मायावती अब पहले सी ताकत नहीं

प्रधान मायावती गठबंधन करके न तो किसी राजनीतिक पार्टी की जीत की संभावना को पुख्ता कर सकती हैं और न किसी जीत रही पार्टी को हरा ही सकती हैं। यह बात साबित हुई है बहुजन समाज पार्टी अपने चुनावी नतीजों से। 2003 और 2017 के दौरान तो वे उत्तरप्रदेश राजय की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं।

बसपा सुप्रीमो मायावती ने राजनीतिक पर्यवेक्षकों को तब चकित कर दिया जब उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी की जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ के साथ विधानसभा चुनावों के लिए गठजोड़ किया। साथ ही राजस्थान और मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनावों में अकेले उतरने का संकल्प किया।

हो सकता है विपक्ष के उस शिविर में मायावती के इस फैसले से दुख हुआ हो जो गठबंधन की खबरों से खुश होते हों। उनकी सोच में यह बात रही होगी कि मायावती के साथ मिलने से न केवल विधानसभा बल्कि आम चुनाव में भी विजय मिलेगी। उधर भाजपा नेतृत्व वाले खेमे खुशी की लहर दौड़ गई होगी कि बहुजन ने स्वतंत्र राह थामी यानी हमारा साथ दिया उनके वोट करवा दिए।

यह सारी बातचीत मायावती के उस कथित करिश्मे पर आधरित है कि जाटवों में भी दलितों के वोट उनकी अपनी झोली में ही आते हैं। जो लोग बसपा के साथ हैं उन्हें भरोसा हैं कि वे दलित वोट को उस उम्मीदवार को दिला सकती हैं जिनके पक्ष में वे हैं।

यह बात तब कुछ सही रही होगी जब मायावती उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री चौथी बार 2007 में बनी वह भी बहुमत से। मायावती ने 403 सीटों की विधानसभा में 206 सीटें जीती थीं। उन्हें चुनाव में 34.43 फीसद वोटे मिले थे। अपने राजनीतिक जीवन वे शीर्ष पर थीं। उनके मन में अब प्रधानमंत्री की कुर्सी पाने का सपना था। 2009 की लोग सभा चुनावों में बसपा को बीस सीटें मिलीं और 27.42 फीसद लोकप्रिय वोट।

इसके बाद तो यानी 2009 के बाद मतदाताओं पर बसपा की कोई पकड़ नहीं रही। वे 2012 विधानसभा चुनाव हारीं और 2014 के आम चुनाव में तो उनकी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी। बसपा को 19.60 फीसद मत मिले जो 2009 में 7.82 फीसद कम है। विधानसभा चुनाव 2017 में हुए। इसमें बीएसपी को 19  सीटें मिली और उसने 22.2 फीसद मत पाए। मायावती का यह सबसे बुरी चुनावी पर फार्मेस था। बसपा के संस्थापक अध्यक्ष काशीराम की मौत 2006 में हुई थी। उसके बाद आम सहमति से वे पार्टी की अध्यक्ष बनीं।

बसपा, दरअसल हिंदी राज्य उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश राजस्थान और छत्तीशगढ़ में ही कुछ सक्रिय है। उत्तराखंड में बसपा को सात सीट (10.93 फीसद मत) , 2003 में इसे आठ सीटें (11.76 फीसद वोट), 2007 के चुनावों में बसपा सिर्फ तीन सीटें जीत सकी जबकि इसका वोट प्रतिशत बढ़ कर 12.19 फीसद हो गया। फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा एक भी सीट तो नहीं पा सकी। इसका वोट घट कर सात फीसद रह गया।

उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पिछले चुनावों में बसपा के अपने आधार क्षेत्र खासे कमजोर हुए हैं। मध्यप्रदेश में पार्टी को 2003 में 10.61 फीसद वोट मिले। जबकि यह 2008 में 9.08 फीसद से 2013 में 6.42 फीसद रह गया। छत्तीसगढ़ में यह गिरावट 2003 में 6.94 से 6.12, 2008 में 4.29 रहा। राजस्थान में 6.40 से 7.60, 2008 में 3.48 से 2013 में।

