मिलेट राजनय और ज़मीनी हक़ीक़त

भारत को विश्व गुरु बनाने के अपने प्रयासों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सन् 2014 से ही नरम कूटनीति (सॉफ्ट डिप्लोमेसी) का जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। इसलिए ऐसा हो नहीं सकता था कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की अध्यक्षता के मौक़े को वह ऐसे ही जाने देते। अध्यक्ष घोषित होने के बाद सभी सदस्यों को दिये जाने वाले परम्परागत भोज की मुख्य भोजन-सूची (मैन्यू) में जो ख़ास व्यंजन शामिल किये गये, उनमें रागी, मक्का, कांगनी, वरई जैसे मिलेट (मोटे अनाज) से बने बहुत-से भारतीय व्यंजन भी शामिल थे। मेहमानों को तोहफ़े भी ऐसे ही व्यंजनों के दिये गये, जिन्हें उन्होंने विशेष चाव से ग्रहण किया। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टी.एस. तिरुमूर्ति को इस भोजन-सूची को तैयार करने में कई महीने लगे। इसमें उनकी पत्नी गौरी और भारतीय मिशन के अन्य सदस्यों का सहयोग रहा।
नहीं जानती कि ये व्यंजन हम भारतियों को खाने के लिए मिलेंगे या नहीं; पर हो सकता है कि विदेशी बाज़ार में लोग इन्हें शोक़ से खाएँ। अर्थशास्त्री मानकर चल रहे हैं कि 2021 से 2026 के बीच में मिलेट्स का वैश्विक बाज़ार 4.5 फ़ीसदी हो सकता है। अभी तक जिसे ग़रीबों या जानवरों का आहार माना जाता था; अब भूख, ग़रीबी, कुपोषण व जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं का हल इसमें देखा जा रहा है। माना जा रहा है कि ताँबा, मैग्नीशियम, कैल्शियम, फॉसफोरस, मैगनीज, प्रोटीन, फाइबर और लोहा जैसे विभिन्न पोषक तत्त्वों से भरपूर मोटा अनाज ऐसा उत्तम भोजन (सुपर फूड) है, जिससे व्यक्ति एक स्वस्थ जीवन जी सकता है। विदेशों में इस उत्तम भोजन की माँग तेज़ी से बढ़ रही है। यही कारण है कि भारत सरकार ने सुरक्षा परिषद् के परम्परागत भोज में मेहमानों की मेज़बानी भारत के उत्तम भोजन के परम्परागत व्यंजनों से की।


जैव विविधता से भरे भारत में शायद ही कोई राज्य होगा, जहाँ उसकी जलवायु और ज़मीन के हिसाब से मोटा अनाज न होता हो। सबकी अलग-अलग क़िस्में। अलग-अलग नाम और गुण। एक समय था, जब अधिकांश आमजन का मुख्य भोजन यह मोटा अनाज ही था। पर हरित क्रान्ति के बाद से भारत के मोटे अनाज के उत्पादन क्षेत्र में क़रीब 60 फ़ीसदी की कमी आ चुकी है। फिर भी दुनिया में उत्पादित होने वाले 284 लाख मीट्रिक टन का 41.1 फ़ीसदी मोटा अनाज अकेले भारत में ही पैदा होता है। इस लिहाज़ से आज भी भारत मोटे अनाज का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। जहाँ तक निर्यात का सवाल है, तो सबसे बड़ा उत्पादक देश होते हुए भी भारत पौष्टिक अनाज के निर्यात में अभी शुरुआत ही कर रहा है।
यहाँ मोटे अनाज और पौष्टिक अनाज के अन्तर को समझ लेना ज़रूरी है। मोटे अनाज में जौ और मक्का (मकई) समेत सभी प्रकार के कदन्न (आमतौर पर घटिया माने जाने वाले अनाज) आ जाते हैं। जबकि कृषि वैज्ञानिकों ने पौष्टिक अनाज में भारत में आठ प्रकार के कदन्न- बाजरा, ज्वार, रागी, कांगनी, झिंगौरी, कोदो व कुटकी और चिना को ही शामिल किया है। भारत सरकार के कदन्न विकास निदेशालय के निदेशक रहे डॉ. सुभाष चंद्र के मुताबिक, कुछ मिलेट्स इनसे भी छोटे आकार के होते हैं। पर गुणवत्ता में काफ़ी हल्के होने के कारण उनका उपयोग चारे के रूप में ही ज़्यादा किया जाता है। उनके मुताबिक, मिलेट्स का देसी नाम कदन्न ही है। पर इसकी पौष्टिकता को देखते हुए अब सारी दुनिया में ही इसे ‘पौष्टिक अनाज’ के रूप में जाना जाता है। शास्त्रों में कदन्न को न खाने योग्य अन्न कहा गया है। उस लिहाज़ से तो निदेशालय को अपना नाम बदल देना चाहिए। क्योंकि सन् 2018 में भारत सरकार ने भी कदन्न को पोष्टिक अनाज के रूप में दर्ज़ कर दिया है। पूरी दुनिया में मोटे अनाज की माँग बढऩे का एक बड़ा कारण नीति निर्धारकों, वैज्ञानिकों को यह समझ आ जाना है कि जलवायु परिवर्तन और कुपोषण जैसी समस्याओं से निपटना है, तो कम पानी, कम खाद या बिना खाद, कठोर भूमि व गर्म जलवायु में भी आसानी से उग आने वाले पौष्टिक अनाज व घास (चारे वाली वे फ़सलें, जिनसे अनाज मिलता है) पर फिर से लौटना होगा। उसे उत्पादन व आहार में शामिल करना होगा। रासायनिक खाद से उत्पन्न लासा (गुलेटन) युक्त गेहूँ, धान की उपज और ग्रीन हाउस गैस (पौधाघर वायुरूप द्रव्य) उत्पन्न करने वाली खेती के हमारे तरीक़ों से न तो जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटा जा सकता है और न ही कुपोषण व ग़रीबी की समस्या से। खेती के ये तरीके जनहित में नहीं हैं और प्रकृति की जैव विविधता को भी खत्म करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र भी मानकर चल रहा है कि आज दुनिया के सामने समस्या कम उत्पादन की नहीं, समुचित वितरण व उचित पोषण की है। यही कारण है कि अगले सितंबर महीने में होने जा रहे संयुक्त राष्ट्र के ‘खाद्य प्रणाली विश्व सम्मेलन’ में एक पूरा सत्र मिलेट्स पर है। उसमें मिलेट्स को सामान्य भोजन में शामिल किये जाने पर चर्चा तो होगी ही, विभिन्न देशों के स्थानीय मिलेट्स से बने परम्परागत व्यंजन भी भागीदारों को इस सम्मेलन में खाने को मिलेंगे। इसके बाद 2023 में फिर मिलेट्स पर हमें कुछ-कुछ पढऩे और सुनने को मिल जाएगा। क्योंकि संयुक्त राष्ट्र ने उसे ‘मिलेट-वर्ष’ घोषित किया है। इसका प्रस्ताव भारत ने ही किया था, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने मान लिया। राजनय के स्तर पर तो यह निश्चय ही बड़ी सफलता है। पर बड़ा सवाल यह है कि इस वर्ष को भारत अपने पक्ष में कितना कर पाएगा?
