मीडिया पर चाबुक

पत्रकारों व लोगों पर राजद्रोह के नाम पर दर्ज होते मामले सत्ता की बेचैनी ज़ाहिर करते हैं

देश में हाल के वर्षों में जिस तरह राजद्रोह के मामले दर्ज करने की सत्ता की प्रवृत्ति बढ़ी है, उससे मीडिया की आवाज़ को कुचलने के षड्यंत्र का पर्दाफ़ाश होता है। इनमें से ज़्यादातर मामले अदालतों में झूठे साबित हुए हैं या उन्हें ग़लत तरीक़े से राजद्रोह की धारा के तहत रखने के कारण अदालतों ने ख़ारिज किया है। हाल में देश की सबसे बड़ी अदालत ने भी कहा है कि राजद्रोह से सम्बन्धित भारतीय दण्ड संहिता की धारा-124(ए) की व्याख्या करने की ज़रूरत है। ज़ाहिर है सत्ता के ख़िलाफ़ उठती आवाज़ से बेचैन होकर जिस तरह राजद्रोह को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए एक औज़ार के रूप में सत्ताधीश इस्तेमाल कर रहे हैं, वह उचित नहीं। इसे लेकर बड़ी बहस छिड़ गयी है कि क्या अब इस धारा को लेकर पुनर्विचार किया जाना चाहिए? इसी को लेकर विभिन्न पहलुओं को छूती विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने पहले 31 मई और फिर 3 जून को राजद्रोह से जुड़े दो अलग-अलग मामलों में ऐतिहासिक टिप्पणियाँ की हैं। एक में सर्वोच्च न्यायालय ने पत्रकार विनोद दुआ पर एक मामले में लगे राजद्रोह के आरोपों को ख़ारिज कर दिया और कहा कि सन् 1962 में राजद्रोह को परिभाषित करने वाले ‘केदार नाथ सिंह फ़ैसले के तहत हर पत्रकार को सुरक्षा मिलनी चाहिए। उनके ख़िलाफ़ दायर एफआईआर भी रद्द करने का सर्वोच्च अदालत ने आदेश दिया। दूसरे मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राजद्रोह से सम्बन्धित क़ानून की व्याख्या का समय आ गया है। अदालत ने तेलगू चैनल के ख़िलाफ़ देशद्रोह से सम्बन्धित मामले में दण्डात्मक कार्रवाई पर रोक लगाते हुए यह टिप्पणी की। चैनल ने उत्तर प्रदेश में एक पुल से एक शव को राप्ती नदी में फेंके जाने वाला वीडियो दिखाया था, जिसे लेकर उस पर देशद्रोह का मामला दर्ज कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय के सीनियर जज न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने सुनवाई के दौरान तीखा तंज कसते हुए सवाल किया कि क्या उस फुटेज को दिखाने के लिए न्यूज चैनल के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा किया गया। मीडिया की आवाज़ दबाने के लिए राजद्रोह और देशद्रोह के मामलों को जिस ग़लत तरीक़े से एक हाथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, उसे लेकर सर्वोच्च अदालत के उपरोक्त फ़ैसले बहुत अहम हैं।

सर्वोच्च न्यायालय में इन मामलों की सुनवाई जब हुई, उससे डेढ़ महीना पहले 20 अप्रैल को जारी 2021 के विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत को 180 देशों में बेहद कमज़ोर

142वाँ स्थान मिला था। ज़ाहिर है देश में जिस तरह मीडिया की स्वतंत्रता को छीनने हो रही है, वो इस रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है। लेकिन मीडिया के लोगों के ख़िलाफ़ राजद्रोह और देशद्रोह जैसे मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ ग़ौर करने लायक हैं और इनसे सरकार को सबक़ लेने की ज़रूरत है। देश में पत्रकारों, कार्यकर्ताओं राजनीतिक विरोधियों पर राजद्रोह के मामले दर्ज होने की संख्या में बढ़ोतरी सन् 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद ज़यादा हुई है।

दो साल के राजद्रोह या देशद्रोह के ऐसे मामलों पर अदालत के फ़ैसलों से ज़ाहिर हो जाता है कि यह महज़ परेशान करने, आवाज़ दबाने या ग़लत इरादे से किये गये थे। सन् 2019 में देश में राजद्रोह के 93 मामले दर्ज हुए और इनमें 96 लोगों को गिरफ़तार किया गया। इन 96 में से 76 लोगों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर की गयी और 29 को बरी कर दिया गया। इन सभी आरोपियों में से केवल दो को अदालत ने दोषी ठहराया। इसी तरह सन् 2018 में जिन 56 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया, उनमें से 46 के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर हुई और उनमें से भी केवल दो लोगों को ही अदालत ने दोषी माना। इससे ज़ाहिर हो जाता है कि राजद्रोह को एक हथियार के रूप में आवाज़ कुचलने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। हाल के महीनों में राजदीप सरदेसाई, सिद्धार्थ वरदराजन, मृणाल पाण्डेय, ज़फर आग़ा, परेश नाथ, अनंत नाथ और विनोद के. जोस जैसे पत्रकारों के ख़िलाफ़ राजद्रोह क़ानून के तहत मामले दर्ज किये गये हैं या एफआईआर दर्ज की गयी हैं। विनोद दुआ वाले मामले में तो सर्वोच्च अदालत ने सख़्त टिप्पणी की ही है, टीवी चैनलों वाले मामले में भी अदालत का रुख़ सख़्त दिखा है। पत्रकारों पर देशद्रोह की धारा के तहत मामले दर्ज किये जाने के ख़िलाफ़ विभिन्न पत्रकार संगठन भी आवाज़ उठा चुके हैं। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, प्रेस एसोसिएशन, इंडियन वूमन प्रेस कॉर, दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट और इंडियन जर्नलिस्ट यूनियन जैसे संगठनों ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने वाला बताया है।

