यह कैसा भूमि कानून!

देश में जनसंख्या के बढऩे से जो कभी एक परिवार था, वह दो तीन पीढिय़ों के बाद कई परिवारों में बंट गया है। इसके फलस्वरूप गांवों में जमीन के भी कई भाग हो गये हैं। इससे खेती करने में कठिनाई आयी है और आगे चलकर भूमि के टुकड़े टुकड़े होने से उपज भी प्रभावित होगी। इस प्रभाव को बहुत पहले किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह ने इसे जाना समझा और सोचा था।

मैदानी हिस्सों में भी यह समस्या विकराल नहीं हुई है, आने वाले समय में यह समस्या और बढ़ेगी। तब गांव में हर परिवार खेती पर आश्रित नहीं रह पायेगा। इस पर नीति निर्माताओं को ठोस दिशा निर्देश तय करने होंगे, ताकि उन पर सही अमल हो सके। विकसित देशों ने इस समस्या के हल में एक निश्चित प्रतिशत को ही खेती करने का काम सौंपा है। जबकि हमारे यहां रोजगार के ऐसे साधन नहीं जुटे हैं, जिनके हिसाब से खेती करने के लिए जनसंख्या का निश्चित अनुपात हो। और बाकी अन्य धंधों से जीवन यापन कर सकें। यही समस्या है जो आये दिन किसानों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर रही है।

यह समस्या पूरे भारत की है। किसान आत्मनिर्भर नहीं हो पा रहे हैं, जिन संसाधनों की खेती करने में जरूरत पड़ती है, उसी को जुटाते हुए अच्छी उपज की आस लिए कजऱ् पर कर्ज लेता है, यह सोचकर कि फसल अच्छी होगी तो कजऱ् निपटा देगा, लेकिन मौसम की मार या अन्य कारणों से उपज इतनी नहीं हो पाती जो बैंकों का कजऱ् चुका सके। साथ ही बाजार किसान के हाथ में नहीं होता, बिचौलिए ही अपनी जेबें भरते रहते हैं। किसान को उसका समर्थन मूल्य तक नहीं मिल पाता। यह परेशानी पूरे देश के किसानों की है। दूसरी तरफ पर्वतीय किसान भूमि के टुकड़ों टुकड़ों में बंटने से कोई आय नहीं ले पा रहा है। एक जगह पर समुचित भूमि के अभाव में पैदावार नहीं हो पा रही है।

तराई के क्षेत्रों को छोड़ कर, क्योंकि उन स्थानों पर खेत इतने तेजी से नहीं विभाजित हुए हैं, जितनी तेजी से पहाड़ी क्षेत्रों मे हुए हैं। कुछ उद्यानों को छोड़ कर जैसे चंबा मसूरी का फ्रूट बेल्ट लोगों को बाद में आबंटित हुआ था, इसी तर्ज पर और फल पट्टियां हैं जो एक ही किसान के पास होने से उसकी आजीविका का साधन है। लेकिन उनकी देख रेख भी सही नहीं है।

इसी संदर्भ में पिछले महीने उत्तराखंड में एक नया भूमि कानून पास हुआ है जो वहां के भूमि प्रयोग को प्रभावित करेगा। इस कानून के तहत उत्तर प्रदेश जंमीदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 में बदलाव किया गया है। इस बदलाव से उत्तराखंड का किसान अपने को सुरक्षित नहीं महसूस कर रहा है। उसका कारण है कि उद्योगों के लिए या किसी प्रोजेक्ट के लिए उसकी जमीन का अधिग्रहण औने पौने दामों में हो सकता है।

इस कानून के अंर्तगत धारा143 जो कृषि भूमि को गैर कृषि के लिए अधिकृत की जा सकती है। इस धारा में ‘क’ को सम्मिलित किया गया है। इस संशोधन से कृषकों पर यह प्रभाव पड़ेगा कि जिस खेत का इस्तेमाल वे खेती के लिए कर रहें थे, उसको अन्य कार्यों के लिए अधिकृत किया जा सकता है। यानि उपज देने वाली जमीन अन्य उद्योग धंधों को खोलने के लिए इस्ेतमाल की जा सकती है।

इसी तरह धारा 154 पहले साढ़े बारह एकड़ से अधिक भूमि को प्रदेश में खरीदने से रोकता है, अब इसमें संशोधन करके उप धारा-2 जोडऩे से पर्वतीय क्षेत्र में भूमि की खरीद के लिए कोई सीमा नहीं होगी। यानी किसान अपने खेतों से उद्योगों के नाम पर बेदखल हो सकता है।

उत्तराखंड जब बना था, तब बाहरी लोगों द्वारा भूमि खरीदने की आशंका को देखते हुए सरकार ने ही 2002 में हिमाचल के भूमि कानून के अनुसार अध्यादेश पेश किया था। बाद में तिवारी सरकार ने बहुगुणा समिति का गठन किया था। इस कमेटी ने तत्कालीन अध्यादेश में सम्मिलित प्रावधानों की समीक्षा कर, उसमें जुड़े कठोर नियमों को सरल कर दिया था। इसके कारण उत्तराखंड के शहरी क्षेत्रों में बेरोकटोक भूमि व्यापार का धंधा चल निकला। इसके बावजूद तिवारी सरकार ने एक व्यवस्था कर दी थी, इसके अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में जो व्यक्ति मूल अधिनियम धारा 129 के तहत जमीन का खातेदार न हो, वह बिना अनुमति के 500 वर्गमीटर से अधिक जमीन नहीं खरीद सकता है। खंडूरी सरकार के आने पर सीमा घटा कर 250 वर्गमीटर तय की गयी। यानी उत्तराखंड के ग्रामीण क्ष्ेात्रों में बाहरी व्यक्तियों को सिर्फ 250 वर्गमीटर से अधिक भूमि खरीदने की अनुमति नहीं थी। अब नयें संशोधनों के बाद बाहरी व्यक्ति के लिए भूमि खरीदने के लिए कोई रुकावट नहीें है। यानी पहाड़ में कम जोत वाला व्यक्ति आर्थिक दबाव में आनन फानन में भूमिहीन हो सकता है। इसकी प्रबल संभावनाएं हैं। 250 वर्ग मीटर से अधिक की खरीद न करने के आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती भी दी गयी थी, न्यायालय ने आदेश को नहीं माना था। फिर मामला उच्चतम न्यायालय के पास पहुंचा था। सुप्रीम कोर्ट ने 250 वर्ग मीटर तक की भूमि सीमा को सही माना था। न्यायालय के इसी आदेश के खिलाफ विधानसभा में भूमि की सीमा खरीदने की लगाम हटा भी गयी है। अब भूमि की खरीदफरोक्त में कोई सीमा न होने से गरीब किसान मजबूरन भू माफियाओं के चंगुल में फंस सकता है।

