सभी की पेशानी पर बल हैं। उत्तर प्रदेश को लेकर कांग्रेस ने अपनी तरफ से अभी तक कोइ चिंता नहीं जताई है। कांग्रेस के भीतर उतर प्रदेश को लेकर ऐसी चिंता क्यों नहीं है? क्या कांग्रेस कोइ बड़ी रणनीति बुन रही है?
कांग्रेस के पास ऐसी क्या कोइ तुरुप है जो कांग्रेस बेफिक्र है? कांग्रेस क्यों मायावती या अखिलेश को अचानक ज्यादा परवाह से नहीं देख रही? क्या तीन विधानसभा चुनाव जीतकर कांग्रेस ”ओवर कॉन्फिडेंट” हो गयी है? संभवत नहीं। कांग्रेस को यूपी चुनाव के समय इसके उस समय ”रणनीतिकार” प्रशांत किशोर ने एक मारक सुझाव दिया था – ”ब्रिंग प्रियंका गांधी इन यूपी पॉलिटिक्स”। सुना है प्रियंका गांधी मान गईं तो कांग्रेस प्रशांत किशोर के इस सुझाव को २०१९ में मूर्त रूप दे सकती है!