मुक्त छंद के कवियों को मिली नई चुनौती

झुग्गी-झोपडिय़ों से उठ रहा मझोली आय वर्ग का नौजवान अब बदलाव की ओर है। वह सामाजिक-आर्थिक तौर पर अपनी ऐसी जिंदगी जीना चाहता है जो उसकी अपनी हो। फिल्म ”गली बॉय’’ भी बॉलीवुड की एक ऐसी ही फिल्म है जो समाज के आर्थिक तौर पर कमज़ोर बस्तियों के युवाओं में आ रहे बदलाव की चुनौती को पेश करती है। यह कोशिश कमज़ोरियों के बावजूद सराही जानी चाहिए। फिल्म के गाने दिलचस्प हैं।  हर गाना मुक्त छंद में ढेरों कहानियों को उजागर करता है।

हिंदी में ‘मुक्त छंद’ (ब्लैंक वर्स) अर्से से कवियों के प्रयोग में रहा है। छायावाद के बाद से हिंदी कविता आज इस तरह छंद, लय, गीत से मुक्त हुई है कि उसके पाठक ही उससे उदासीन हो गए। हालांकि कविता के सभी जानकार इससे एकमत हैं कि ‘मुक्त छंद’ में भी लय होगी, कविता तभी होगी। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कविता सुनाने का अंदाज अब मंचीय कवियों का नहीं बल्कि पाठक से जुडऩे और उसकी भागीदारी के साथ एक ऐसी दुनिया बनाना है जो तमाम नाकामी के बाद भी जीने का हौसला देती है। इसमें जि़ंदगी जीने और संघर्ष करते हुए अपने सच को हासिल करने की कोशिश होती है।

सारी दुनिया में ”रैप कविता या गान’’ दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ही हुआ। अमेरिका से लैटिन अमेरिकी यूरोपीय और अफ्रीकी देशों से होते हुए एशियाई देशों में अब यह चलन में है। अमूमन ढोल और दूसरे बाजों के संगीत से जोड़ कर इसे मुक्त लय में उभारते हुए ज़्यादा आकर्षक और व्यापक करते हैं। बीट, पॉप और रैप गान एक तरह से एकल पाठ की शुरूआत होती है जिसमें श्रोताओं की भागीदारी बढ़ती जाती है। एकल पाठ समूह गान बन जाता है।

आज कवियों के लिए यह चुनौती है कि भले ही वे कमरे में सृजन करें लेकिन उसे श्रोताओं के बीच जाकर सुनाएं और उनकी भागीदारी आज़माए। श्रोता स्कूल-कॉलेज-फैक्टरियों में मिलेंगे। आंदोलनों में कविता का सही उपयोग उसके भीतर से उठते अंतद्र्वद्वं का सामूहिक विस्तार ही उसे कामयाबी भरा आकाश देता है। इसमें लय है, खुशी है, जीने की लालसा है और चुटीला व्यंग्य है जिसके जरिए खुद आगे बढऩे का हौसला बनता है।

यह हौसला ही है जिसके चलते समाज में ललित कलाओं का विकास होता है। उसमें जुटे लोगों की अपनी एक अलग पहचान बनती है। ”रैप’’ एक तरह से वह पतली पहाड़ी नदी है जो बाद में नदी और समुद्र से जा मिलती है। व्यथा में भी अभिनय और संवादों से चुनौतियों का सामना करने की हिम्मत और हौसला ही इस विधा को अधिक प्रासंगिक बनाता है। सुनने वाले में भी हिम्मत बढ़ती है कि वह कह सके ‘मेरा भी टाइम आएगा’।