‘द सिटिजन की एडिटर-इन-चीफ सीमा मुस्तफ़ा इस मामले में कहती हैं कि पत्रकारों के लिए यह सबसे कठिन दौर है। ऐसे दौर में पत्रकारिता कैसे की जा सकती है। ये मामले सिर्फ़ पत्रकारों को डराने के लिए नहीं हैं, बल्कि अपना काम करने वाले हर व्यक्ति को डराने के लिए हैं। मुस्तफ़ा की बात से मामले की गम्भीरता को समझा जा सकता है। देश में चल रहे किसान आन्दोलन और उससे पहले पिछले साल एनआरसी के ख़िलाफ़ आन्दोलन के दौरान भी मामले बनाते समय राजद्रोह की धारा का खुलकर इस्तेमाल किया गया। पिछले साल तब एक मामला बहुत सुर्ख़ियों में आया था, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में उनके गोद लिए गाँव की सही तस्वीर दिखाने पर एक न्यूज वेबसाइट की संपादक और मुख्य संपादक पर एफआईआर दर्ज कर दी गयी थी।

स्क्रोल.इन नाम की न्यूज वेबसाइट की कार्यकारी संपादक सुप्रिया शर्मा और मुख्य संपादक के ख़िलाफ़ वाराणसी पुलिस ने एक महिला की शिकायत पर तब एफआईआर दर्ज की गयी, जब सुप्रिया ने प्रधानमंत्री मोदी के गोद लिए गाँव डोमरी में लॉकडाउन के दौरान लोगों के हालत पर एक रिपोर्ट लिखी। इस रिपोर्ट में काफ़ी लोगों से बातचीत की गयी थी; लेकिन एक महिला माला देवी ने आरोप लगाया कि उनके बारे में जो लिखा गया है, वह तथ्य नहीं हैं। उन्होंने पत्रकार पर एफआईआर दर्ज की। हालाँकि पत्रकार अपनी रिपोर्ट पर दृढ़ रहीं।

विनोद दुआ का मामला

मशहूर पत्रकार विनोद दुआ पर दिल्ली और हिमाचल प्रदेश में अलग-अलग जगह एफआईआर दर्ज करायी गयी थी। हिमाचल में एक भाजपा नेता ने उनके ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज की थी। विनोद दुआ पर आरोप लगाया कि उन्होंने फ़र्ज़ी ख़बर (फेक न्यूज) फैलायी। हिमाचल में उनके ख़िलाफ़ दर्ज एफआईआर में देशद्रोह की धारा जोड़ी गयी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष सुनवाई के दौरान राज्य सरकार को निर्देश दिया कि 6 जुलाई तक उनकी गिरफ़्तारी नहीं हो सकती। इस दौरान मामले की जाँच की जा सकती है। दुआ के ख़िलाफ़ इस मामले का चौरतरफ़ा विरोध देखने को मिला और पत्रकार संगठन भी उनके समर्थन में आगे आये। विनोद दुआ को 3 जून को सर्वोच्च न्यायालय से बड़ी राहत मिली, जब सर्वोच्च न्यायालय ने उनके ख़िलाफ़ हिमाचल प्रदेश में दर्ज राजद्रोह के मुक़दमे को ख़ारिज कर दिया। उनके वकील विकास सिंह ने एक वीडियो जारी कर बताया कि दुआ को सर्वोच्च न्यायालय से राहत मिली है। हालाँकि कोर्ट ने दूसरी माँग को नहीं माना कि एफआईआर करने से पहले एक समिति का गठन होना चाहिए।

