मायावती: मायामोह

फोटोः प्रमोद सिंह असिकारी
फोटोः प्रमोद सिंह अधिकारी

सात जुलाई, 2013. अपने ट्रेडमार्क दलित-ब्राह्मण सम्मेलनों के समापन के अवसर पर बसपा अध्यक्ष मायावती ने लखनऊ में एक बड़ी रैली आयोजित की थी. गर्मी और धूल-धक्कड़ से पस्त 50 हजार का जनसमूह इसी अवसर का साक्षी बनने के लिए उत्तर प्रदेश के कोने-कोने से लखनऊ पहुंचा था. मायावती मंच पर निर्धारित समय से थोड़ी देर से पहुंची थीं. उनके आने के साथ ही मंच से पंडितों का एक समूह वैदिक मंत्रोच्चार करने लगा. घंटे-घड़ियाल की गूंज और शंखनाद के चलते रैली स्थल पर किसी धार्मिक सीरियल का सा दृश्य उपस्थित हो गया था. इन सब औपचारिकताओं से निपटने के बाद जब माहौल थोड़ा शांत हुआ तब भीड़ से एकसुर नारा लगना शुरू हुआ- ‘औरों की मजबूरी है – मायावती जरूरी है’.

यह उन मायावती की चुनावी रैली में हो रहा था जिन्होंने एक समय मनुवाद और वैदिक परंपराओं की हर संभव शब्दों में निंदा की थी. जो नारा गूंज रहा था उसका संकेत यह था कि आज की तारीख में मायावती ब्राह्मणों की मजबूरी हैं. उसी सभा में मायावती ने लोकसभा के 38 उम्मीदवारों के नाम भी घोषित किए.

इनमें 21 ब्राह्मण और 17 दलित थे. इस सभा में मायावती ने जो भाषण दिया उसका सार यही था कि सब मिलकर यदि कोशिश करें तो इस बार वे केंद्र की सत्ता में जरूर पहुंचेंगी. दूसरे शब्दों में कहें तो उनकी आकांक्षा सर्वसमाज के सहयोग से दिल्ली की कुर्सी पर काबिज होने की है.

मायावती उन कुछेक नेताओं में से हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री पद की अपनी इच्छा को कभी दबाया-छिपाया नहीं. 2009 के लोकसभा चुनावों से पहले भी उन्होंने ऐसी ही इच्छा जाहिर की थी और अब 16वीं लोकसभा के लिए होने वाले आम चुनाव से ठीक पहले उनकी यह इच्छा फिर से बलवती हो गई है. मायावती का प्रधानमंत्री बनना कई लिहाज से ऐतिहासिक होगा. वे महिला हैं, दलित हैं, क्षेत्रीय पार्टी की मुखिया हैं और इन सबसे ऊपर वे ‘सेल्फमेड’ हैं. फिलहाल उनके कद का दूसरा कोई भी दलित नेता भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में नजर नहीं आता. बाबू जगजीवन राम के बाद वे इकलौती दलित नेता हैं जो दिल्ली की शीर्ष सत्ता के इतने करीब आती दिखती हैं. उनके पास पीएम पद के सपने देखने की पर्याप्त वजहें भी हैं. पहली वजह है उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें. मायावती की रणनीति इनमें से कम से कम 40-45 सीटें जीतने की है. ऐसी स्थिति में बहुत संभव है कि केंद्र में बिखरा हुआ जनादेश आए. किसी एक पार्टी या गठबंधन का बहुमत न आने की सूरत में 40-45 सीटों वाली मायावती पीएम पद की रेस में खुद-ब-खुद शामिल हो जाएंगी. दरअसल मायावती समेत तमाम वे क्षेत्रीय नेता जो शीर्ष पद की इच्छा रखते हैं, उनकी उम्मीदों का आधार यही है-अपने लिए अधिक से अधिक सीटें और साथ में राष्ट्रीय स्तर पर एक क्षीण जनादेश.

