यह क्या…!

‘मैडम, मुझे भी एनुअल-डे के कल्चरल प्रोग्राम में पार्टिसिपेट करना है। प्लीज, मुझे भी ग्रुप डांस में ले लीजिए…’ सातवीं में पढऩे वाली 12 वर्ष की कुषा ने झिझकते हुए अपनी म्युजिक टीचर से कहा।

‘अब तो डाँस ग्रुप कम्प्लीट हो गया, अब अगले साल आना, ओके।’

 ‘तो फिर मुझे ऑर्केस्ट्रा ग्रुप में ले लीजिए।’

‘क्या बजाओगी?’

‘मैडम! जो भी आप बताओगे, जो भी सिखाओगे…’ कुषा की आँखों में चमक आ गयी।

‘तुम्हारे घर पे तानपुरा है? या हारमोनियम?’

‘नहीं, मैडम! वो तो नहीं है…’ मायूसी ने अभी-अभी आयी चमक पर डाका डाल दिया।

‘अरे, तो प्रैक्टिस कैसे करोगी तुम? क्योंकि ज़्यादा दिन नहीं बचे हैं हमारे पास, और घर पर प्रैक्टिस के बिना कैसे होगा?’

‘मैडम! मैं पापा से बोलूँगी, तो वो दिला देंगे; तो फिर मैं घर पर प्रैक्टिस कर लूँगी…’ पूरे विश्वास के साथ बोली कुषा।

‘अच्छा, तो ठीक है…; जब हारमोनियम आ जाए घर पर, तब आ जाना।’

‘ठीक है मैडम! आज सैटर्डे है, कल सन्डे को मेरे पापा हारमोनियम ले आएँगे, तब मन्डे से मैं भी आर्केस्ट्रा ग्रुप में प्ले करूँगी, है न!’

‘हाँ…’ आश्वासन मिलते ही कुषा बेसब्री से इंतज़ार करने लगती है स्कूल की छुट्टी की घण्टी बजने का… आज तो जैसे वह चल नहीं रही थी, उड़ रही थी; सोचती जा रही थी कि कब जल्दी-से-जल्दी घर पहुँचे, कब शाम हो, कब पापा आएँ और कब वह उनसे कहे कि उसे एनुअल-डे में पार्टिसिपेट करना है, जिसके लिए घर पर हारमोनियम होना चाहिए।

मगर ये घण्टे भी आज कितनी मुश्किल से सरक रहे थे? कुषा का मन छटपटा रहा था, खेल में भी उसका मन नहीं लग रहा था।

पापा के आते ही रोज़ की तरह सबसे पहले दौडक़र हाथ का सूटकेस और फ्रूट का लिफाफा लिया, दौडक़र पानी का गिलास दिया कि पानी पीएँ, हाथ-मुँह धोकर फ्रेश हो लें, तो अपने पेट में पड़ी बात कहे…। पाँच भाई-बहनों में चौथे नम्बर की कुषा जानती थी कि पिता ने बच्चों को हर वह चीज़ दिलायी, जो स्कूल के लिए उन्होंने माँगी।

भले ही पिता के ऊपर न सिर्फ अपने पाँच बच्चों, बल्कि अपने भाई-बहनों व वृद्ध होते पिता की भी ज़िम्मेदारियाँ थीं…; इतने खर्चों के बाद भी वे बच्चों को हर ज़रूरी चीज़ दिलाते थे; भले ही उन्होंने एक-एक पैसा जोडक़र ज़मीन खरीदी, फिर ईंटों की चिनाई से धीरे-धीर दो कमरे बनवाये और फिर केवल लैन्टर डलवाकर, बिना फर्श-प्लास्टर और बिना खिडक़ी-दरवाज़े के घर में रहना शुरू कर दिया था, ताकि किराये के पैसे बचें और घर चल सके। अब तो घर में प्लास्टर, फर्श था और खिडक़ी-दरवाज़े भी लग चुके थे।

कुशा के बड़े भइया कॉलेज में पढ़ रहे थे और एक भाई तथा दो बहनें अभी स्कूल में थे, पर सब अलग-अलग स्कूल में पढ़ रहे थे। कुछ समय पहले ही बुआ की शादी भी हो गयी थी।

कुषा की उद्विग्नता पिता से कहाँ छुपती, सो पानी पीते-पीते मुस्कुराते हुए पूछ लिया-

‘क्या बात है? तुझे कुछ कहना है?’

 ‘ये क्या, पापा को कैसे पता चल जाता है?’

