मन के मौसम पर क्या पाबंदी?

बाहर झमाझम बारिश हो रही है। अठखेलियाँ करतीं बूँदे अपने घर से बाहर निकल आयी हैं और मौसम बदलने की आहट दे रही हैं। मैं परीक्षा भवन में नये फूलों की तरह खिले चेहरों की निगरानी में तैनात हूँ…यह मानकर कि मेरी नज़र इन पर टिकी रहने तक ही ये ईमानदार हैं—‘नज़र हटी, दुर्घटना घटी’ की तर्ज पर! मन में सवालों का अंबार लगा है— क्या हर ओर नज़र रखकर ही ईमानदारी सुनिश्चित की जा सकती है? चाहे घर हो या राजनीति!

सामने ग्राहम फर्मेलो की किताब ‘द यूनिवर्स स्पीक्स इन न बर्स’ रखी है। कौन जाने यूनिवर्स किस भाषा में क्या कहती है? पर फिर भी बावरा मन जानना चाहता है कि ग्राहम फर्मेलो क्या सोचते हैं इस विषय पर? नियमानुसार इस तयशुदा व्यवस्था में किताबें पढऩा भी मना होता है, मानना भी होगा, पर मन ललचाता है किताब को देखकर! वैसे तो नहीं जैसे पद देखकर पाने के लिए किसी भी हारे या जीते प्रत्याशी का करने लगता है और वो शोर मचाने लगता है कि कोई तो खरीद लो, कई बार खरीदार मिल जाता है, कई बार बेचारे प्रत्याशी को कोई खरीदने वाला नहीं मिलता और उसे कुछ बरस तक इंतज़ार करना पड़ता है। मन को रोकना पड़ता है मुझे….’ मन के मते ना चालिए, मन के मते अनेक’ और फिर नज़र टिक जाती है, इन नन्हे-मुन्ने चेहरों पर, थोड़े डरे, थोड़े घबराये, अपनी उम्मीदों से लड़ते हुए और किसी अनजाने लक्ष्य के लिए नज़र टिकाये हुए ये अपने जीवन की इस छोटी-सी परीक्षा में टिके हुए हैं।

पर मेरे मन का सवाल वहीं टिका हुआ है। हर एक की ईमानदारी को किसी सहारे की ज़रूरत क्यों? क्या हर जीवन एक विक्रम है, जिस पर ईमान का बेताल टिककर उसे हर वक्त पूछता और चेताता रहे कि तुझे वही करना चाहिए, जो सही है? यह बेताल तो भीतर रहता है न! फिर यह विवेक भीतर से क्यों नहीं आता। इस सवाल ने खलबली मचायी हुई है। राजनीति में जिस तेजी से खरीद-फरोख्त बढ़ी है और विचारधारा को ताक पर रखकर खरीदे जाने और बिकने की होड़ मची है, उसने इस सवाल को और बड़ा कर दिया है। यहाँ नैतिकता का सवाल बेमानी हो जाता है। आप सही हैं या गलत, आपकी विचारधारा से हमारी सहमति है या नहीं, यह अलग सवाल है पर हर दल पहले अपनी विचारधारा की लड़ाई लड़ता था और उसी विचारधारा को लेकर जनता के सामने जाता था। जनता उसकी विचारधारा और उसकी सही-गलत छवि, मान्यताएँ और दलगत मान्यताओं के आधार पर उसे वोट देती थी। पर अब तो बहुत अजीब-सा तूफान मचा है चारों ओर। कौन, किसे खरीदेगा और कौन कब किसके हाथों बिक जाएगा? इसका सम्बन्ध अब तो न विचार से हैं न विचारधारा से! जनता कन्फ्यूज्ड है और मैं भी कि आिखर वोट किसे दिया था! व्यक्ति को, दल को, विचार को या विचारधारा को? सब गड्डमड्ड हो गया है।