विनोद दुआ पर अपने यूट्यूब चैनल पर वीडियो के ज़रिये लोगों को भड़काने का मामला दर्ज किया गया था। दुआ पर देशद्रोह सहित भारतीय दण्ड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत आरोप लगाया गया था और भाजपा नेता ने दावा किया था कि दुआ ने 30 मार्च, 2020 को अपने 15 मिनट के यूट्यूब शो में अजीबोग़रीब आरोप लगाये थे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर वोट पाने के लिए ‘मौतों और आतंकी हमलों का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया था। लेकिन सर्वोच्च अदालत ने दुआ के ख़िलाफ़ दर्ज राजद्रोह और देशद्रोह के मामले को निरस्त कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने सभी पत्रकारों को केदारनाथ सिंह फ़ैसले के तहत संरक्षित किया है जिसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण फ़ैसला माना जाएगा। दुआ के ख़िलाफ़ उनके यूट्यूब कार्यक्रम के सम्बन्ध में 6 मई को शिमला के कुमारसेन पुलिस स्टेशन में भाजपा के एक नेता श्याम ने एफआईआर दर्ज करायी थी। याचिकाकर्ता ने दलील दी थी कि दुआ ने अपने यूट्यूब कार्यक्रम ‘द विनोद दुआ शो’ में प्रधानमंत्री मोदी को लेकर विवादित टिप्पणी की, जो साम्प्रदायिक घृणा को भड़का सकती थी और इससे अशान्ति और साम्प्रदायिक वैमनस्य की स्थिति पैदा हो सकती थी। इससे पहले कोर्ट ने कहा था कि दुआ को इस मामले के सम्बन्ध में हिमाचल प्रदेश पुलिस द्वारा पूछे जा रहे किसी भी पूरक सवाल का जवाब देने की ज़रूरत नहीं है।

इससे डेढ़ महीना पहले न्यूज वेबसाइट ‘द वायर’ के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन पर उत्तर प्रदेश के अयोध्या में दो एफआईआर दर्ज की गयीं। आरोप लगाया कि उन्होंने लॉकडाउन के बावजूद अयोध्या में होने वाले एक कार्यक्रम में योगी आदित्यनाथ के शामिल होने सम्बन्धी बात छापकर अफ़वाह फैलायी। द वायर का कहना था कि इस कार्यक्रम में मुख्यमंत्री का जाना सार्वजनिक रिकॉर्ड और जानकारी का विषय है, इसलिए अफ़वाह फैलाने जैसी बात यहाँ लागू ही नहीं होती। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की इस कार्रवाई पर काफ़ी प्रतिक्रिया देखने को मिली। बड़ी संख्या में देश के क़ानूनविद्, पत्रकार-लेखक, शिक्षाविद्, अभिनेता और कलाकार सामने आये। इन क़रीब 3000 बुद्धिजीवियों ने एक साझा वक्तव्य जारी किया, जिसमें उन्होंने इसे सीधे प्रेस की आज़ादी पर हमला बताया।

अन्य पत्रकारों पर मामले

पत्रकारों के अलावा मीडिया (प्रिंट / इलेक्ट्रॉनिक) के ख़िलाफ़ हाल की महीनों में राजद्रोह के मुक़दमे दर्ज करने की मानों बाढ़-सी आ गयी है। साल के पहले महीने मीन में नोएडा पुलिस ने कांग्रेस सांसद शशि थरूर के साथ-साथ छ: पत्रकारों पर भी राजद्रोह का मामला दर्ज किया। मामला एक शिकायत के आधार पर दर्ज किया गया, जिसमें थरूर और पत्रकारों के सोशल मीडिया पोस्ट्स और डिजिटल प्रसारण को राजधानी दिल्ली में किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान हिंसा के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया था। इससे पहले पिछले साल अक्टूबर में उत्तर प्रदेश पुलिस ने केरल के पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन और तीन अन्य पर राजद्रोह समेत अन्य धाराओं में मामले दर्ज किये थे। यह मामले तब दर्ज किये गये जब कप्पन कथित सामूहिक दुष्कर्म मामले की ज़मीनी रिपोर्टिंग करने हाथरस जा रहे थे।

अक्टूबर में ही मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वाँगखेम के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया। उन्हें दो साल पहले भी राजद्रोह की धारा के तहत मामला दर्ज करके गिरफ़्तार किया गया था। उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत आरएसएस, मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ टिप्पणी करने के लिए गिरफ़्तार किया गया था। मणिपुर उच्च न्यायालय ने अप्रैल 2019 में उनके ख़िलाफ़ आरोपों को ख़ारिज कर दिया था, जिसके बाद उन्हें उन्हें जेल से रिहा करना पड़ा।

इससे पहले इसी साल टूलकिट मामला भी बहुत सुर्ख़ियों में रहा था। इस मामले में आरोपी दिशा रवि पर राजद्रोह का मामला दर्ज कर दिया था। इसी साल फरवरी में दिशा को दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने जमानत दे दी थी। कोर्ट ने पुलिस की कहानी और दावों को ख़ारिज करते हुए कहा था कि पुलिस के कमज़ोर सुबूतों के चलते एक 22 साल की लड़की जिसका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है, उसे जेल में रखने का कोई मतलब नहीं है।

