मरू उत्सव के रूमानी रंग

अतीत के अभिशाप, गौरव और वर्तमान की सुरीली रुनझुन से सराबोर जैसलमेर एक विश्व विख्यात विरासत है। सूरज की रोशनी में दपदपाते सुनहरी आभा वाले भव्य र्कशों को शिखर पर धारण किये ‘सोनार िकला’ ही इस शहर की अनूठी पहचान है। हर साल सर्द मौसम में आयोजित होने वाला ‘मरू उत्सव’ परम्परागत नृत्य, संगीत, कला और बेजोड़ शिल्प के साँस रोक देने वाले नज़ारे सँजोये रखता है। थार के बालुई टीबों में खिले इस नैसर्गिक सौन्दर्य को निहारने के लिए वैश्विक सैलानियों की सबसे ज़्यादा भीड़ उलटती है।

विकास की राह में कुलाँच भरते इस शहर ने अकाल की वीभत्स त्रासदी भी भुगती है। इसके साक्ष्य शहर सेे 15 किलोमीटर दूर स्थित जीवाश्म पार्क में आज भी देखने को मिल जाएँगे। पश्चिम राजस्थान का द्वार कहे जाने वाले जैसलमेर को लेकर अगर सैलानियों में सबसे बड़ी कोई दीवानगी है तो, वो है जैसलमेर का िकला…. इसे ‘सोनार िकला’ के नाम से ही ज़्यादा पुकारा जाता है।

इतिहास के पन्ने पलटें, तो सात सौ साल पहले का अतीत करवट लेने लगता है। 12वीं शताब्दी में राजपूती शासक राव जैसल सिंह ने इसे  बसाया  था। लेकिन ‘इतिहास को खँगालें तो, इस बात के भी साक्ष्य मिलते हैं कि तुर्क आक्रांता खिलजी वंश के अलाउद्दीन खिलजी ने भी जैसलमेर को कब्ज़ाने की कोशिश की थी। तब भाटी राजपूतों से अलाउद्दीन खिलजी की ज़बरदस्त जंग छिड़ी थी। थार का यह इलाका मुगलों और भाटी राजपूतों के बीच कोई एक ही युद्ध का साक्षी नहीं है। बल्कि इसका एक लम्बा खूनी इतिहास रहा है। आिखरी जंग में जब फतह का सेहरा अलाउद्दीन के सिर पर बँधा, तो भाटी वंश के रजवाड़ी राजपूत कहीं और ठौर तलाशने चले गये। कई भाटी राजपूत, तो उस क्षेत्र में जाकर बस गये, जो अब पाकिस्तान में है। लेकिन बर्तानवी हुकूमत के दौरान भाटी राजपूतों ने फिर अपनी वापसी की। उस दौर में जैसलमेर मध्य एशिया, इजिप्ट और खाड़ी देशों के लोगों का आकर्षण केन्द्र बन चुका था। इसकी बड़ी वजह थी, जैसलमेर में अनेक व्यावसायिक और परम्परागत सांस्कृतिक मेले आयोजित होने लगे थे। ‘मरू उत्सव’ उसी की कड़ी है। ‘सोनार िकला’ यूनेस्को में दर्ज एक वैश्विक विरासत है। सूर्योदय और सूर्यास्त के दौरान सोनार िकले को एक रहस्यमयी आभा में छिपते-उभरते देखना अद्भुत लगता  है। इसका निर्माण स्थानीय वास्तुकारों ने किया था। ‘दिवंगत प्रसिद्ध िफल्मकार सत्यजीत रे तो सोनार िकले के अद्भुत रहस्य से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इस पर वृत्त चित्र भी बनाया है।

12वीं शताब्दी में जैसलमेर कैसा था? विगत वास्तुशिल्प के वैभव की अनेक कहानियाँ यहाँ छतरियों, महलों, हवेलियों और जलाशयों में बिखरी पड़ी हैं। सबसे मनोरम और आकर्षक है- बड़ा बाग स्थित ‘व्यास छतरी’। यह छतरी पोराणिक धर्म ग्रन्थ महाभारत के रचयिता वेदव्यास की स्मृति को ताज़ा करती है और उन्हीं को समर्पित है।

