मौत के मुँह से निकलकर अँधकार में करियर

रूस हमले के बाद यूक्रेन में फँसे हज़ारों भारतीय छात्र-छात्राओं की ऑपरेशन गंगा से सकुशल घर वापसी परिजनों के लिए वरदान जैसी है। बमबारी और गोलीबारी के बीच जिन हालातों में इन छात्र-छात्राओं ने यूक्रेन की सीमा पार कर रोमानिया, पौलेंड और स्लोवाकिया की सीमा में प्रवेश कर ही राहत की साँस ली। भारत सरकार ने देर-सबेर अभियान को सफलता से अंजाम तो दे दिया; लेकिन यह सब 26 फरवरी के पहले हमले से पहले भी चलाया जा सकता था। ऐसा करने पर उन हज़ारों युवाओं को भयावह मंज़र से नहीं गज़रना पड़ता और न ही उनके परिजनों की साँसें अटकी रहतीं।

सफल अभियान से देश की अस्मिता बढ़ी वहीं प्रभावितों को जैसे नयी ज़िन्दगी मिली पर अब कई अनुपूरक सवाल भी पैदा हो गये हैं, जिनके जवाब तलाशे जाने की ज़रूरत है। भविष्य में ऐसा न हो, इसके लिए भारत सरकार को गम्भीरता से विचार करने की ज़रूरत है। सवाल यह कि सुदूर यूक्रेन, रूस या आसपास के अन्य देशों में एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए हर वर्ष हज़ारों की संख्या में भारतीय क्यों जाते हैं? इनमें बड़ी संख्या उत्तर भारत के हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़ और राजस्थान के युवाओं की भी है। यूक्रेन पर रूस के हमले से पहले घर पहुँचे एक युवा ने बताया, उसकी तो यहाँ निजी मेडिकल कॉलेज में सीट थी; लेकिन विदेश में पढ़ाई करने की इच्छा उन्हें वहाँ ले गयी। अब न वहाँ के रहे, न यहाँ के। भविष्य में क्या होगा? इसे लेकर चिन्ता होने लगी है।

विदेश से एमबीबीएस की डिग्री हासिल करने की बड़ी वजह वहाँ आसानी से प्रवेश और देश के मुक़ाबले कम ख़र्च में डिग्री हासिल करना है। भारत में नेशनल एलिजीबिलेटी कम एंट्रस टेस्ट (एनईईटी-नीट) के माध्यम से एमबीबीएस में प्रवेश पाया जा सकता है। मैरिट में आने वाले देश के सरकारी या निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लेते हैं, जबकि डॉक्टर बनने की इच्छा रखने वाले काफ़ी विदेशों का रूख़ करते हैं। वहाँ प्रवेश के लिए केवल नीट परीक्षा को पास करना ही काफ़ी है।

हज़ारों की संख्या में ऐसे प्रतिभागी होते हैं, जिनकी इच्छा इस डिग्री को पाने की होती है। जब यहाँ प्रवेश नहीं मिल पाता, तो परिवार की आर्थिक स्थिति के अनुसार बाहर का रूख़ करते हैं। भारतीय विदेश मंत्रालय के वर्ष 2021 के आँकड़ों के अनुसार, यूक्रेन में पढऩे वाले छात्र-छात्राओं की संख्या 18,000 के आसपास थी। यूक्रेन की मिनिस्ट्री ऑफ एजुकेशन एंड साइस के अनुसार, यह संख्या 18,095 थी। इस घटना के बाद इस संख्या में कुछ कमी आ सकती है; लेकिन हालात में सुधार के बाद सिलसिला पहले जैसा ही हो जाएगा। इस सिलसिले को रोका जा सकता है। भारत सरकार को इस दिशा में गम्भीरता से प्रयास करने की ज़रूरत है, ताकि भविष्य में मौत के मुँह से बचाने के लिए ऑपरेशन गंगा जैसा अभियान चलाने की ज़रूरत न पड़े। देश में सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों की संख्या और बढ़ाने की ज़रूरत है, ताकि युवा यहीं रहकर डिग्री हासिल कर सके। देश में डॉक्टरों की माँग बढ़ रही है। सरकारें अपने तौर पर मेडिकल कॉलेजों को खोलती भी है; लेकिन यह संख्या अभी पर्याप्त नहीं है।

यूक्रेन से मौत के मुँह से बचकर आये एक छात्र के मुताबिक, भारत सरकार को हमें निकालने की कार्रवाई युद्ध से पहले करनी चाहिए थी। फरवरी के शुरू से ही सीमा पर तनाव और रूस की कार्रवाई की बातें सुनने को मिल रही थी। उसी दौरान हमें वहाँ से निकालने का कोई अभियान चलाया जाना चाहिए था। बंकरों में भूखे प्यासे आख़िर कितना समय गुज़ारा जा सकता है। ख़तरे में साये में रहना मौत जैसा ही है। कब, कहाँ कोई मिसाइल या बम का धमाका हो जाए, कुछ पता नहीं था। एडवाइजरी जारी होने के बाद हम लोग वहाँ दूतावास के सम्पर्क में रहे; लेकिन सतर्कता बरतने के अलावा हमें वहाँ से निकलने आदि के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गयी।