दिशा मामले में भी कोर्ट की टिप्पणियाँ ग़ौर करने लायक हैं। जमानत देते हुए कोर्ट ने पुलिस के सभी आरोपों और दावों के ख़ारिज कर दिया और कहा कि व्हाट्स ऐप ग्रुप बनाना, टूल किट एडिट करना अपने आप में अपराध नहीं है। महज़ व्हाट्स ऐप चैट डिलीट करने से उसे पीजीएफ संगठन से जोडऩा ठीक नहीं। ये ऐसा सुबूत नहीं है, जिससे अलगाववादी सोच साबित हो। कोर्ट ने कहा कि टूलकिट या उसके हाईपर लिंक में देशद्रोह जैसी कोई सामग्री नहीं। सरकार से किसी बात कर सहमत न होने पर किसी को देशद्रोह के आरोप में जेल में नहीं डाला जा सकता। लोकतांत्रिक देश में अपनी बात रखने का हर किसी को मौलिक अधिकार है। असन्तोष का अधिकार दृढ़ता में निहित है। मेरे विचार से बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ग्लोबल ऑडियन्स की तलाश का अधिकार शामिल है। संचार पर कोई भौगोलिक बाधाएँ नहीं हैं। एक नागरिक के पास क़ानून के अनुरूप संचार प्राप्त करने के सर्वोत्तम साधनों का उपयोग करने का मौलिक अधिकार है। ये समझ से बाहर है कि प्रार्थी ने अलगाववादी तत्त्वों को वैश्विक धरातल (प्लेटफॉर्म) कैसे दिया।

सरकार की खिंचाई

विनोद दुआ के मामले से चार दिन पहले 31 मई को सर्वोच्च न्यायालय ने मीडिया में दिखायी गयी एक फुटेज को लेकर सरकार पर बहुत व्यंगात्मक टिप्पणी करते हुए खिंचाई की। यह मामला उत्तर प्रदेश में एक पुल से एक शव को राप्ती नदी में फेंके जाने वाले वीडियो को दिखाने को लेकर था, जिसके ख़िलाफ़ टीवी चैनल पर राजद्रोह का मामला दारज किया गया था। न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कोविड-19 से सम्बन्धित एक मामले की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की। सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय बेंच इस मामले की स्वत: संज्ञान लेकर सुनवाई कर रही है।

सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि एक न्यूज रिपोर्ट में एक शव को नदी में फेंकते हुए दिखाया गया था। हमें नहीं पता कि अभी तक उस न्यूज चैनल के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज कर लिया गया है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने कोरोना वायरस से सम्बन्धित मामलों में सोशल मीडिया पर मदद माँगने वालों के ख़िलाफ़ सरकारों के रवैये की पहले भी आलोचना की है। इससे पहले 30 अप्रैल को सुनवाई के दौरान अदालत ने साफ़ किया था कि सोशल मीडिया पर महामारी से सम्बन्धित अपनी शिकायतें बयाँ करने वाले नागरिकों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं की जा सकती।

न्यायाधीश चंद्रचूड़ की अगुवाई वाले बेंच ने कहा था कि अधिकारियों की ओर से होने वाली ऐसी कार्रवाई को अदालत का अवमानना माना जाएगा। इस बेंच में उनके अलावा न्यायाधीश एल. नागेश्वर राव और न्यायाधीश रवींद्र भट भी शामिल हैं। दरअसल उत्तर प्रदेश सरकार ने पहले कोविड-19 को लेकर मदद के नाम पर सोशल मीडिया पर झूठी अपील करने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त दीवानी (सिविल) और आपराधिक कार्रवाई करने को कहा था, जिस पर अदालत ने ऐसी किसी भी कार्रवाई के ख़िलाफ़ हिदायत दी थी। इस मामले की सुनवाई के दौरान अदालत ने मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर आईपीसी की धारा-124(ए) की विस्तृत व्याख्या की ज़रूरत बतायी, जिसके तहत देशद्रोह को अपराध माना गया है। अदालत पहले ही आंध्र प्रदेश के दो समाचार चैनलों- टीवी5 और एबीएन न्यूज के ख़िलाफ़ आंध्र प्रदेश पुलिस की ओर से दायर देशद्रोह के मामले से सुरक्षा दे चुकी है। इन चैनलों ने वाईएसआर कांग्रेस के नेता की ओर से कोविड मैनेजमेंट को लेकर राज्य सरकार के ख़िलाफ़ ‘आपत्तिजनक भाषण’ दिखाया था। इस पर जजों ने ये भी कहा था कि यही समय है कि हम देशद्रोह की सीमा तय करें। याद रहे इसी साल पहली मार्च को अदालत ने इसी तरह श्रीनगर से सांसद और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला के ख़िलाफ़ एक याचिका ये कहकर ख़ारिज कर दी थी कि सरकार की राय से अलग राय ज़ाहिर करना ‘देशद्रोह’ नहीं कहला सकता।