मायावती के पास दलितों का एक समर्पित वोटबैंक है, लेकिन अकेले यह वोटबैंक उन्हें इतनी सीटों पर कामयाबी नहीं दिला सकता. जबकि अगर दलित-ब्राह्मण गठजोड़ का फार्मूला कामयाब हो जाता है तो इतनी सीटें बहुत आसानी से जीती जा सकती हैं. स्थितियां कई लिहाज से मायावती के पक्ष में हैं. प्रदेश में सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी की दशा और आत्मविश्वास रसातल को छू रहा है. पिता-पुत्र की सरकार के प्रति एक बार फिर से उसी तरह के मोहभंग की स्थिति पैदा हो गई है जैसी 2007 में थी. तब विधानसभा के चुनावों में मायावती स्वाभाविक पसंद और विजेता बनकर उभरी थीं. इस बार मुलायम सिंह और समाजवादी पार्टी के खिलाफ जो चीज जा रही है वह है मुसलमानों का उनसे पूरी तरह मोहभंग. अगर इस अलगाव का एक हिस्सा मायावती अपने साथ जोड़ पाती हैं तो वे दिल्ली की सत्ता के एक कदम और करीब पहुंच जाएंगी. मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों के दो स्वाभाविक लाभार्थी बसपा और भाजपा ही दिखाई पड़ते हैं. हालांकि यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की स्थिति है, मध्य और पूरब के इलाकों में उन्हें मुसलमानों से जुड़ने के गंभीर प्रयत्न करने होंगे.

उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था वह मुद्दा है जिसकी सवारी मायावती आसानी से कर सकती हैं. इस मोर्चे पर देखा जाए तो उनका रिकॉर्ड ठीक-ठाक है. सपा के छुटभैये बेलगाम नेता और कार्यकर्ता फिर से सड़कों पर निकल चुके हैं. प्रदेश में उनके उपद्रव की घटनाएं सुर्खियां बन रही हैं. एक वरिष्ठ समाजवादी नेता का एक बयान यहां फिर से मौजूं हो गया है- ‘सपाई कार्यकर्ता को तब तक यह विश्वास नहीं होता कि सूबे में उसकी सरकार है जब तक वह किसी दरोगा को दो तमाचा न मार ले.’

पर राजनीति को सिर्फ आंकड़ों से परिभाषित नहीं किया जा सकता. 2009 के लोकसभा चुनावों में मायावती ने कुल 20 ब्राह्मण, छह ठाकुर और 14 मुसलमान उम्मीदवारों को टिकट दिया था. यानी 80 में से 40 सीटें गैरदलितों को दी गई थीं. लेकिन इनमें से सिर्फ 13 पर बसपा को जीत हासिल हुई. बसपा उन चुनावों में सिर्फ 20 सीटों पर सिमट गई थी. ऐसा नहीं है कि स्थितियां पूरी तरह से मायावती के अनुकूल हैं. आज भी उनके पीएम बनने की राह में कुछ वाजिब अड़चनें बनी हुई हैं. मसलन उनका हद से ज्यादा एक जाति और पहचान की राजनीति पर केंद्रित होना. वैचारिक स्तर पर उनकी नीतियों में ज्यादा स्पष्टता नहीं है. आर्थिक और अंतरराष्ट्रीय मसलों पर उनकी नीतियों की डोर पाकिस्तान और चीन से खतरों तक जाकर सीमित हो जाती है. और दिल्ली के गलियारों में ग्रोथ और सेंसेक्स की भाषा बोलने-समझने वाले उन्हें शायद ही खुले दिल से स्वीकार करें.

बीती 15 जनवरी को लखनऊ में हुई रैली में उन्होंने मध्यवर्ग और उद्योग जगत की आंखों के तारे नरेंद्र मोदी को संकीर्ण मानसिकता वाला आदमी बताते हुए उनके पीएम बनने की किसी भी संभावना को दरकिनार कर दिया. अगर मायावती के इस आरोप का विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि मायावती खुद भी इसी आलोचना के दायरे में आती हैं. अंतर सिर्फ इतना है कि उनकी संकीर्णता जाति के दायरे में सीमित है और जातिगत संकीर्णता को अभी तक सांप्रदायिकता जितनी बड़ी बुराई नहीं माना गया है.

