यासीन मलिक को उम्र क़ैद

कश्मीर में और सिकुड़ गयी अलगाववादी राजनीति की गली

जब दिल्ली की एनआईए अदालत 25 मई को जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के प्रमुख यासीन मलिक को दी जाने वाली सज़ा पर विचार कर रही थी, कश्मीर में यासीन मलिक के गृह क्षेत्र मैसूमा सहित श्रीनगर के कुछ हिस्सों में नाराज़गी पसर रही थी। नाराज़गी की हद यह थी कि वहाँ के बाज़ार तुरन्त बन्द हो गये। टेरर फंडिंग मामले में अदालत द्वारा यासीन मलिक को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाये जाने के बाद विरोध-प्रदर्शन जारी रहे। यासीन मलिक के गृह क्षेत्र मैसूबा में उसके समर्थकों ने हिंसक प्रदर्शन के अलावा पथराव भी किया, जिसके बाद पुलिस ने 10 लोगों को हिरासत में भी लिया। भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने आँसू गैस के गोले भी छोड़े। हालाँकि अगले दिन लोगों का ग़ुस्सा कुछ कम हो गया। इसकी वजह शायद यह रही होगी, क्योंकि उम्र क़ैद (आजीवन कारावास) को आमतौर पर मौत की सज़ा के मुक़ाबले कम माना जाता है और इसे उच्च न्यायालयों में भी चुनौती दी जा सकती है। यह सम्भावना रहती है कि हो सकता है कि वहाँ यह सज़ा कम हो जाए। बता दें कि उम्र क़ैद की सज़ा के अलावा यासीन पर 10 लाख का ज़ुर्माना भी लगाया गया है। हालाँकि यासीन को पहले मौत की सज़ा मिलने पर चर्चा चल रही थी; लेकिन उसके आचरण और गुनाह क़ुबूल करने की जेल की रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय ने उसे फाँसी की जगह उम्र क़ैद की सज़ा सुनायी।

यासीन मलिक की भूमिका

कश्मीर मे यासीन मलिक की छवि एक शीर्ष अलगाववादी नेता की रही है। यासीन मलिक को शीर्ष अलगाववादी नेताओं- मीरवाइज़ उमर फारूक और सैयद अली गिलानी के साथ अलगाववादी तिकड़ी के नेताओं में गिना जाता है। बता दें कि गिलानी का पिछले साल सितंबर में निधन हो गया था। वह पूरी घाटी में एक व्यापक लोकप्रियता वाले अलगाववादी नेता रहे। लेकिन अन्य दो नेताओं के विपरीत यासीन मलिक को सन् 1989 में उग्रवादी संघर्ष के मुख्य कर्ताधर्ताओं में एक माना जाता है, और तबसे लेकर अब तक वह कश्मीर में आजादी के अभियान के केंद्र में है। यासीन मलिक ने अपने प्रमुख सहयोगियों- जावेद मीर, अशफाक मजीद वानी और अब्दुल हमीद शेख़ के साथ सन् 1989 में कश्मीर में सशस्त्र अभियान शुरू किया था। इनमें से आख़िरी दो की मौत हो चुकी है।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य में यासीन मलिक की प्रासंगिकता हमेशा से रही है, और शायद वहाँ के लोगों में उसकी प्रासंगिकता रहे भी। ऐसे में उम्र क़ैद की सज़ा केवल कश्मीरी अलगाववादी आकांक्षाओं के प्रतीक के रूप में यासीन के क़द को ही बढ़ाएगी। इस प्रकार यासीन की उम्र क़ैद की सज़ा कश्मीरियों के बीच शिकायत का एक स्थायी स्रोत रहेगा, जो कश्मीर की आज़ादी की उनकी भावना के लिए एक तरह से ईंधन का ही काम करेगा।

यहाँ यह बताना भी प्रासंगिक है कि मलिक अलगाववादी आन्दोलन का सबसे प्रमुख धर्मनिरपेक्ष चेहरा रहे हैं और अतीत में पश्चिम को भी स्वीकार्य रहे हैं। इसलिए नई दिल्ली के लिए यासीन पर धार्मिक लेबल लगाकर उसे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश करना कठिन होगा कि वह कश्मीर को एक इस्लामिक राज्य बनाना चाहता है।