अब्दुल्ला ने अनुच्छेद-370 के मुद्दे पर चीन और पाकिस्तान से कथित तौर पर मदद माँगने की बात कही थी। अदालत ने इस मामले में याचिकाकर्ता पर 50,000 रुपये का ज़ुर्माना भी लगा दिया था। बता दें कि देशद्रोह क़ानून की वैद्यता को चुनौती देने वाली एक पीआईएल पर बीती पहली मई को अदालत ने केंद्र सरकार से जवाब भी माँगा है। यह याचिका मणिपुर और छत्तीसगढ़ के दो पत्रकारों ने डाली है, जिसमें कहा गया है यह क़ानून फ्रीडम ऑफ स्पीच के प्रावधानों का उल्लंघन है। यहाँ बता दें कि जाने माने वकीलों, पत्रकारों और अकादमिकों के एक समूह अनुच्छेद-14 की तरफ़ से जारी आँकड़ों के मुताबिक, पिछले पाँच साल में देश में औसतन 28 फ़ीसदी के हिसाब से हर साल राजद्रोह के मामलों में भारत में वृद्धि देखी गयी है।

याद रहे राजद्रोह पर 1962 में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया था। केदारनाथ सिंह बनाम बिहार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने वैसे तो इस धारा को बनाये रखा; लेकिन उसे असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर देने से मना कर दिया। लेकिन इस धारा की सीमा तय कर दी। कोर्ट ने साफ़ कर दिया कि सिर्फ़ सरकार की आलोचना करना राजद्रोह नहीं माना जा सकता। जिस मामले में किसी भाषण या लेख का मक़सद सीधे-सीधे सरकार या देश के प्रति हिंसा भड़काना हो, उसे ही इस धारा के तहत अपराध माना जा सकता है। बाद में सन् 1995 में बलवंत सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ख़ालिस्तान के समर्थन में नारे लगाने वाले लोगों को भी इस आधार पर छोड़ दिया था कि उन्होंने सिर्फ़ नारे लगाये थे।

राजद्रोह के चर्चित मामले

26 मई, 1953 को फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदारनाथ सिंह ने बिहार के बेगूसराय में एक भाषण दिया था। राज्य की कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ दिए गए उनके इस भाषण के लिए उन पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया।

साल 2012 में कानपुर के कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को संविधान का मज़ाक़ उड़ाने के आरोप में गिरफ़्तार किया था। इस मामले में त्रिवेदी के ख़िलाफ़ राजद्रोह सहित और भी आरोप लगाये गये। त्रिवेदी के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने मुम्बई पुलिस को फटकार लगायी थी।

गुजरात में पाटीदारों के लिए आरक्षण की माँग करने वाले कांग्रेस नेता हार्दिक पटेल के ख़िलाफ़ भी राजद्रोह का केस दर्ज हुआ था। जेएनयू में भी छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार और उनके साथी उमर ख़ालिद पर राजद्रोह का केस दर्ज हुआ था।

दिवंगत पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली के ख़िलाफ़ सन् 2015 में उत्तर प्रदेश की एक अदालत ने राजद्रोह के आरोप लगाये थे। इन आरोपों का आधार नेशनल ज्यूडिशियल कमीशन एक्ट (एनजेएसी) को रद्द करने के सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले की आलोचना बताया गया।

हार्ड न्यूज पत्रिका के संपादक संजय कपूर कहते हैं कि पिछले सात साल में पत्रकारों के ख़िलाफ़ राजद्रोह के मामले दर्ज करने की मानों होड़ लग गयी है। पत्रकारों को महामारी से जुड़ी ख़बरों, यहाँ तक कि बलात्कार जैसे जुर्म पर ख़बर करने के लिए भी गिरफ़्तार कर लिया गया है। संजय कपूर एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के सचिव भी हैं, कहता हैं कि सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार पत्रकारों को मिली अभिव्यक्ति की सुरक्षा के बारे में बताया है; लेकिन निचली अदालतें अक्सर सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी को नज़अंदाज़ करती आयी हैं। हमारी माँग है कि राजद्रोह जैसे क़ानून की सभ्य समाज में कोई जगह ही नहीं है, और समय आ गया है कि इसे अब भारतीय दण्ड संहिता से ही हटा दिया जाए।

कब, कहाँ ख़त्म हुआ

राजद्रोह क़ानून?

1. दक्षिण कोरिया में सन् 1988 में

2. इंडोनेशिया में सन् 2007 में

3. ब्रिटेन में सन् 2009 में

4. आस्ट्रेलिया में सन् 2010 में

5. स्काटलैंड में सन् 2010 में

राजद्रोह से सम्बन्धित आईपीसी की धारा-124(ए) की व्याख्या करने की ज़रूरत है। इस धारा के इस्तेमाल से प्रेस की स्वतंत्रता पर पडऩे वाले असर के मद्देनज़र भी इस व्याख्या की ज़रूरत है। हमारे विचार में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा-124(ए), 153(ए) और 505 के प्रावधानों के दायरे और मापदण्डों की व्याख्या की आवश्यकता होगी। ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के समाचार और सूचना पहुँचाने के सन्दर्भ में। इस व्याख्या का हिस्सा वे समाचार या सूचनाएँ भी होंगी, जिनमें देश के किसी भी हिस्से में प्रचलित शासन की आलोचना की गयी हो।