अब चुनावी नतीजों को फिर देखें तो यह पता चलता है कि हिंदी राज्यों में मतदाता जनरल वर्ग के ही है और अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित स्क्रीन पर चैक करना पड़ेगा लोग नहीं है। मिसाल के तौर पर देखें मध्यप्रदेश में 227 सीटों पर 2008 में 194 सीटों पर बसपा के उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हुई। राज्य की कुल 228 सीटों में से 227 पर इसने चुनाव 2013 में लड़ा और 194 सीटों पर इसे हार मिली।

राजस्थान में 2003 में बसपा ने 124 सीटों पर चुनाव लड़ा। उसे दो सीटों पर जीत मिली। इसे 110 सीट पर अपनी जमानत राशि गवानी पड़ी। लेकिन 2008 में इसका प्रदर्शन ठीक रहा। तब मायावती पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश में सत्ता में थीं। बसपा ने 199 सीटों पर चुनाव लड़ा। इसे कुल छह सीटें मिलीं। चुनावी फीसद 7.60 रहा जबकि 172  सीटों पर इसे हार मिली। जब उत्तरप्रदेश में 2012 में वह हारी तो बसपा ने 195 सीटों पर चुनाव लड़ा इसमें भी तीन सीटें ही मिलीं। वोट फीसद भी लुढ़क कर 3.7 फीसद पर आ गया। बसपा को

182 सीटों पर अपनी जमानत राशि गंवानी पड़ी।

छत्तीसगढ़ में 2003 में बसपा ने 54 सीटों पर चुनाव लड़ा। दो पर जीत हुई। 4.45 फीसद जनरल वोट भी रहे। लेकिन 46 सीट पर पराजय। पार्टी की तस्वीर कुछ सुधरी वह भी 2008 में। इसने सारी 90 सीट पर चुनाव तो लड़ा लेकिन इसके मत सिर्फ 6.11 फीसद ही बढ़े। फिर 2013 में इसका अधारा और सिकुड़ा। 90 सीटों पर लड़कर भी यह सिर्फ एक सीट पर जीत सकी और मिले वोटों का फीसद 4.27 पर अटका। यह 84 सीटों पर अपनी जमानतें गंवा बैठी।

ये तमाम आंकड़े यह बताते हैं कि मायावती की देश की दलित जनता पर जो पकड़ है और उसे कोई हिला भी नहीं सकता। यह सिर्फ खुद को संतुष्ट रखने की बात है। कुछ दिनों पहले सेंटर फार द स्टडी ऑफ डेनलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने 2013 के विधानसभा चुनावों के बाद मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ मेें मायावती की लोकप्रियता जानने की कोशिश की। मध्यप्रदेश में कांग्रेस को 33.1 फीसद और भाजपा को 35.8 फीसद से साफ होता है कि इन पार्टियों को अनुसूचित जाति के मतदाताओं का समर्थन ज्य़ादा है। जबकि बसपा को सिर्फ 22.4 फीसद मत हैं।

छत्तीसगढ़ में 11.5 फीसद दलितों ने कहा कि उन्होंने बसपा को वोट दिया। जबकि 48.7 फीसद ने कांग्रेस को दिया। राजस्थान ने सिर्फ 19.5 फीसद जाटन ही मायावती की खास कांस्टियुएंसी के जान पड़े उन्होंने खुलकर कहा कि वे मायावती के ही साथ हैं। दलितों की दूसरी उपजातियों के लोगों ने कतई यह नहीं कहा कि उन्होंने बसपा को वोट दिया है। जबकि इसके ठीक उलट कांग्रेस को ज्य़ादा बेहतर यानी 46 फीसद समर्थन मिला। इनमें जाट व और दूसरे 44 फीसद लोग दूसरे अनुसूचित जातियों के थे।

इन आंकड़ों से जाहिर है कि क्यों कांग्रेस का राज्य नेतृत्व बसपा के साथ गठबंधन के लिए सहज नहीं हो पाता। खासतौर पर जब बसपा नेता मायावती ज्य़ादा सीटें मांगती तो हैं लेकिन जमीनी सच्चाई से उनकी मांग मेल नहीं खाती।

राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में फिर चुनावों में मायावती की भागीदारी उन्हें राजनीतिक सच्चाईयों के प्रति रूबरू कर पाएंगी। जिससे वे आम चुनाव के लिहाज से गंठजोड़ कर सकें।