‘न, हँहाँ; न-न… आप पहले पानी पीजिए पापा! लगभग मुँह से बाहर निकलती बात को कुशा ने बड़ी मुश्किल से रोका…।

‘अच्छा, चल ठीक है; होमवर्क कर लिया?’

‘हाँ जी, पापा!’

सिर हिलाते हुए, पापा कपड़े बदलने चले गये। बस, अब थोड़ा-सा सब्र और, फिर कुषा का उतावलापन खत्म…। पापा के फ्रेश होकर लौटते ही कुषा ने मैडम से हुई सारी बात पापा को बतायी… ‘पापा! अगर हारमोनियम नहीं हुआ तो मुझे मैडम फंक्शन में नहीं लेंगी!’

‘पर बेटा, हारमोनियम कोई दो-चार, 10-20 रुपये का थोड़ी न आता है; कई सौ रुपये का आयेगा। अभी, महीना भी खत्म होने वाला है, पैसे खत्म हो चले हैं। अगली बार ले लेना भाग’

‘पता नहीं, अगली बार मैडम लें या नहीं…?’

पापा! दौडक़र कुषा अपनी गुल्लक उठा लायी, आप मेरी गुल्लक के पैसे ले लो’

‘अरे, तेरी गुल्लक में कितने पैसे होंगे?’ …हँसते हुए कुषा के पापा ने पूछा।

‘ज़्यादा तो नहीं, पर कम-से-कम 3-400 रुपये तो होंगे ही, और आप न मुझे अगले महीने के पॉकेट-मनी के भी पैसे मत देना…’

कहते हुए कुषा अपनी टीन वाले नारियल-तेल के डिब्बे के ऊपरी भाग को लगभग एक-डेढ़ इंच काटकर बनायी गयी गुल्लक को हिला-हिलाकर उसमें भरे सिक्के गिराने लगी। …और मुस्कुराहट लिए पापा के साथ-साथ भाई-बहन भी सारा खेल देख रहे थे…। थोड़ी-सी मेहनत के बाद गुल्लक खाली हो गयी और फिर शुरू हुआ सिक्के गिनने का काम… कुछ एक-दो, पाँच और 10 के नोट एक तरफ रखेे। नारियल तेल में हल्के भीगे एक, दो, तीन… 10, सिक्कों की ढेरी बनाकर रख दी। फिर दूसरी, तीसरी ढेरी, …ढेरियों की बढ़ती संख्या के साथ-साथ कुषा का दिल भी अपनी चाल बढ़ाता जा रहा था।

…और जब ढेरियाँ गिनीं तो आह्हा! पूरी 30 यानी पूरे 300 रुपये! और सारे नोट गिने, तो 90 रुपये; यानी 400 मैं बस 10 कम…! खुशी से कूदते हुए कुशा ने अहाते में चाय पीते पिता के हाथ में ले जाकर रख दिये।

‘पापा! ये 390 रुपये निकले हैं मेरी गुल्लक से; …लीजिए’ अपने बच्चों के स्वाभिमान को ऊँचा बनाये रखने की दिशा में यह भी कुषा के पिता की टैक्निक थी, ताकि बच्चों को पैसे का महत्त्व भी पता चले और बचत की महत्ता भी। साथ ही यह कि बच्चे को लगे कि उन्होंने भी अपना योगदान दिया है… पिता ने चुपचाप कुषा के दिये सिक्के रख लिये। अगली शाम को जब पिता ऑफिस से लौटे, तो साथ में था एक लकड़ी के बक्से में हारमोनियम! खुशी से उछल पड़ी कुषा… अब तो मैडम उसे एनुअल फंक्शन में ज़रूर भाग लेने देंगी…। रात भर कुषा ने सपने में खुद को स्कूल के प्रोग्राम में हारमोनिया बजाते हुए देखा। सुबह एक नये उल्लास और आत्मविश्वास के साथ स्कूल चल दी। प्रैक्टिस पीरियड के लगते ही वह दौडक़र म्युजिक मैडम के पास पहुँची…।

‘मैडम! पापा ने मुझे हारमोनियम ला दिया है। अब मुझे भी ग्रुप में शामिल कर लीजिए…।’

‘क्या? पापा ने ला दिया!’

 ‘यस मैडम!’ कुषा ने फख्र से कहा…।

‘अरे, नीता जी! देखो तो इसे, मैंने इसे ऐसे ही कह दिया और यह तो सचमुच खरीदवा ली…’ दोनों मैडम हँस पड़ीं। पै्रक्टिस करते ग्रुप के बच्चों में से कुछ मुस्कुरा रहे थे और कुछ कुषा के लिए बुरा महसूस कर रहे थे…।

और कुषा…!