मृणाल सेन की हथेलियों पर था कोलकाता

मृणाल दा की आंखों में बसा था कलकत्ता। वे हथेली की रेखाओं की तरह कोलकाता में बसे मानुस को जानते थे। उन्हें पता था कि ट्राम में बस में और मेट्रो रेल में क्या अंतर है। उन्हें जानकारी थी कि कोलकाता में पूरे देश से आया हिंदुस्तानी सिर्फ कालीमाता के मंदिर में अंदर माथा टेकने नहीं आया है ं उसके मन है कहीं कोई चाकरी मिल जाए।

वे अपने जीवन के बालकाल से ही बंगाल में बाढ़, सूखा, आज़ादी के बाद की राजनीति, वाममोर्चा सरकार के लंबे दौर में बढ़ते अंतर्विरोध  और तृणमूल कांग्रेस के जरिए केसरिया की राज्य में होती मजबूती को अपने पाइप के धुंए में बड़ी बेचैनी से देखा करते। उनका निधन उम्र के 95 वें साल में हुआ। उन्होंने कोलकाता के उच्च कुलीन परिवारों को मझोले परिवारों में सिमटते और अहंकार को निचले दर्जे के लोगों के सामने रिरियाते देखा था।

कोलकाता  के मझोले दर्जे के मानुस की पेचीदगियां वे जानते समझते थे। तीन भाग में आई उनकी फिल्म ‘पदातिक’ इस लिहाज से बेजोड़ थी उन्हें पता था कि मझोले दर्जे के परिवारो ंके घरों के बंद दरवाजों और खिड़कियों का मतलब क्या है: बेरोजग़ारी, बाज़ार और बर्बादी के अंतर्संबंधों को वे जानते-समझते थे। उनकी पहली फिल्म थी ‘नील अच्छर नीचे’  उनकी यह फिल्म 1959 की थी। जिसमें चीनी विक्रेता कोलकाता की गलियों में सिल्क बेचते दिखते हैं । कोलकाता में जनता का निचला दर्जा, मझोला दर्जा बड़े ही जातिवादी तरीके से उन्हें देखता और हंसता। लेकिन एक घरेलू बांग्ला युवती ऐसी भी दिखती थी  जो सिल्क बेचने वाले चीनी विक्रेता के साथ भी हो जाती है। उसकी बौद्धिक सांस्कृतिक समझ को विकसित करती है।

उनकी बाद की मशहूर फिल्मों में आई ‘आकाश कुसुम’(1965) । इसमें भी  भीड़ भरे शहर कोलकाता को  हावड़ा के ऐतिहासिक पुल से घरों की छतों के भीतर जानने-समझने की कोशिश  शहर के अपने फिल्म निर्देशक मृणाल सेन ने की है। प्रेम कहानी के जरिए उन्होंने वर्ग संघर्ष को फिल्म में उकेरा। उत्तरी कोलकाता का निचले दर्जे का कम आमदनी का नौजवान दक्षिण कोलकाता की हरियाली भरी कालोनियों में किसी घर की किशोरी को अपने मन मे बसा कर मन में कल्पनाएं करता है। यह मृणाल सेन के फिल्म निर्देशन की खूबी है।

उनकी खासी चर्चित फिल्म ‘कोलकाता 71’ 1972 में आई। इसमे कोलकाता में फुटपाथ पर बसे शरणार्थियों और बड़े-बड़े भवनों को दिखाया गया हैं। इज्जत और दरिद्रय बड़ी ही बारीकी से दर्शकों पर असर डालती है। 70 और 80 के दशक में राजनीतिक रैलियों और वामपंथी हुजूम मृणाल सेन की फिल्मों में एक प्रसिद्ध विकल्प के तौर पर उभरता है। जो भारत जैसे विशाल देश में हमेशा एक ज़रूरत बनी रहेगी।