दो टीवी चैनलों के मामले में सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी

अदालतों में झूठे साबित हुए मुक़दमे

आधिकारिक आँकड़ों से ज़ाहिर होता है कि राजद्रोह के मामलों में दोष साबित होने की दर 2014 के 33 फ़ीसदी से गिरकर 2019 में तीन फ़ीसदी तक आ गयी है। नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो के आँकड़ों से यह भी ज़ाहिर होता है कि राजद्रोह के अधिकतर मामलों में चार्जशीट तक नहीं दायर हो पाती। देशद्रोह के आरोप के 80 फ़ीसदी मामलों में चार्जशीट दाख़िल नहीं हो पायी। इससे तो यही ज़ाहिर होता है की देश में अब राजद्रोह को आवाज़ कुचलने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा है।

यदि नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों पर नज़र दौड़ायी जाए, तो ज़ाहिर होता है कि हाल के वर्षों में राजद्रोह के मामले बड़ी संख्या में दर्ज किये गये हैं। देश में वर्ष 2014 में मोदी सरकार आने के बाद वर्ष 2015 में 30, वर्ष 2016 में 35, वर्ष 2017 में 51, वर्ष 2018 में 70 और वर्ष 2019 में 93 मामले राजद्रोह के तहत दर्ज हुए। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि वर्ष 2019 में देश में राजद्रोह के जो 93 मामले दर्ज हुए, उसमें 96 लोगों को गिरफ़्तार किया गया; जिनमें से 76 आरोपियों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर की गयी और 29 को बरी कर दिया गया। इन सभी आरोपियों में से केवल दो को अदालत ने दोषी ठहराया।

वर्ष 2018 में जिन 56 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया, उनमें से 46 के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर हुई और उनमें भी केवल दो लोगों को ही अदालत ने दोषी माना। ऐसे ही सन् 2017 में जिन 228 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया, उनमें से 160 के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर हुई और उनमें से मात्र 4 लोगों को अदालत ने दोषी माना। एक साल पहले वर्ष 2016 में 48 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया और उनमें से 26 के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर हुई और केवल एक आरोपी को अदालत ने दोषी माना। वर्ष 2015 में इस क़ानून के तहत 73 गिरफ़्तरियाँ हुईं और 13 के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर हुई; लेकिन इनमें से एक को भी अदालत में दोषी नहीं साबित किया जा सका, जबकि वर्ष 2014 में 58 लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। लेकिन सिर्फ़ 16 के ख़िलाफ़ ही चार्जशीट दायर हुई और उनमें से भी केवल एक को ही अदालत ने दोषी माना।

वैसे वर्ष 2010 से वर्ष 2020 तक कुल 816 राजद्रोह के मामलों में 10,938 भारतीयों को आरोपी बनाया गया है। इनमें 65 फ़ीसदी मामले मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान एनडीए सरकार के समय में दर्ज किये गये। सन् 2010 से 2014 के बीच क़रीब चार साल में 3,762 भारतीयों के ख़िलाफ़ 279 मामले दर्ज किये गये। वहीं सन् 2014-2020 के बीच के छ: वर्षों में इससे क़रीब दोगुने 7,136 लोगों के ख़िलाफ़ 519 मामले दर्ज हुए। इन 10 वर्षों में सबसे ज़्यादा 65 फ़ीसदी (534) मामले पाँच राज्यों बिहार, कर्नाटक, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में दर्ज। बिहार में 168, तमिलनाडु में 139, उत्तर प्रदेश में 115, झारखण्ड में 62 और कर्नाटक में 50 मामले दर्ज किये गये।

अब 2021 में भी यह सिलसिला जारी है और दो दर्ज़न के क़रीब मामले दर्ज किये गये हैं; जिनमें कई पत्रकारों के ख़िलाफ़ हैं। राजद्रोह के सबसे ज़्यादा 130 मामले यूपीए सरकार के दौरान साल 2011 में तब दर्ज हुए थे, जब कुंदन कॉलम न्यूक्लियर प्रोटेस्ट चल रहा था। इसके बाद सन् 2019 और सन् 2020 में सबसे ज़्यादा मामले दर्ज किये गये, जब देश भर में संशोधित नागरिकता क़ानून (सीएए) के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन चल रहा था। वर्ष 2019 में 118 और वर्ष 2020 में 107 मामले दर्ज हुए। वर्ष 2020 में दिल्ली दंगे, कोरोना संकट और हाथरस दुष्कर्म मामले की वजह से भी राजद्रोह क़ानून ख़ूब चर्चा में रहा। इसी साल मार्च में संसद में सरकार ने एक सवाल के जवाब में जानकारी दी थी कि पिछले 5 साल में देश में ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियाँ (निवारक) अधिनियम (यूएपीए) के तहत 5,128 और देशद्रोह के आरोप में 229 मामले दर्ज हुए हैं।