तो क्या ईमानदारी सुनिश्चित करने के लिए ही होटल में बंद किया जाता है? ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ की तर्ज पर? कहीं चॉपर लाकर अपने विधायकों को सुरक्षित जगह पर पहुँचाना और कहीं होटलों में बन्द कर उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करना ही उनकी नैतिकता को बचाने का मानदंड बन गया है।

लोकतंत्र में बेईमानी को पहचानने के लिए जनता को केन्द्र माना जाता था और पद को लोभ, लालच और स्वार्थ से परे रखकर लोक कल्याण की भावना को केन्द्र में रखकर इसकी परख की जाती थी। गाँधी जी ने लोकतंत्र और राजनीति का सूत्र देते हुए कहा कि राजनीति लाखों पद दलितों को सुन्दर जीवन यापन करने के योग्य बनाने, मानवीय गुणों का विकास करने, स्वतन्त्रता, समानता, बंधुत्व को प्राप्त करने के लिए किया जाने वाला प्रयास है और यह कार्य केवल साधुओं द्वारा ही किया जा सकता है। लीजिए हो गयी ना समस्या! गाँधी जी ने राजनीति में दखल देने के लिए साधुता को अनिवार्य शर्त माना, पर उसके लिए उन्होंने निगरानी में रखकर साधुता बचाने की शर्त तो नहीं रखी! वैसे भी सुना है कि नंगे-बच्चे लोग सडक़ पर जब अपने अधिकारों के लिए उतरते हैं और समाज को बदलने की कोशिश करते हैं, तभी मौसम बदलता है। होटलों में बन्द करके, जिनसे बहुमत प्रमाणित करना-कराना पड़े, वे दुनिया को कैसे बदलेंगे! मुक्तिबोध ने लिखा था- ‘जो है उससे बेहतर चाहिए/पूरी दुनिया को साफ रखने के लिए मेहतर चाहिए।’ पर इस विचार के साथ तो लोग अब राजनीति में आते ही नहीं, वे तो शासक बनने आते हैं। लोकतंत्र इसी शासकीय व्यवस्था के प्रतिरोध में जन्मा था और अब लोकतंत्र राजतंत्र होना चाहता है। इतना गड्डमड्ड कैसे हो गया सब?

अच्छा एक बात यह भी है कि हम कह सकते हैं कि इसके िखलाफ कड़े कानून बनाने चाहिए और सख्ती से उसका पालन होना चाहिए। अक्सर डंडे के ज़ोर पर नीति और नियम बनाये जाने की रणनीति का हम सब कहीं जाने-अनजाने समर्थन करते ही रहे हैं। पर क्या उससे कुछ बदल जाता है। पहले ही कानूनों की कमी है क्या? समस्या यह है कि एक बनी-बनायी व्यवस्था के तहत हम सभी शब्दों को रट तो लेते हैं, पर उनके भीतर नहीं उतर पाते। पर प्रकृति तो हमें नियमितता और अनुशासन भी सिखाती है। अगर सूरज निकलने से मना कर दे या चाँद या हवा बहने से मना कर दे, तो क्या होगा हमारा? प्रकृति जब-जब उच्छृंखल हुई है, केवल तबाही हुई है। तो फिर उस प्रकृति का सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अंश, जिसे मनुष्य कहा जाता है, वह इतना गैर-अनुशासित और सीमाहीन कैसे होता जा रहा है? जब हमें आज़ादी मिलती है, तो हम सब उसकी सीमाओं को परिभाषित नहीं कर पाते, बल्कि उच्छृंखल, सीमाहीन हो जाते हैं। कहीं इसका सम्बन्ध हमारी शिक्षा व्यवस्था की खामियों से नहीं है। सोचा जाना चाहिए- हमारी शिक्षा व्यवस्था हमें शब्दों को रटाती तो है; पर उसका अर्थ नहीं समझाती। ‘तोतोचान’ जापान के तोमोए स्कूल में पढ़ती थी। उसके हेडमास्टर थे— श्री सोसाकु कोबायाशी। द्वितीय विश्वयुद्ध में तोमोए जलकर समाप्त हो गया। ऐसे में स्कूल कैसे बनायें? और पढ़ेगा कौन? जैसे सवाल एक बड़ा सवाल था; पर उससे भी ज़रूरी था हेडमास्टर साहब द्वारा दिया गया प्यार और संरक्षण से बनाया गया माहौल। वे मानते थे कि सभी बच्चे स्वभाव से अच्छे होते हैं। उनके अच्छे स्वभाव को उभारने, सींचने और सँजोने, विकसित करने की ज़रूरत है। स्वाभाविकता मूल्यवान है। चरित्र यथा सम्भव स्वाभाविकता के साथ निखरे।