उत्तराखंड के निवासियों से बातचीत के बाद ऐसा आभास हो रहा है कि लोग इस कानून से खुश नहीं है। या तो पूरे देश में भूमि व्यवस्था का समान कानून हो तो तब माना जा सकता है, लेकिन हर प्रांत में ऐसा नहीं है। हिमाचल में हो चाहे कश्मीर में या किसी अन्य पहाड़ी या मैदानी प्रांत में देश में एक ही तरह का कानून होना चाहिए। यह काम इस कानून के आने से पहले भी चोरी छिपे होता आ रहा है। स्थानीय किसान या उत्तराखंड के निवासी को पार्टनर बना कर कई प्रोजक्ट उत्तराखंड में चल रहे हैं।

हिमाचल प्रदेश अलग राज्य बनने के बाद वहां हिमाचल प्रदेश टेनेंसी एंड लैंड रिफार्म एक्ट की धारा-118 लागू की गयी जो अनियमित भूमि खरीद को रोकती है।

उत्तराखंड को बने हुए 18 वर्ष बीत चुके, इसके बावजूद इसके विकास के लिए अंधेरे में सरकारे लाठियां भांज रही हैं। न किसी स्वच्छ समाज के विकास का रास्ता निकला और न ही प्रदेश की भूमि के उपयोग पर स्थानीय लोगों के लिए कुछ किया गया। इस कारण पर्वतीय प्रदेश उत्तराखंड विकास की उस तस्वीर को पेश नहीं कर पाया, जिसकी यहां के लोगों की जरूरत है।

कल तक जो खेत अन्न उपजाते थे, वे जंगल बनते जा रहे हैं, काम करने वाला अपनी आजीविका की तलाश में गांव छोड़ कर शहरों की धूल चाट रहा है। मानते हैं विकास में माइग्रेशन की भी भूमिका होती है। लेकिन यह माइग्रेशन आने वाले समय में पहाड़ो को खाली कर सकता है और कर ही रहा है। विभिन्न दलों सरकारें की आ जा रही हैं, पर वे विकास के ऐसे ढ़ांचे को खड़ा नहीं कर पाए, जिसकी जरूरत है।

पलायन से आदमियों से पहाड़ खाली हो रहे हैं, जो अभी पहाड़ों में रुके हैं वे जंगली जानवरों की आबादी में इजाफे से परेशान  हैं जो खेतों को नुकसान पहुंचाने के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं। इन में जंगली सुअरों की आबादी खुलेआम दिन में गांवों की गलियों में मंडराती दिख जाती है। ये रही सही खेती को रौंद कर चले जाते हैं। खेतों को खेाद कर चले जाते हैं। ऐसे ही बंदरों के आतंक ने फसलों का नुकसान कर दिया है। इनके भी उपाय नहीं हो पा रहे हैं। इन्हीं मुद्दों को देखते हुए पहाड़ों के खेतों की चकबंदी की बहुत जरूरत है। यदि एक परिवार को खेत एक जगह पर मिल जाएं तो वे उन खेतों में पैदा होने वाली फसलों की सुरक्षा करने में सक्षम हो सकते हैं। उन्हें मीलों दूर एक खेत की रखवाली के लिए नहीं जाना पड़ेगा। अभी होता यह है कि जो परिवार गांव में रह रहा है और खेती कर रहा है, उसे अपने एक दूसरे खेत में जाने में ही पूरा दिन खोना पड़ता है, वह अच्छी तरह से खेतों में पैदा होने वाली फसल की देखभाल आसानी से नहीं कर पाता।

एक और उपाय है पहाड़ों को हराभरा रखने का, इस पर भी गंभीरता से विचार कर लागू करने की जरूरत है। सिंचाई पूरे पर्वतीय प्रदेश में सुलभ करने की जरूरत है। जब इजरायल अपनी बंजर भूमि को हराभरा कर सकता है, तब हम क्यों नहीं कर सकते। पहाड़ी दरियाओं, प्राकृतिक स्रोतों और झरनों से पानी लगातार बहता जाता है, उसका उपयोग हम नहीं कर पा रहे हैं।

एक और हरित क्रांति की देश को ज़रूरत है, यह सिर्फ पहाड़ का मुद्दा नहीं है। खेती की सिंचाई के लिए नई नई तकनीक की ज़रूरत है। देश के खाद्यानों के सुरक्षित भंडारण के लिए ज़रूरी है कि कृषि को प्राथमिकता दी जाए। किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए गंभीर उपायों की ज़रूरत है। और कृषि भूमि पर कोई उद्योग खड़ा न किया जाए, ताकि कृषि की उपज प्रभावित न हो।