अगर सैलानियों को जैसलमेर में सबसे ज़्यादा कोई चीज़ लुभाती है, तो इसकी बड़ी वजह है- यहाँ से नज़र आने वला सूर्यास्त का अद्भुत नज़ारा! लोहित होता सूर्य और उसके सामने पसरी सुनहरी बलुई रेत में सिमटी लालिमा! कुल मिलाकर एक सुनहरे सूर्यास्त के अद्भुत दर्शन का नज़ारा यहाँ देखने को मिलता है। लोक संगीत के साथ ताल मिलाती अलगोझा की तान पर थिरकते नर्तकों का दल इस अवसर के रोमांच को दोगुना कर देता है। बड़ा बाग के नाम से चर्चित इस क्षेत्र में महाराजा जय सिंह समेत राज परिवार के दिवंगत पुरोधाओं के स्मारक भी मिल जाएँगे। यहाँ छतरियों का अद्भुत वास्तुशिल्प ठिठकने को बाध्य कर देता है।

जैसलमेर में भी हवेलियों की बहुतायत मिल जाएगी। फर्क सिर्फ इतना ही है कि इन्हें व्यावसायिक नहीं बनाया गया। पटवों की हवेली, सलीम सिंह की हवेली, नथमल जी की हवेली, ऐसी ही हैं। इनकी दीवारों और आस्तानों पर उकेरी गयी मिनिएचर पेंटिग्स (लघु चित्रकला) सैलानियों को लुभाती है। पथरीले रंगों से इनका चित्रण तो बेहद चकित करता है। पटवों की हवेली यहाँ ज़्यादा विख्यात है। सँकरे से गलियारे में पाँच मंज़िला हवेली का निर्माण कौशल ही चकित करता है। लेकिन जिस तरह कई जगह चित्रित पेंटिंग्स खुरच दी गयी हैं; शीशे उखड़ चुके हैं; उससे लगता है ति पुरातत्त्व विभाग को इनकी सार-सँभाल की िफक्र नहीं है।

मंदिरों की शृंखला में पेगोड़ा की मानिंद बना हुआ ‘बादल महल’ ताज़िया टॉवर की तरह लगता है। पाँच मंजिला बादल महल का निर्माण-कौशल को देखते हुए लगता है कि शायद इसे किसी मुस्लिम वास्तुकार ने बनाया होगा। जैन मंदिर का निर्माण-कौशल 12वीं और 15वीं शताब्दी की वास्तुकला की याद ताज़ा करता है। सभी मंदिर किसी-न-किसी जैन तीर्थंकर की स्मृति में बनाये गये हैं। इनका शिल्प प्रख्यात देलवाड़ा के वास्तु कौशल की याद ताज़ा करता है। जैसलमेर से करीब 125 किलोमीटर दूर स्थित तनोट माता मंदिर जाने का लोभ तो शायद ही कोई विस्मृत कर पाता होगा। उन्हें श्रद्धालु हिंगलाज माता का दर्जा देते हैं। हिंगलाज माता की चमत्कारों की अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान तानोट पूरी तरह घिर गया था। लेकिन सैकड़ों बमों की बरसात के बावजूद मंदिर को खरोंच तक नहीं आयी थी। इस चमत्कार ने तनोट माता के प्रति लोगों की श्रद्धा को दोगुना कर दिया। इस मंदिर की देखरेख बॉर्डर पर तैनात सुरक्षा सेना करती है। जैसलमेर मार्ग पर ही पड़ता है- प्रसिद्ध रामदेवरा मंदिर। अधिकांश लोगों की मान्यता है कि यह भगवान राम का मंदिर है। लेकिन वास्तव में यह मंदिर संत बाबा रामदेवजी का है।