आँकड़ों के मुताबिक, सन् 2015 और 2019 के बीच यूएपीए के तहत क्रमश: 897, 922, 901, 1182 और 1126 मामले दर्ज किये गये थे। सन् 2018 में असम में यूएपीए के तहत 308 मामले दर्ज किये गये थे। मणिपुर में सन् 2015 में यूएपीए के तहत सबसे ज़्यादा 522 मामले दर्ज हुए सन् 2016 में 327, सन् 2017 में 330, सन् 2018 में 289 और सन् 2019 में 306 मामले दर्ज किये गये। सन् 2018 को छोड़कर इस अवधि के दौरान सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मणिपुर टॉप पर रहा। आँकड़ों के मुताबिक, इस उत्तर पूर्वी राज्य में कुल 1,786 मामले दर्ज हुए हैं, जो कि कुल दर्ज मामलों का 34.82 फ़ीसदी हैं।

गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने राज्यसभा सदस्य अब्दुल वहाब के सवाल के जवाब में सन् 2015 से 2019 की अवधि का डाटा सदन में शेयर किया। रेड्डी ने कहा कि यह डाटा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने संकलित किया है और यह 31 दिसंबर, 2019 तक का है। राजद्रोह के मामलों के मामले में बिहार 2015 में नौ ऐसे मामलों के साथ शीर्ष पर रहा। इसके बाद सन् 2016 में हरियाणा 12 मामलों के साथ, सन् 2017 में असम 19 मामलों के साथ, सन् 2018 में झारखंड 18 मामलों के साथ और सन् 2019 में कर्नाटक 22 मामलों के साथ शीर्ष पर रहा।

अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संगठन भी चिन्तित

भारत में पत्रकारों पर राजद्रोह के मामले दर्ज होने की संख्या से चिन्तित मीडिया की स्वतंत्रता के लिए काम करने वाले दो अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखा है। ऑस्ट्रिया स्थित इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट (आईपीआई) और बेल्जियम स्थित इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स (आईएफजे) ने अपने पत्र में कहा है कि पिछले कुछ महीनों में भारत के अलग-अलग हिस्सों में कई पत्रकारों के ख़िलाफ़ भारतीय दण्ड संहिता की धारा-124(ए) के तहत राजद्रोह के आरोप लगाकर मामले दर्ज किये गये हैं। इनमें तीन साल तक की जेल की स•ाा का प्रावधान है। इन संगठनों ने कहा है कि भारत में पत्रकारों के ख़िलाफ़ राजद्रोह और दूसरे आरोप लगाकर प्रेस की स्वतंत्रता का गला घोंटा जा रहा है, जो बहुत ही विचलित करने वाली बात है। संगठनों ने कहा कि कोरोना वायरस महामारी के फैलने के बाद इस तरह के मामलों की संख्या बढ़ गयी है, जो यह दिखाता है कि महामारी की रोकथाम करने में सरकारों की कमियों को उजागर करने वालों की आवाज़ महामारी का ही बहाना बनाकर दबायी जा रही है। पत्र में इस सन्दर्भ में धवल पटेल के मामले और इसी तरह के कम-से-कम 55 मामलों का उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री से अपील की गयी है कि वह तुरन्त यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक क़दम उठाएँ कि पत्रकार बिना किसी उत्पीडऩ और सरकार की बदले की किसी कार्रवाई से डरे बिना अपना काम कर सकें।

राजद्रोह क़ानून क्या है और विधि आयोग ने क्या कहा?

 

ये क़ानून अंग्रेजों का बनाया क़ानून है। देश द्रोह का ये वो क़ानून है, जो 149 साल पहले भारतीय दण्ड संहिता में जोड़ा गया; यानी सन् 1870 में जब भारत अंग्रेजों का ग़ुलाम था। इसे सबसे पहले अंग्रेजों के शासन के दौरान सन् 1870 में लाया गया था। सन् 1898, सन् 1937, सन् 1948, सन् 1950 और सन् 1951 में इसमें संशोधन किये गये। इसे सन् 1958 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने और पंजाब उच्च न्यायालय ने तो असंवैधानिक क़रार दे दिया था।

अंग्रेजों ने ये क़ानून इसलिए बनाया, ताकि वो भारत के देशभक्तों को देशद्रोही क़रार देकर सज़ा दे सके। महात्मा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू ने उस दौर में देशद्रोह के इस क़ानून को आपत्तिजनक और अप्रिय क़ानून बताया था। लेकिन वो आज़ादी के पहले की स्थिति थी और पूरा देश स्वतंत्रता कि लड़ाई लड़ रहा था। उस परिस्थितियों की तुलना वर्तमान के दौर से नहीं की जा सकती है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा-124(ए) के अनुसार, जब कोई व्यक्ति बोले गये या लिखित शब्दों, संकेतों या दृश्य प्रतिनिधित्व से या किसी और तरह से घृणा या अवमानना या उत्तेजित करने का प्रयास करता है या भारत में क़ानून से स्थापित सरकार के प्रति असन्तोष को भड़काने का प्रयास करता है, तो वह राजद्रोह का आरोपी है।