सन् 2018 भारत में ‘मिलेट ईयर’ घोषित किया गया था। पर वह सरकारी दफ़्तरों, फाइलों और कुछ सभा-सेमिनारों में ही सैर करते हुए पूरा हो गया। किसान या आमजन को उसका कुछ पता ही नहीं चला। एक शोध के सिलसिले में वित्त वर्ष 2019-2020 में दक्षिण गुजरात के आदिवासी गाँवों में किसानों से हुई बातचीत में किसी एक ने भी नहीं कहा कि कृषि विभाग के किसी भी अधिकारी ने उनसे रागी, ज्वार या वरई का क्षेत्र बढ़ाने या इन अनाजों के संशोधित बीज बोने के लिए उनसे कहा हो। वे रागी और वरई की पोषकीय गुणवत्ता व उसके महत्त्व को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं, और इसीलिए उन्हें अपने आहार से अलग करने की सोचते भी नहीं। पर इन अनाजों का मूल्य बाज़ार में बढ़ गया है, यह वे नहीं जानते थे। अपनी साल भर की ज़रूरत के मुताबिक इन्हें कोठार (कुठिया) में भर लेने के बाद वे अतिरिक्त उपज को स्थानीय बाज़ार में बेच देते हैं, जिससे मामूली नक़दी उनके हाथ में आ जाती है। वे तो धान भी इसी तरह बेचते हैं।
पर उसके दाम कुछ ज़्यादा मिल जाते हैं। दाम ज़्यादा मिलने का ही नतीजा है कि दक्षिण गुजरात के पूरे आदिवासी क्षेत्र में धान और गन्ने का रक़बा बढ़ता जा रहा है और रागी, ज्वार व वरई जैसे स्थानीय अनाजों की उपज लगातार कम हो रही है। बावजूद इसके कि वे इन उत्पादों के महत्त्व को जानते हैं। सूरत के साथ लगे आदिवासी क्षेत्र में तो रागी ग़ायब ही हो चुकी है।
वलसाड़ ज़िले के एक किसान ने बताया- ‘रागी, उड़द और तुअर की दाल हमारा मुख्य भोजन है। इसे खाने से हम बीमार नहीं होते। चावल (धान) ज़्यादा नहीं खाते। गर्भवती महिला को अगर कमज़ोरी आने लगे, तो उसे वरई ही खिलायी जाती है। पर इसको हम बहुत-ही थोड़ी मात्रा में उगाते हैं।’
अपने पौषकीय गुणों के कारण आज रागी शहरी बाज़ार में लोकप्रिय हो रही है और काफ़ी महँगी भी मिलती है। पर ग़रीब किसान को उसका लाभ नहीं मिल रहा। जब तक सरकार किसान को इन अनाजों का दाम नहीं दिलवाती, वे गेहूँ, धान के मोह से मुक्त नहीं हो सकते। इस बारे में डॉ. सुभाष चंद्र का कहना है- ‘सभी प्रकार के मिलेट्स में बीजों के संशोधन, उपज के प्रसंस्करण और तकनीक के क्षेत्र में काम किया जा रहा है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् व हैदराबाद में स्थित मिलेट्स शोध केंद्र इस काम को कर रहे हैं। हैदराबाद में ही सेंटर फॉर एक्सीलेंस महिलाओं के साथ मिलकर रेडी-टू-ईट उत्पाद तैयार करने के प्रयास में लगा हुआ है।’ साफ़ है कि केंद्र सरकार अभी तकनीक विकास की उलझनों में ही उलझी हुई है। पर उधर ओडिशा सरकार ने पीडीएस, आँगनबाड़ी और मिड-डे मील का हिस्सा बनाकर मिलेट्स, ख़ासकर रागी को आमजन के आहार में शामिल कर दिया है। वह रागी का रक़बा बढ़ाने में भी कामयाब हो गयी है। पर राज्य के अन्य मिलेट्स की ओर उसका भी ध्यान नहीं है। इससे फिर एक ही अनाज की अधिकता की समस्या खड़ी हो जाएगी।
(लेखिका वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)