विज्ञान के इस युग में जब लोग परलोक और आत्माओं के अस्तित्व को मानने को तैयार नहीं, कुलधारा का रहस्य उनके लिए बड़ी चुनौती है। कुलधारा जैसलमेर से करीब 18 किलोमीटर दूर स्थित है। बड़ी रहस्यमय दास्तान समाये हुए है यह खंडित कस्बा। कुलधारा 18वीं शताब्दी की अजीबोगरीब दास्तान कहता है। इसका िकस्सा एक सुन्दर लडक़ी, एक विलासी मंत्री और उसके अत्याचारों से भडक़े लोगों के बीच छिड़ी जंग का है। पता नहीं क्या हुआ कि एक ही रात में सब खत्म हो गया। पूरा कस्बा वीरान हो गया। 80 गाँवों वाला कस्बा एक ही रात में श्मशान में तब्दील हो गया। उस खौफनाक रात के बाद किसी को भी जीवित नहीं देखा गया। कस्बा आज भी वीरान पड़ा है। इस कहानी को जानने के लिए सैलानी इतने दीवाने हैं कि वहाँ जाने की कोशिश तो करते हैं, लेकिन रात को वहाँ ठहरने की कोई भी हिम्मत नहीं जुटा पाता। बहरहाल, कुलधारा सैलानियों के लिए आकर्षण तो है ही, राजस्व भी उलीचता है। डेजर्ट नेशनल पार्क भी सैलानियों से अटा रहता है। यहाँ पशु-पक्षियों की अनगिनत और अद्भुत प्रजातियाँ देखने को मिल जाएँगी। झीलों, तालाबों के लिए बहुचर्चित गढ़सीसर का निर्माण 14वीं शताब्दी में हुआ था। इसे महारावल गढ़सी सिंह ने बनवाया था, ताकि बंजर भूमि में सिंचाई हो सके। झील के इर्द-गिर्द देवालयों की जैसे कतार-सी बन गयी है। नतीजतन पर्यटकों के अलावा श्रद्धालुओं के लिए भी यह तीर्थस्थल बन गया है। जैसलमेर के बाहरी पश्चिम इलाके में बनी हुई अमर सागर झील, अमर सिंह भवन को लेकर ज़्यादा चर्चा में है। 17वीं शताब्दी में बनाये गये अमर निवास भवन के साथ तालाब और कुएँ भी बने हुए हैं। सभी जलाशय भगवान शिव को समर्पित हैं। इनके निर्माण में वास्तुकला का अद्भुत शिल्प झलकता है। सैलानी दीवानों की तरह इन पर टकटकी लगाये रहते हैं।

थार में बरसते हैं 75 करोड़

ठिठुराने वाली सर्द रातों में जब लोग गर्म कपड़ों में दुबकते हैं या अलाव तापते दिखाई देते हैं, उस समय जैसलमेर की दुनिया में गज़ब-सी चमक आ जाती है। नये साल की अगवानी में पलक-पावड़े बिछाये स्वर्ण नगरी जैसलमेर में इन दिनों ‘मरू उत्सव’ की धूम रही। पर्यटन सीजन की धूम है। 5 जनवरी तक यही आलम रहा। हालाँकि पर्यटक तो अभी भी जमे हैं। जानकारों के अनुसार इस दौरान पर्यटन व्यवसाय में हर साल अनुमानित रूप से 75 करोड़ बरसते हैं। यह पैसा होटलों से लेकर रिसोट्र्स और बड़े हैण्डी क्राफ्ट्स शोरूम से लेकर गाइड और थडिय़ों तक पर खर्च होता है। इस बार 20 दिसंबर से 5 जनवरी तक तकरीबन 50 हज़ार सैलानी जैसलमेर भ्रमण पर पहुँचे। वैकेशन टूरिज्म ने जैसलमेर में पुख्ता जड़ें जमा ली हैं। ऐसे में पर्यटन कारोबारियों को भी हर साल इस समय क इंतज़ार रहने लगा है। नये साल के कार्यक्रमों के लिए सम्बन्धित आयोजक अलग-अलग थीम बनाकर जश्न की तैयारियाँ कर रहे हैं। बड़े होटलों में राजस्थानी व्यंजनों की बहार रहती है। होटलों में न्यू ईयर का पैकेज अलग से तैयार हो जाता है। यह बात ज़्यादा दिलचस्प रहती है कि थार के बलुई इलाकों के धोरों में मौज़-मस्ती की जो रंगत बिखरती है, वह बदरंग भी हो जाता है। सवाल यह है कि इस मुद्दे पर शासन कितना सतर्क है?

