मूर्खता की पहचान है अभद्रता

सन्तों की खासियत होती है कि वे बुरे इंसान से भी भेदभाव या नफरत नहीं करते। लेकिन जब सन्तों की छवि के बारे में लोग सोचते हैं, तो उनके मन-मस्तिष्क में सन्तों की एक अलग रूप उभरता है। खासकर वेशभूषा को लेकर लोगों में सन्तों की एक खास छवि होती है। लेकिन समाज में रहने वाले सादामिज़ाज सन्तों को लोग जल्दी नहीं पहचानते। और अगर पहचान भी लेते हैं, तो कई बार उनके अच्छे कार्यों का विरोध भी होता है। सन्त कबीर इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। सन्त कबीर एक ऐसे समाज-सुधारक सन्त थे, जिनका हिन्दू और मुस्लिम, दोनों मज़हबों के दिकयानूसी और आडम्बरों से घिरे लोगों ने जमकर विरोध किया; उन पर हमले किये। इसी तरह और भी कई ऐसे सन्त हुए हैं, जो गृहस्थ जीवन में रहकर भी समाज को ज्ञान और सत्य का मार्ग दिखलाते रहे हैं। दिल्ली में रहने वाले उस्ताद शायर मुहतरम खुमार देहल्वी साहब भी ऐसे ही सन्त-मिज़ाज के इंसान हैं। वह कभी किसी भी मज़हब का अनादर नहीं करते। उनका कहना है कि वह बाकी लोगों की तरह सनातन या दूसरे धर्मों यानी मज़हबों में अवतरित महापुरुषों (अवतारों) की अवहेलना अथवा निन्दा नहीं कर सकते। क्योंकि ऐसी अभद्रता मूर्खता की पहचान होती है। वह कहते हैं कि इसके पीछे तीन बड़े कारण हैं। पहला यह कि कोई भी मज़हब दूसरे मज़हब से या दूसरे मज़हब के लोगों से बैर करना नहीं सिखाता और किसी भी मज़हब में ङ्क्षहसा, अभद्रता, घृणा तथा दूसरे मज़हब या दूसरे मज़हब को मानने वालों की बुराई करना नहीं सिखाया गया है। दूसरा कारण यह है कि सभी इंसान हैं और सबका एक ही मालिक है। चाहे उसे ईश्वर कह लो, चाहे अल्लाह कह लो और चाहे किसी और नाम से पुकार लो। तीसरा कारण यह है कि हर मज़हब में अवतारी शक्तियों का ज़िक्र है और लगभग सभी मज़हबों के अवतारों के गुण मिलते-जुलते हैं। यही नहीं कहीं-कहीं तो संख्या भी लगभग बराबर है। जैसे- वेदों में जितने अवतारों का ज़िक्र है, लगभग उतने ही नबियों (अवतारों) का ज़िक्र पवित्र कुरआन में भी है। इसलिए हम यह मानते हैं कि हो सकता है कि भाषाओं और संस्कृतियों के अलग-अलग होने से सभी लोगों ने इन अवतारों को अपने हिसाब से अपनी भाषा में नाम दिया हो और हो सकता है कि ये वही अवतार हों, जो हमारे इस्लाम में नबी हैं।

खुमार साहब कहते हैं कि अगर मान भी लें कि हिन्दू धर्म, जो वास्तव में सनातन धर्म है; उसमें वॢणत अवतारी शक्तियाँ अलग हैं, तो भी वे सब हैं तो परम् शक्तियाँ ही। ऐसे में हम इंसानों को उनका अपमान करने का कोई हक नहीं है, क्योंकि इंसान को किसी भी हाल में ईश्वर या ईश्वरीय शक्तियों का अनादर या अपमान करना नहीं चाहिए और जो इंसान ऐसा करता है, वह जहन्नुम (नर्क) का भागीदार होता है। चाहे वह दूसरे मज़हब के अवतारों को यह सोचकर ही बुरा-भला कहे कि वह अपने मज़हब की अवतारी शक्तियों की उपासना या इबादत करता है। वह कहते हैं कि ऐसे लोगों की अपने मज़हब में बतायी विधियों द्वारा की गयी इबादत या पूजा भी व्यर्थ ही जाती है; क्योंकि इस बात की इजाज़त तो उस व्यक्ति का मज़हब भी नहीं देता। वह सभी मज़हबों के लोगों को आपसी भाईचारे और प्यार से रहने की सलाह देते हैं।

