मुद्दों के संकट से जूझता विपक्ष

भारतीय राजनीति और संसदीय प्रणाली का विश्लेषण करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कहा था- ‘यह देखकर अफ़सोस होता है कि समय बीतने के साथ संसदीय प्रणाली चलाने के लिए जो परिपक्वता आनी चाहिए, उसके बजाय संसदीय व्यवहार में निरंतर गिरावट आ रही है। आज राजनीति करने के दो ही उद्देश्य रह गये हैं- समाज में लोगों का समर्थन कैसे मिले? कुछ भी, कैसे भी करके; चाहे ग़लत करके, चाहे सही करके। दूसरा, पैसे कैसे मिलें?’ (रहबरी के सवाल, पेज-135 एवं 138 )।

यह भारतीय राजनीति का वह सत्य है, जिसे मुँह तो मोड़ा जा सकता है, किन्तु नकारा नहीं जा सकता। पक्ष-विपक्ष की कौन कहे, यहाँ कमोबेश सब एक जैसे ही हैं। लेकिन इस समय चर्चा का विषय विपक्ष है। एक सन्तुलित एवं जीवंत लोकतंत्र के लिए एक जागृत एवं सशक्त विपक्ष होना आवश्यक है। लेकिन भारतीय राजनीति का वर्तमान दौर ऐसा नहीं है। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में यह कालखण्ड संघर्ष-हीन विपक्ष के दौर के तौर पर गिना जाएगा, जहाँ चुनाव-दर-चुनाव हार के बाद आज विपक्ष हताश-निराश और भ्रमित हैं। उसमें सत्ता पक्ष के समक्ष खड़े होने का जज़्बा नहीं दिखता। विपक्ष मुद्दों की राजनीति के बजाय अनर्गल विरोध प्रसंगों में लिप्त हैं, जिससे जनता में उसके प्रति लगाव एवं समर्थन न्यून स्तर पर पहुँच चुका है।

ताज़ा विवाद नये संसद भवन में लगे अशोक स्तम्भ को लेकर शुरू है। विपक्ष का आरोप इतिहास से छेड़छाड़ तथा अशोक स्तम्भ के शेरों को ज़्यादा आक्रामक प्रदर्शित करने का है। कोई इसे सत्यमेव जयते से सिंहमेव जयते कह रहा है। किसी के अनुसार यह राष्ट्र विरोधी है। इस पर एआईएमआईएम प्रमुख ओवैसी का विरोध है कि अनावरण कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री की मौज़ूदगी संवैधानिक मानदण्डों का उल्लंघन है। कांग्रेस नाराज़ है कि कार्यक्रम में उसे न्योता क्यों नहीं दिया गया? तो सी.पी.एम. का विरोध प्रधानमंत्री द्वारा कार्यक्रम में पूजा-पाठ करने को लेकर है। इन आरोपों पर सत्ता पक्ष भी कहाँ ख़ामोश रहने वाला था, सो जवाब देने के लिए केंद्रीय मंत्रियों से लेकर प्रवक्ताओं का पूरा समूह टूट पड़ा।

प्रतीत होता है कि देश की राजनीति में मुद्दों का संकट है। वास्तव में यह संकट उस चेतना की अनुपस्थिति का है, जो लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों को अंगीकार कर सके। विपक्ष को इस बात की चिन्ता है कि राष्ट्रीय चिह्न के शेर ख़तरनाक दिख रहे हैं, जो शान्त थे। यह अजीब-सा हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण विवाद है। शेर कैसे दिख रहे हैं? देश की 135 करोड़ से ज़्यादा आबादी को इससे कहीं ज़्यादा रुचि अपनी रोज़ी-रोटी और सिर पर छत पाने, अपराध से मुक्ति, मानवीय गरिमा से परिपूर्ण जीवन जीने जैसे मूलभूत मसलों में है। वास्तव में विपक्ष को जिन मुद्दों को लेकर आक्रोशित होना चाहिए, वे उसकी प्राथमिकता सूची में हैं ही नहीं।