मरू उत्सव में बिखरते हैं लोक रंग

सांस्कृतिक परम्पराओं के अम्बार पर खड़ा मरू उत्सव जैसलमेर की बलुई िफज़ाओं में महक और मौज़-मस्ती के इतने रंग घोलता है कि उनके आगे हर रंग फीका नज़र आता है। उत्सव में ‘लोक रंग’ जिस तरह ठिठोली करते नज़र आते हैं कि दिल करता है ताउम्र इन्हीं धोरों में बस जाया जाए। इस स्वादी उत्सव में कोलाहल के कितने रंग रचे-बसे होते हैं, शुमार करना मुश्किल है। उत्सव का हर रंग मन को बाँधने वाला होता है। यहाँ रात-भर मौज़-मस्ती चलती है। ऐसे िकस्से भी बहुत हैं कि अनेक विदेशी युवतियों ने प्रेम-प्यार में पडक़र यहीं पर प्रेम घरोंदे बना लिये। उत्सव में सबसे ज़्यादा जगमग तो नाइट लाइफ  में रहता है। महोत्सव का आगाज़ सोनार दुर्ग से किया जाता है। यहाँ से निकलने वाली शोभा-यात्रा विभिन्न रास्तों से होते हुए स्टेडियम पहुँचती है। शोभा यात्रा में सजे-धजे ऊँट-घोड़े जब थिरकते हुए चलते हैं, तो मन मचल-मचल उठता है। उत्सव में प्रतियोगिताओं का भी गज़ब आकर्षण होता है। स्पर्धाएँ लोक-संस्कृति पर आधारित होती हैं। मसलन मूँछ प्रतियोगिता, साफा प्रतियोगिता, रस्साकशी और मटका प्रतियोगिता। इन प्रतियोगिताओं की लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विदेशी सैलानी भी इनमें शिरकत करते नज़र आते हैं। सीमा सुरक्षा सेना का ‘कैमल टेटू’ उत्सव के विशिष्ट आकर्षण में गिना जाता है। उत्सव में भोपा, लंघाज और माँगणियारों का आलाप भी मन को बाँधने वाला होता है। सबसे बड़ा आकर्षण होता है-  ऊँट दौड़ ऊँट पोलो और ऊँटों की जिमनास्टिक! ऊँटों के निराले करतब सीमा सुरक्षा सेना के जवान ही दिखाते हैं।

सुरक्षा में सबसे ज़्यादा छेद

पर्यटन की विभिन्न विधाओं के बढ़ते प्रवाह और उसकी बदौलत उलीचते राजस्व के बावजूद सबसे बड़ा सवाल आज भी यथावत् है कि पर्यटकों की सुरक्षा के लिए राज्य सरकार ने अब तक क्या प्रावधान सुनिश्चित किये? जबकि ऐसी घटनाओं की कमी नहीं है, जब पर्यटकों ने बदसुलूकी, प्रताडऩा और यौन उत्पीडऩ तक की शिकायतें की हैं। पर्यटकों के मार्केटिंग रुझान को कभी नहीं समझा गया। जबकि इसकी गाइड लाइन का बाकायदा निर्धारण किया जाना चाहिए। राज्य सरकार के पास इस बात की बाकायदा योजना होनी चाहिए। पर्यटकों के लिए परिवहन की व्यवस्था ही अव्वल तो लचर है। सबसे बड़ी समस्या तो पर्यटकों के लिए लम्बे पर्यटन के दौरान आती है। उन्हें पैसों के लिए परेशान होना पड़ता है। नतीजतन असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है। राजस्थान सरकार ने बेशक डेजर्ट पर्यटन के विकास की बातें तो की है। इसके लिए 63.96 करोड़ की राशि भी स्वीकृत है। लेकिन यह आर्थिक प्रावधान नज़र क्यों नहीं आता? जैसलमेर पर्यटन में अगर कोई बड़ी समस्या है, तो गाइड और लपकों (ठगों) को लेकर भी है। गाइडों के लिए गाइडलाइन होगी भी, तो दिखाई क्यों नहीं देती? ठग तो जयपुर से लेकर जैसलमेर तक सक्रिय दिखाई देते हैं। एक महत्त्वपूर्ण बात है कि कुटीर उत्पादों के प्रति पर्यटकों के रुझान को मनमाने दामों पर भुनाना। क्यों इसे कोई देखने वाला नहीं है? जैसलमेर का मरू उत्सव का पर्यटन के सालाना कैलेंडर में क्यों दर्ज नहीं है? यह बात अखरने वाली है। हैण्डीक्राफ्ट्स को लेकर राज्य सरकार नये सॢकट्स का निर्माण करने की तैयारी में थी। खासकर मेगा डेजर्ट सॢकट को लेकर। लेकिन क्या हुआ? जैसलमेर जाने वाले पर्यटकों को लग्जरी कोच में कितनी छूट मिल रही है? इसका कोई खाका साफ नज़र नहीं आता? राज्य सरकार ने पर्यटकों की सुविधा के लिए ‘पर्यटक मित्र’ योजना बनायी थी। लेकिन पर्यटक मित्र नज़र क्यों नहीं आते? बहरहाल, पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए योजनाएँ तो बहुत हैं। लेकिन सवाल है कि ज़मीन पर कितनी उतरी हैं?