मूर्ख कौन?

चुनाव आ गए और अचानक हमारी मांग बढऩे लगी। राजनैतिक दलों को न केवल हमारे जैसे मतदाता चाहिए बल्कि वे अपने प्रत्याशी भी हमारे जैसे ही चाहते हैं। इसका सीधा सा कारण है हम कभी सवाल नहीं उठाते। वैसे भी सवाल उठा कर हमें अपनी जान आफत में थोड़ा डालनी है। पता नहीं हमें ‘द्रोही’ मान लिया जाए। अंग्रेजों ने पहली अप्रैल का दिन हम लोगों के लिए रखा है। जब उन्होंने इस दिन की इज़ाद की होगी उन दिनों शायद वहां लोकतंत्र नहीं होगा। यदि होता तो वहां राजनैतिक दल होते और राजनीति तो बिना दूसरे को उल्लू बनाए चलती ही नहीं। अर्थ यह कि लोग रोज़ मूर्ख बनते तो फिर उन्हें मूर्ख दिवस अलग से निश्चित करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। हमारी बिरादरी में भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो इस बात से खफ़ा हैं कि हम अंग्रेजों की बात क्यों मानते हैं और साल में केवल एक ही दिन क्यों मूर्ख बनते और बनाते है,जबकि हमारी संस्कृति में तो अब रोज़ लोगों को मूर्ख बनाने की होड़ चल रही है। जो जितना मूर्ख बना दे वह उतना बड़ा नेता। फिर जनता इस बात की तारीफ भी करती है, कि फलां नेता ने कितनी कामयाबी के साथ हमारा मूर्ख बना कर वोट हासिल कर लिए। आज देश में चोरी की निंदा नहीं तारीफ होती है कि चोर ने कितनी सफाई से हाथ साफ किया। किसी को कानों-कान खबर ही नहीं होने दी। फिर चाहे वह चोरों के विदेश भाग जाने का मामला हो या फिर ट्रेक्टर के साथ पूरा एटीएम उखाड़ ले जाने की बात।

हमारी गर्दभ बिरादरी खंूटे से बंधी नेताओं को खूंटे उखाड़ते देखती है। नेता आज एक दल में तो कल दूसरे के पाले में। इतनी लंबी छलांगे लगाते हैं कि मेंढक भी हैरान रह जाए। जिसे कल तक चिल्ला-चिल्ला का कोस रहे थे आज उसी की गोद में बैठ कर उस का स्तुति गान कर रहे हैं पर जनता सवाल नहीं पूछती। नेता बड़ी सफाई से पूंजीपतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लगभग पौने दो लाख करोड़ के लाभ दे देता है तो किसी ओर कोई हलचल नहीं होती, पर जब किसान के 60 हज़ार करोड़ के कजऱ् माफी की बात आती है तो वही नेता और मीडिया ऐसे चीत्कार मचाता है जैसे देश की पूरी अर्थव्यवस्था इन किसानों ने ही ध्वस्त की हो। तब सोशल मीडिया पर वह करदाता भी अपने पैसे का हवाला दे देता है जिसने टैक्स बचाने के लिए सारे ग़ैर कानूनी हथकंडे अपनाए हों। पर आम जनता तो खामोश रहती है। उसे क्या लेना देना। इस तरह हम तो रोज़ मूर्ख बनते हैं। खासतौर पर उन दिनों जब चुनावी मौसम हो। चुनाव के दिनों में कुछ खास घटनाएं होती हैं। उन्हें मीडिया पर उछाला जाता है । हर आदमी जानता है कि यह घटना चुनाव की वजह से घटी है पर सवाल नहीं उठाया जाता। इससे बड़ी मूर्खता और क्या होगी कि लोग नेताओं और राजनैतिक दलों के नारों पर विश्वास करते हैं, उनके कामों की समीक्षा नहीं करते। फिर चाहे वह 15 लाख आने का मामला हो या दो करोड़ नौकरियों का। चाहे वह ‘गऱीबी हटाओ’ का नारा हो या बात काले धन की वापसी की। कोई सवाल नहीं।

यह सब तो उस मानव की बात है जिसके पास बुद्धि होने का प्रमाण-पत्र है। कुछ के पास जाली प्रमाणपत्र भी हो सकते हैं, कुछ प्रमाणपत्र रविवार को जारी किए भी हो सकते है। पर हमें क्या? तो पर उनकी बाद में। हमारी बिरादरी तो वैसे भी मूर्ख ही समझी जाती है। किसी को मूर्ख कहना हो तो उसे ‘गधा’ कह दिया। हमारी पीठ पर बिठा दिया। पर हम सभी इसी बात पर हंसते हैं। सोचते हैं कि जो इंसान, इंसान को इंसान न समझ कर हिंदू-मुसलमान, सिख, इसाई समझता है वह हमें मूर्ख कहता है। इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है। वैसे भी मूर्ख की सबसे बड़ी पहचान होती है कि वह खुद को सबसे ज़्यादा समझदार समझता है। अपने दिमाग के दरवाज़े बंद रखता है। उसे लगता है कि जितना ज्ञान उसके पास है उतना किसी और का नहीं।

देश में जब लोग धर्म और जाति के नाम पर खून बहाते हैं तो उससे बड़ी मूर्खता क्या होगी? यह बात हर रोज़ 300 करोड़ से ज़्यादा का मुनाफा कमाने बवालों को तो मुफीद होगी पर आम जनता के हक में नहीं। यह बात हम और हमारी गर्दभ बिरादरी समझती है तो पहली अप्रैल को दूसरों को मूर्ख बनाने वाले क्यों नहीं? ‘मूर्ख’ होते हुए भी हम अपना वोट मानवहित को ध्यान में रखकर डालते हैं, किसी धर्म, जाति, भाषा के आधार पर नहीं और न ही राष्ट्रवाद जैसे नारों को जहन में रखते हुए। ज़रा ध्यान से सोचो कि आखिर मूर्ख कौन है?