राष्ट्रीय स्तर पर बेरोज़गारी की दर 7.80 फ़ीसदी है। इस वर्ष यह दर 0.68 फ़ीसदी बढ़ी है। साथ ही कुल श्रमबल में काम करने वालों की संख्या घटकर 39 करोड़ रह गयी है। सरकार इस दिशा में क्या प्रयास कर रही है? कब तक स्थितियाँ बेहतर होने की उम्मीद है? निजीकरण के कारण घटती नौकरियों की भरपाई सरकार कैसे करेंगी? केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक लाखों की संख्या में विभिन्न विभागों में उपलब्ध रिक्तियाँ अब तक क्यों नहीं भरी गयीं? इन्हें कब तक भरा जाएगा? संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में क्षेत्रीय भाषाओं के विद्यार्थियों के चयन के अवसर सिमटते क्यों जा रहे हैं? इसके लिए दोषी कौन है? अग्निपथ योजना के विरोध में उतरे लोगों को आतंकवादी एवं देशद्रोही कहने वाले पार्टी नेताओं से जवाब कब लिया जाएगा? हज़ारों करोड़ों रुपये ख़र्च करने के बाद नमामि गंगे परियोजना कितनी सफल रही? प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में पौराणिक महत्त्व की गंगा नदी की इतनी बुरी हालत क्यों है? मेक इन इंडिया योजना (2014) ने इतने वर्षों में अर्थ-व्यवस्था को कितना लाभ पहुँचाया, और कितने रोज़गार सृजित किये? सरकार के अन्दर प्रशासनिक अधिकारियों की मनमानी और भ्रष्टाचार पर कब तक अंकुश लगेगा? उत्तर प्रदेश सरकार में लोक निर्माण विभाग, पशुपालन विभाग, स्वास्थ्य विभाग एवं जल शक्ति विभाग में तबादलों में हुई धाँधली एवं पशुपालन विभाग में होने वाले 50 करोड़ रुपये के घोटाले के लिए दोषी लोगों पर कठोर कार्रवाई कब तक होगी? उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा परीक्षाओं में की जा रही मनमानी पर रोक कब तक लगेगी?

आयोग में नियुक्तियों में हुई धाँधली पर इतने वर्षों से चल रही जाँच कहाँ तक पहुँची? जाँच कब तक पूरी होगी? अब तक कितने लोगों पर कार्रवाई हुई? निकट में हुई कई भर्तियों में जैसे उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग द्वारा विज्ञापन संख्या-50 के अंतर्गत विभिन्न विषय में सहायक प्रोफेसर पर हुई नियुक्ति पर भ्रष्टाचार के लग रहे आरोपों का संज्ञान कब तक लिया जाएगा?

ऐसे ही और भी कई मूलभूत मसले हैं, जिन पर विपक्ष को आन्दोलित होना चाहिए। लेकिन उसे न इनसे कोई मतलब है और न सार्थक राजनीति से कोई सरोकार है। ले-देकर उसके पास सिर्फ़ धार्मिक, असहिष्णुता और अघोषित आपातकाल के नारे हैं, जिन्हें वह बार-बार दोहराता रहता है। विपक्ष की राजनीति को देखकर लगता है कि वह इस भरोसे बैठा है कि सत्ता पक्ष और ग़लतियाँ करें, और नाराज़ जनता विकल्प के रूप में उसे चुन ले। लेकिन वह भूल रहा है कि वास्तव में देश के मतदाताओं के लिए विकल्पहीनता की स्थिति पैदा हो चुकी है। मध्य प्रदेश के निकाय चुनाव में आम आदमी पार्टी की सशक्त उपस्थिति मतदाताओं की इसी कुंठा का प्रतिफल है। हालाँकि आम आदमी पार्टी से उम्मीद पालना ठीक नहीं। क्योंकि दिल्ली में जो इनकी हालत है और पंजाब में हत्याओं और भ्रष्टाचार का जो सिलसिला शुरू हुआ है, उससे इनकी कार्यशैली के प्रति निराशा ही उपजती है। हालाँकि छवि तो किसी भी दल की साफ़-सुथरी नहीं है।

पर इस समय देश की जनता की मन:स्थिति यह है कि वह कई मसलों पर सत्ता पक्ष से निराश और क्रोधित होने के बावजूद भी विपक्ष को अपना विकल्प नहीं समझ रही; क्योंकि विपक्ष को जो परिपक्वता दिखानी चाहिए, वह नहीं दिखा पा रहा है। रही-सही कसर विपक्ष के वाग्वीर पूरी कर रहे हैं। दरअसल उन्हें लगता है कि बहुसंख्यक समाज के विरुद्ध अनर्गल बोलकर वे अल्पसंख्यक और कुछ विशेष वर्गों का पुरज़ोर समर्थन पा पाएँगे। लेकिन इसके विपरीत होता यह है कि अल्पसंख्यक वर्ग उन्हें समर्थन दे दे, तो बहुसंख्यक वर्ग पूरे दमख़म से उससे घृणा करना शुरू कर देता है।