मायावती की सात रेसकोर्स की दौड़ में एक और बड़ी बाधा है तीसरे मोर्चे की व्यावहारिकता. यह अवसरवादिता का निपट उदाहरण है. इसकी परिकल्पना उन स्थितियों पर आधारित है जिसमें चुनाव के बाद सारे क्षेत्रीय दल अच्छी खासी सीटें जीतकर लाएंगे, दोनों राष्ट्रीय पार्टियां फेल हो जाएंगी, तब ये सारे दल मिलकर एक नई सरकार की रूपरेखा तय करेंगे. चुनाव से पहले कोई भी एक साथ राष्ट्रीय गठजोड़ बनाकर चुनाव लड़ने को तैयार नहीं है. अवसरवाद की यह कड़ी उत्तर प्रदेश में आकर बुरी तरह से उलझ जाती है. यहां तीसरे मोर्चे के उतने ही स्वाभाविक साझेदार मुलायम सिंह यादव भी हैं. ऐसे में अगर चुनाव के बाद सरकार बनने की कोई संभावना बनती भी है तो पीएम पद के लिए ये दोनों एक-दूसरे को कभी  स्वीकार नहीं करेंगे.

इस राजनीतिक समस्या के इतर मायावती के लिए दूसरी महत्वपूर्ण समस्या है उनका रहस्यवादी जीवन और तानाशाही रवैया. छह-छह महीने के लिए वे पूरे राजनीतिक परिदृश्य से ही ओझल रहती हैं. किसी को भी पता नहीं रहता कि पार्टी में चल क्या रहा है, उनके खास सिपहसालारों को भी नहीं. एक जननेता की छवि के लिहाज से यह बड़ी विपरीत स्थिति है. कांशीराम के अवसान के बाद मायावती के पास पूरे देश के दलित आंदोलनों को लामबंद करके उन्हें देशव्यापी ताकत बनाने का ऐतिहासिक अवसर था, लेकिन ऐसा कोई भी प्रयास उनकी तरफ से कभी देखने को नहीं मिला. बसपा उत्तर प्रदेश के बाहर दिल्ली और मध्य प्रदेश की इक्का-दुक्का सीटों पर सिमट कर रह गई. 2006 में कांशीराम के देहांत के बाद से बसपा ने एक भी व्यापक स्तर का अभियान नहीं चलाया है. जनता से जुड़ाव के नाम पर छठे-चौमासे मायावती लखनऊ में रैलियां करके अपनी जिम्मेदारियों की इतिश्री मान लेती हैं. मायावती से मिलना-जुलना उनके पार्टीजनों के लिए ही एवरेस्ट फतह के समान है. इसी तरह के रिश्ते उन्होंने मीडिया से भी बना रखे हैं. लंबे समय बाद 15 जनवरी को पहली बार अपने संबोधन में उन्होंने मीडिया को उत्तर प्रदेश सरकार के कामकाज की आलोचना के लिए तारीफ के दो शब्द कहे हैं.

एक और समस्या वैकल्पिक नेतृत्व को लेकर है. पार्टी में दूसरी पांत का एक भी चेहरा अभी तक उभर कर सामने नहीं आया है. जानकार इसकी वजह मायावती के असुरक्षात्मक व्यक्तित्व को मानते हैं. वे पार्टी के भीतर किसी भी समांतर नेतृत्व को उभरने नहीं देतीं. कांशीराम के बाद पार्टी के पास कोई वैचारिक मार्गदर्शक भी नहीं रहा है. डीएस फोर और बामसेफ के जमाने के ज्यादातर पुराने नेताओं को जिन्हें बड़े जतन से कांशीराम ने खोज-खोज कर इकट्ठा किया था उन्हें मायावती ने बीते दस-पंद्रह साल में एक-एक कर किनारे कर दिया है. राज बहादुर, रामसमुझ पासी और डॉ. मसूद जैसे तमाम नाम इस सूची में हैं. आज हालत यह है कि पार्टी में शीर्ष स्तर पर मायावती के अलावा एक भी पुराना और वैचारिक रूप से समर्पित नेता बचा नहीं है. केंद्र की राजनीति में इन चीजों का अपना एक महत्व होता है.

फिर भी मायावती अगर प्रधानमंत्री बनती हैं तो वह भारतीय राजनीति का ‘ओबामा मोमेंट’ होगा. एक वर्ग है जो मानता है कि अगर श्वेत बहुलता वाले देश में एक अल्पसंख्यक एफ्रो-अमेरिकन, अश्वेत राष्ट्रपति बन सकता है तो भारत में बहुसंख्यक आबादी वाले एक दलित को काफी पहले प्रधानमंत्री बन जाना चाहिए था.