राजद्रोह एक ग़ैर-जमानती अपराध है और इसमें सज़ा तीन साल से लेकर आजीवन कारावास और ज़ुर्माना है। केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य (1962) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आईपीसी की धारा-124(ए) के बारे में कहा था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति, या क़ानून और व्यवस्था की गड़बड़ी या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों तक सीमित होना चाहिए। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ ने अपने फ़ैसले में आईपीसी के तहत राजद्रोह क़ानून की वैधता को बरक़रार रखा था और इसके दायरे को भी परिभाषित किया था। अदालत ने कहा था कि धारा-124(ए) केवल उन शब्दों को दण्डित करता है, जो क़ानून और व्यवस्था को बिगाडऩे की मंशा या प्रवृत्ति को प्रकट करते हैं; या जो हिंसा को भड़काते हैं। आज तक इस परिभाषा को धारा-124(ए) से सम्बन्धित मामलों के लिए मिसाल के तौर पर लिया जाता रहा है।

हालाँकि हाल के वर्षों में यह विचार तेज़ी से मुखर हो रहा कि क्या राजद्रोह के क़ानून को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए? वैसे जुलाई, 2019 में राज्य सभा में एक सवाल के जवाब में गृह मंत्रालय ने कहा था कि देशद्रोह के अपराध से निपटने वाले आईपीसी के तहत प्रावधान को ख़त्म करने का कोई प्रस्ताव नहीं है। राष्ट्रविरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्त्वों का प्रभावी ढंग से मुक़ाबला करने के लिए प्रावधान को बनाये रखने की सख़्त ज़रूरत है। इसके अलावा भारतीय विधि आयोग (लॉ कमीशन) ने भी सन् 2018 में राजद्रोह को लेकर एक परामर्श पत्र जारी किया था।

राजद्रोह के क़ानून को लेकर आगे क्या रास्ता निर्धारित किया जाना चाहिए इस पर लॉ कमीशन ने कहा कि लोकतंत्र में एक ही गीत की किताब से गाना देशभक्ति का पैमाना नहीं है और लोगों को अपने तरीक़े से अपने देश के प्रति अपना स्नेह दिखाने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए और ऐसा करने के लिए सरकार की नीति में ख़ामियों की ओर इशारा करते हुए कोई रचनात्मक आलोचना या बहस की जा सकती है।

लॉ कमीशन ने कहा- ‘इस तरह के विचारों में प्रयुक्त अभिव्यक्ति कुछ के लिए कठोर और अप्रिय हो सकती है; लेकिन ऐसी बातों को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है।’ लॉ कमीशन ने यह भी कहा- ‘धारा-124(ए) केवल उन मामलों में लागू की जानी चाहिए, जहाँ किसी भी कार्य के पीछे की मंशा सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने या हिंसा और अवैध साधनों से सरकार को उखाड़ फेंकने की है।’ लॉ कमीशन ने आगे कहा- ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के हर ग़ैर-ज़िम्मेदाराना प्रयोग को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है।

सरकार की नीतियों से मेल न खाने वाले विचार व्यक्त करने के लिए किसी व्यक्ति पर राजद्रोह की धारा के तहत आरोप नहीं लगाया जाना चाहिए। देश या उसके किसी विशेष पहलू पर अपशब्द कह देना देशद्रोह नहीं माना जा सकता है।

अगर देश सकारात्मक आलोचना के लिए खुला नहीं है, तो यह आज़ादी से पहले और बाद के युगों के बीच का अन्तर दर्शाता है। अपने स्वयं के इतिहास की आलोचना करने का अधिकार और अपमान करने का अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत संरक्षित अधिकार है; जबकि यह प्रावधान राष्ट्रीय अखण्डता की रक्षा के लिए आवश्यक है। इसका दुरुपयोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।

असहमति और आलोचना जीवंत लोकतंत्र में नीतिगत मुद्दों पर एक मज़बूत सार्वजनिक बहस के आवश्यक तत्त्व हैं; और इसीलिए अनुचित प्रतिबन्धों से बचने के लिए स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति पर हर प्रतिबन्ध की सावधानीपूर्वक जाँच की जानी चाहिए।

यूनाइटेड किंगडम ने 10 साल पहले देशद्रोह क़ानूनों को समाप्त कर दिया था और ऐसा करते वक़्तकहा था कि वो देश ऐसे कठोर क़ानूनों का उपयोग करने का उदाहरण नहीं बनना चाहता। उस धारा-124(ए) को बनाये रखना कितना उचित है, जिसे अंग्रेजों ने भारतीयों पर अत्याचार करने के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग किया था।

आज़ादी के इन सात दशकों में इस क़ानून को लेकर ख़ूब सियासत होती रही है। कांग्रेस ने तो एक बार अपने चुनावी घोषणा-पत्र में वादा कर दिया था कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा-124(ए), जो देशद्रोह अपराध को परिभाषित करती है और जिसका दुरुपयोग हुआ है; को ख़त्म किया जाएगा।