बच्चों को पूर्व निश्चित खाँचों में डालने की कोशिश न करें। उन्हें प्रकृति पर छोड़ो। उनके सपने तुम्हारे सपनों से कहीं अधिक बड़े हैं।’ (तोतोचान पुस्तक से उद्धृत)

क्या ये तोतोचान के हेडमास्टर साहब का सूत्र हमें भविष्य की सही दिशा नहीं देता? आज हमारी शिक्षा पद्धति किसी भी चरित्र निर्माण पद्धति को प्रस्तावित नहीं करती, बल्कि एक अन्धी दौड़ में भागते हुए कुछ नौकरियों की दावेदारी करने लायक न्यूनतम डिग्री देने की घोषणा करती है। एक छोटे-से सेमेस्टर में •यादा-से-•यादा रटकर एक परीक्षा पास करने-भर को मूल्यांकन की बेहतरीन प्राविधि मान लिया गया है; जिसका उद्देश्य केवल पैसा और पैसा, •यादा पैसा-भर है। ‘दैहिक, दैविक, भौतिक ताप तीनों ही हम पर हावी हैं। ऐसे में अगर राजनीति को करियर मानकर जाने वाला आदमी अगर धन और बल देखकर उसकी ओर खिंचा चला जाता है, तो कहीं इसका दोष मूल में भी ढूँढना होगा। राजनीति को चरित्र निर्माण की जिस पाठशाला कहकर गाँधी जी ने हमें राजनीति का पाठ पढ़ाया था, वह आज एक बड़े बदलाव की माँग कर रही है। जन-नायकों, जन-प्रतिनिधियों की भूमिका संदिग्ध है। जनता के अधिकारों पर विस्तार से विचार की ज़रूरत है। लोकतंत्र की जिस परिभाषा में जाति, धर्म से हटकर सर्वधर्म समता की बात कही जाती है, उस नीति-निर्देशिका पर बल दिये जाने की ज़रूरत है। आज हमें ठहरकर सोचना चाहिए कि यश और अर्थ में से हटकर हम चरित्र की जिस गिरावट की ओर बढ़ रहे हैं, उसका असर अन्य जगहों पर भी दिखाई दे रहा है; सिर्फ राजनीति में ही नहीं, समाज के हर तबके में, हर ओर।

जो भी हो, पर मेरा विश्वास है कि होटलों में बन्द करके ईमानदार बनाने की मुहिम नहीं चलायी जा सकती, चाहे बात किसी भी दल की हो। अच्छा बहुत हुआ, वापस आयें न बारिश की बूँदों की तरफ। इन बूँदों को भी बादल ऐसे ही रोक लें तो? लो रुक ही गयीं बँूदें! लगता है, इन पर भी निगरानी बिठा दी गयी है—चलो घर के भीतर, जब कहा जाए, तब निकलना। ऐसे अविश्वास से मौसम बदल सकेगा और बदलेगा भी तो कब तक? बैठे ठाले परीक्षा भवन में सोच रही हूँ। अब पढ़ तो नहीं सकते, यहाँ पर मन के मौसम पर क्या पाबंदी? आप भी सोचिए कि जिस लोकतंत्र की लड़ाई और अपना संविधान पाने की लड़ाई हमने लड़ी थी, वहाँ से कहाँ आ गये हम?