मज़हबी एकता पर उनकी एक गज़ल देखें :-

      जलाया जाए दीये से दीया मुहब्बत का।

      यही है  फर्ज़  मेरे भाई  आदमीयत का।।

      तमाम धर्म  तो  देते हैं  प्यार की शिक्षा,

      तो फिर ये पाठ पढ़ाता है कौन नफरत का।

      मिटानी होंगी  दिलों की ये दूरियाँ पहले,

      मज़ा तब आयेगा पूजा का और इबादत का।

      वही है रास्ता अच्छा कि जो रहा था कभी,

      विवेकानंद का, अशफाक और शौकत का।

      हमारा काम मुहब्बत को आम करना है,

      करे वो काम सियासत, जो है सियासत का।

वह कहते हैं कि दूसरे मज़हबों से भी मोहब्बत करनी चाहिए। उनका सम्मान करना चाहिए और हो सके तो सभी का भला करना चाहिए। क्योंकि कोई भी मज़हब किसी भी तरह से गलत शिक्षा नहीं देता।

इसका एक बड़ा उदाहरण यह है कि जनाबे खुमार देहल्वी के घर के सामने एमसीडी का पार्क है। उस पार्क में तकरीबन चार-पाँच साल से हर मंगलवार को लाउडस्पीकर लगाकर हनुमान जी की पूजा और आरती होती है। इस कार्य में खर्च होने वाली बिजली वह अपने घर से देते हैं। इस पूजा और आरती में किसी प्रकार का कोई विघ्न न पड़े, इसके लिए वह हर सम्भव प्रयास करते हैं। हालाँकि उन्हें इस नेक काम से न तो कोई लालच है और न डर।  और न ही वह इससे किसी फायदे की कामना करते हैं। हालाँकि बहुत-से लोगों को उनका यह नेक काम अच्छा भी नहीं लगता; पर वह कहते हैं कि मेरा मकसद सिर्फ अच्छाई करना है और मैं अच्छाई का काम किसी लालच या डर से नहीं करता। मेरे हाथ से अगर किसी का भला हो सकता है, तो यह मैं मेरे मज़हब का हुक्म मानकर करता हूँ, जिसमें कहा गया है कि सवाब (पुण्य) का काम हमेशा आगे बढक़र करना चाहिए।

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि सन्त और कैसे होते हैं? आिखर यह ही तो सन्तई है। सन्त वही तो है, जो दूसरों को पीड़ा न पहुँचाये। जहाँ तक हो सके हर किसी का भला करे और किसी की निन्दा न करे। मुझे याद है कि जब मैं पहली बार उनके घर गया था, तब उन्होंने जिस तरह मेरा सत्कार किया था, उससे मुझे यह लगा नहीं कि मैं उनसे पहली बार मिला हूँ। आज के नफरतों भरे माहौल में इसी भाईचारे और मोहब्बत की ज़रूरत है। आज जिस तरह हमारा देश मज़हबी और जातिवादी आग में जल रहा है, इस आग से सिर्फ और सिर्फ भाईचारे और मोहब्बत की पहल ही बचा सकती है। अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब हमारी पीढिय़ाँ इस आग में बुरी तरह जलती नज़र आएँगी। उस समय हम भले ही न हों, लेकिन हम अपनी ही पीढिय़ों में गुहनगार की तरह ज़रूर देखे जाएँगे।