जहाँ तक कश्मीर में आतंकी अभियान का सवाल है, तो मलिक को उम्र क़ैद से उस पर कोई ख़ास असर पडऩे की सम्भावना नहीं लगती, क्योंकि वहाँ कई कारण ऐसे भी हैं, जिनके चलते आतंकी अभियानों के जारी रहने की आशंका है।
बता दें कि यासीन मलिक ने सन् 1994 में हथियार छोड़ दिये थे और शान्तिपूर्ण राजनीतिक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए गाँधीवादी अहिंसक तरीकों का पालन करने का फ़ैसला किया था।

एक उग्रवादी संगठन से जेकेएलएफ एक राजनीतिक संगठन बन गया। यद्यपि हुर्रियत की तरह मलिक ने भी चुनावी राजनीति से दूरी रखी। मलिक को अपने इस फ़ैसले से अकसर उन उग्रवादियों से आलोचना झेलनी पड़ी, जिन्होंने गाँधीवादी सिद्धांतों का पालन करने के लिए उस पर (मलिक पर) ताने कसे थे।

पाकिस्तान समर्थक अलगाववादी नेताओं के समूह के बीच यासीन मलिक कश्मीर में एकमात्र प्रमुख स्वतंत्रता-समर्थक नेता है। वह क्रमश: मीरवाइज़ और दिवंगत गिलानी के नेतृत्व वाले हुर्रियत गठबंधन का हिस्सा भी नहीं है। लेकिन सन् 2016 में लोकप्रिय हिजबुल मुजाहिदीन कमांडर बुरहान वानी की हत्या के बाद अचानक तीनों को एक सामान्य कारण के लिए साथ आने को मजबूर होना पड़ा।

यासीन का पत्र

सन् 2020 में कश्मीर में स्थानीय मीडिया को एक पत्र जारी किया गया था, जिसमें यासीन ने उन कारणों का ज़िक्र किया था, जिनके चलते उन्हें बंदूक उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। उस पत्र में उन्होंने लिखा था- ‘मैंने 1987 (विधानसभा) के चुनाव में इस उम्मीद के साथ सक्रिय रूप से भाग लिया कि चुनावी प्रक्रिया से कश्मीर विवाद का समाधान हो जाएगा। लेकिन गिरफ़्तारी शुरू हो गयी और मुझे मतगणना हॉल से गिरफ़्तार कर लिया गया।’

मलिक ने इस पत्र में लिखा- ‘मुझे एक पूछताछ केंद्र भेजा गया। यातना दी गयी, जिससे मुझे ख़ून से सम्बन्धित संक्रमण हो गया। मैं पुलिस अस्पताल में था, जहाँ मुझे क्षतिग्रस्त हृदय वाल्व का पता चला था। मुझे और सैकड़ों सदस्यों को पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) के तहत हिरासत में लिया गया था। जेल से छूटने के बाद हमें य$कीन हो गया कि यहाँ अहिंसक लोकतांत्रिक राजनीतिक आन्दोलन के लिए कोई जगह नहीं है।’

सन् 1994 में हथियार छोडऩे के अपने फ़ैसले के बारे में लिखते हुए मलिक ने इस पत्र में कहा था- ‘ऐसा करना आसान नहीं था। यह वास्तव में एक सबसे ख़तरनाक और अलोकप्रिय निर्णय था। कई लोगों ने मुझे देशद्रोही घोषित कर दिया। जब कुछ उग्रवादियों ने मुझे अगवा कर लिया तो मैं चमत्कारिक रूप से अपनी जान बचाने में सफल रहा। मेरे कई सहयोगियों ने अपनी जान गँवायी। लेकिन मैं और जेकेएलएफ के सदस्य अपने फ़ैसले पर अडिग रहे और सभी बाधाओं के ख़िलाफ़ अहिंसक संघर्ष का रास्ता अपनाया।’

अलगाववाद की स्थिति

अब नयी योजना में जहाँ केंद्र ने घाटी के मुख्यधारा के राजनीतिक नेतृत्व जैसे $फारूक़ अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती को छोड़ दिया है, जो दोनों जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री हैं; मलिक और मीरवाइज़ जैसे अलगाववादी नेताओं को पूरी तरह से दूर किया जा रहा है। कश्मीर से निपटने के लिए नयी रणनीति के निकट और दीर्घकालिक राजनीतिक नतीजों का अनुमान लगाना जल्दबाज़ी होगी। लेकिन एक बात तय है कि इस नयी रणनीति के बाद अलगाववादी राजनीतिक नेताओं के लिए घाटी में जगह और सिकुड़ गयी है। सवाल यह है कि इस घटना से क्या कशमीर में अलगाववाद की कमर टूटेगी?