दरअसल विपक्षी दलों के नेता अपने परिजनों की राजनीतिक वृत्ति (करियर) से परे कुछ देख ही नहीं पा रहे हैं। उनकी प्राथमिकता अपनी राजनीतिक विरासत को बचाकर अपने बेटे-बेटियों के लिए सुरक्षित रखने में है। साथ में ईडी और सीबीआई की जाँच से बचने का दबाव है ही। वास्तव में विपक्ष अकर्मण्य वंशवादियों की जमात बन चुका है। राजनीति में अभिजनवाद का रोग बड़ा पुराना है। यह रोग एक बार किसी को जकड़ ले, तो बर्बाद करके ही छोड़ता है। वर्तमान में जो विपक्षी नेतृत्व दिख रहा है, उनमें ज़्यादातर ज़मीन से जुड़े हुए जुझारू नेताओं, जैसे- जवाहरलाल नेहरू, चौधरी चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव आदि के राजनीतिक अवशेष मात्र की तरह हैं। उपरोक्त नेताओं के इन अभिजन (एलीट) उत्तराधिकारियों के पास न सत्ता के विरुद्ध संघर्ष की क्षमता है, न जनता को देने के लिए कोई परिकल्पना (विजन) है। अगर कुछ है, तो सिर्फ़ भावनात्मक कहानियाँ, जिनका जनता के लिए कोई विशेष जुड़ाव या मतलब नहीं है। इसके अतिरिक्त विपक्ष के पास जातिवाद और धर्म के परम्परागत मुद्दे तो हैं, किन्तु दिक़्क़त यह है कि इन मुद्दों से सम्बन्धित अधिक पैने हथियार सत्ता पक्ष के पास भरे पड़े हैं, जो विपक्ष से कहीं ज़्यादा कारगर भी साबित हो रहे हैं।

समस्या यह हैं कि इस राजनीतिक दुर्गति के पश्चात् आज भी कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल यह समझने को तैयार नहीं हैं कि वे क्यों पिछले 7-8 वर्षों से राज्य हो या केंद्र, हर जगह से सत्ता से बाहर धकेले जा रहे हैं? क्योंकि वे आम जनता के मुद्दों पर आधारित राजनीति नहीं कर पा रहे हैं। विपक्ष यह आरोप लगा रहा है कि सत्ता पक्ष मुद्दों से देश को भटका रहा है। लेकिन वह नहीं समझ रहा है कि वह ख़ुद भी सही मुद्दों पर बात नहीं करना चाहता। इसीलिए सत्ता पक्ष जिस चक्रव्यूह में विपक्षियों को फँसाना चाहता है, वे उसमें फँस रहे हैं। सम्भवत: विपक्ष समय की धारा को पहचानने में चूक कर रहा है। वह समझ नहीं पा रहा कि क्यों भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में जमी हुई है, और निरंतर आगे बढ़ती जा रही है? किसी भी व्यक्ति, संस्था या समाज की मृत्यु तब होती है, जब वह जिज्ञासा की भावना खो देता है। बेंजामिन फ्रैंकलिन लिखते हैं कि किसी बात की जानकारी न हो, तो उतना बुरा नहीं है, जितना कि जानने की इच्छा न होना।

विपक्ष को भाजपा और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उभार को समझने की ज़रूरत है। संप्रग सरकार के कार्यकाल में सन् 2014 के लोकसभा चुनावों के कुछ महीने पहले तक सत्ता विरोधी लहर चरम पर पहुँच चुकी थी। देश में राजनीतिक वातावरण क्षुब्ध था। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में सरकार की गरिमा रसातल में पहुँच चुकी थी। ऐसे में मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने उन कमियों को ज़ोर-शोर से लोगों के बीच उठाया और साथ में अपने नेतृत्व का विकल्प सामने रखा। उस व$क्त मुख्यमंत्री के रूप में मोदी के सुशासन ब्रांड गुजरात मॉडल का ज़ोर-शोर से प्रचार-प्रसार हुआ। साथ ही ग़ैर-वंशवादी पृष्ठभूमि, स्वनिर्मित छवि एवं साफ़-सुथरी छवि ने नरेंद्र्र मोदी के क़द को बड़ा केंद्रीय फ़लक दिया। अब इस कसौटी पर विपक्ष को देखिए, जिसके लिए यह तसव्वुर की कंगाली का दौर है। वर्तमान राजनीति ऐसी स्थिति में पहुँच गयी है, जहाँ सत्ता पक्ष द्वारा खींची गयी लकीर पार करने का विपक्ष में साहस ही नहीं दिख रहा है। सत्ता पक्ष हावी है एवं अपने पक्ष में व्यापक जन-समर्थन को मोडऩे के साथ ही अपनी कार्यनीति को बहुत हद तक लागू करने में सफल भी हुआ है; क्योंकि वह ज़्यादा जागृत एवं गतिशील है। अब इसी के बरअक्स विपक्ष को स्व-मूल्यांकन कर लेना चाहिए।

फ़िराक़ गोरखपुरी का एक शे’र है :-
‘‘सुकूते-शाम मिटाओ बहुत अँधेरा है।
सुख़न की शम्अ जलाओ बहुत अँधेरा है।।’’
असल में देश के लोकतंत्र में विपक्ष की वर्तमान स्थिति यही है। परन्तु उसे सचेत होना पड़ेगा, अन्यथा यह अँधेरा हमेशा के लिए उसका प्रारब्ध बन जाएगा।
(लेखक राजनीति एवं इतिहास के जानकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)