तीन दिन तो हम सभी ने जैसे मौत के साये में गुज़ारे। यूक्रेन की पुलिस और सेना का कोई सहयोग नहीं मिला। हमारे कुछ साथियों की पिटाई भी हुई। गनीमत यह रही कि जान बची रही। यूक्रेन की सीमा से बाहर निकलने पर ही लगा जैसे हम जिन्दा बच गये, वरना रास्ते में गोलाबारी के बीच बचने की उम्मीद ही खो चुके थे। सकुशल वापसी के बाद अब हमारे करियर का क्या होगा? यूक्रेन के हालात तो बद-से-बदतर हो गये हैं। वहाँ क्या होगा? हमारे जैसे हज़ारों युवाओं का क्या होगा? किसी को कुछ भी पता नहीं है।

भारत सरकार पाँच वर्ष का कोर्स पूरा करने के बाद इंटर्नशिप के लिए तो काम कर रही है; लेकिन पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे वर्ष वालों के भविष्य का क्या होगा? सूमी से 600 से ज़्यादा छात्र-छात्राओं की वापसी के बाद कहा जा सकता है कि अभियान कमोबेश सफल रहा। अगर 26 फरवरी के हमले से पहले भारत सरकार यह अभियान शरू कर देती, तो कर्नाटक के नवीन की मौत नहीं होती। बंकर से बाहर किसी काम के लिए बाहर गये नवीन की गोलियाँ लगने से मौत हो गयी। मौत से पहले उसने परिजनों से बात की थी; लेकिन उसके बाद विदेश मंत्रालय की ओर से मौत की सूचना ही मिली।

छतरपुर के हरजोत सिंह को तीन गोलियाँ लगीं, उन्हें वहाँ अस्पताल में ही होश आया। रोज़ दो बार घर फोन करने वाले हरजोत के दो दिन तक फोन न आने से परिजनों को अनहोनी की आशंका हो चली थी। सूचना मिलने के बाद वही साबित हुआ। परिजनों को सन्तोष है कि आख़िर हरजोत सलामत है। हर देश की सरकार का अपने नागरिकों को बचाने का दायित्व होता है। युद्ध या अन्य किसी प्राकृतिक आपदा में सरकारें ऐसा करती रही हैं; लेकिन यूक्रेन में फँसे छात्र-छात्राओं को भारत सरकार ने जिस सूझ-बूझ से युद्ध के बीच में निकाला, उसकी प्रशंसा पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी हुई है। भारतीय तिरंगे की शान विश्व के लोगों ने देखी। जिस तरह से बसों के आगे लगे तिरंगा ध्वज जैसे सुरक्षा की पूरी गारंटी है। ऐसा हुआ भी, पाकिस्तान और बांग्लादेश के युवा भी इसी तिरंगे से अपने घरों को सुरक्षित पहुँच सके।

 

साहिल और सुंडू की दास्ताँ

हरियाणा और पंजाब के दो हज़ार से ज़्यादा युवा यूक्रेन में मेडिकल शिक्षा हासिल कर रहे थे। इनमें से ज़्यादातर घर पहुँच चुके हैं। इनमें रोहतक (हरियाणा) के एक युवा साहिल भी हैं, जिन्होंने न केवल राज्य का, बल्कि देश का नाम ऊँचा किया। साहिल यूक्रेन में किसी की मदद के लिए रुक गया, जबकि उसने अपने कुत्ते (सुंडू) को अपने दोस्त के साथ भारत भिजवा दिया। परिजन चाहते थे कि साहिल भी अन्य छात्र-छात्राओं के दल के साथ ही घर आ जाए; लेकिन जब उसने रुकने का उद्देश्य बताया, तो उन्होंने भी सहमति दे दी। सुंडू अब साहिल के रोहतक स्थित आवास पर है। उसका पूरा ध्यान रखा जा रहा है। सुंडू अब तक तीन-चार देशों की यात्रा कर चुका है। यह उनके परिवार का सदस्य जैसा बन गया है। उनके पिता ने बताया बेटे से बात हो चुकी है, वह बिल्कुल ठीक है और जल्द ही घर आ जाएगा। साहिल की पढ़ाई लगभग पूरी हो चुकी है। कुछ समय बाद उसकी इंटर्नशिप शुरू होने वाली थी; लेकिन युद्ध ने उस जैसे हज़ारों युवाओं के भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिया है। अब आगे इंटर्नशिप का क्या होगा? इसे लेकर परिजन चिन्ता में हैं। भारत सरकार ने इसके लिए योजना तैयार की है। जिनकी पढ़ाई अभी अधूरी है, उनके बारे में भी कुछ करने की ज़रूरत है। इस दिशा में भी कुछ सोचने की ज़रूरत है, क्योंकि यह संख्या भी हज़ारों में है।