मध्य प्रदेश के आदिवासियों के संवैधानिक अधिकार और कांग्रेस का भ्रामक वादा

मध्य प्रदेश में दिसंबर, 2018 में जब कांग्रेस की सरकार बनी थी, तो उस सरकार से मध्य प्रदेश के आदिवासियों को काफी उम्मीदें थीं। लेकिन वे उम्मीदें अब धुँधली हो रही हैं।

विधानसभा चुनाव 2018 के दौरान कांग्रेस ने अपने वचन पत्र में आदिवासियों से वादा किया था कि आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जाएगी एवं संविधान में प्रदत्त पाँचवीं अनुसूची, पेसा कानून 1996, वनाधिकार कानून 2006 का पालन किया जाएगा। ये सभी बातें कांग्रेस के वचन पत्र में पेज 24 एवं 25 पर लिखी हुई हैं। वचन-पत्र के इन्हीं वादों पर मध्य प्रदेश के आदिवासियों ने कांग्रेस को दिल खोलकर वोट दिया और सरकार बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। वर्तमान में कांग्रेस के 31  आदिवासी विधायक हैं, जो उसके कुल (115) विधायकों के एक चौथाई से भी •यादा हैं।

विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने मध्य प्रदेश के आदिवासियों से वादा तो कर दिया कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनेगी, तो संविधान की पाँचवीं अनुसूची, पेसा कानून 1996, वनाधिकार कानून 2006 का पालन होगा, लेकिन ऐसा कतई प्रतीत नहीं हो रहा है कि आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को देने/दिलाने के लिए मध्य प्रदेश कांग्रेस सरकार द्वारा कोई पहल अभी तक की गयी हो। उलटे सरकार बनने के बाद से मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों का मखौल ही उड़ा रही है।

26 जनवरी, 1950 को लागू संविधान में स्थापित पाँचवीं अनुसूची के स्पष्ट प्रावधानों को राज्य मंत्रालय और राजभवन ने ही मानने से इन्कार कर आदिवासियों के साथ आज़ादी के समय से ही छलावा करते आ रहे हैं। पाँचवीं अनुसूची में राज्य के राज्यपाल को मंत्रीमंडल की सलाह के बिना अपने विवेक से आदिम-जाति मंत्रणा परिषद् की सलाह लेकर आदिवासियों से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण विषयों पर कार्यवाही के अधिकार रहे हैं, जिसकी पुष्टि करते हुए भारत के तत्कालीन सॉलीसीटर जनरल गुलाम वाहनवती ने भारत सरकार के गृह मंत्रालय को दिनांक 21 अप्रैल, 2010 को स्पष्ट अभिमत प्रेषित किया, लेकिन उसके बाद भी राज्यों के राज्यपाल आदिवासियों से सम्बन्धित किसी भी विषयों पर अपनी भूमिका निर्धारित नहीं कर पाये। प्रदेश के आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को कुचलते हुए पाँचवीं अनुसूची के उल्लंघन का यह अन्तहीन सिलसिला चलता रहा; लेकिन प्रदेश के आदिवासियों को अपने संवैधानिक अधिकारों को लेकर तब एक रौशनी नज़र आयी, जब विधानसभा चुनाव 2018 से कुछ महीने पूर्व ही जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) संगठन के संरक्षक एवं आदिवासी युवा नेता डॉ. हिरालाल अलावा ने पाँचवीं अनुसूची को मुद्दा बनाकर प्रदेश के समस्त आदिवासी बहुल क्षेत्रों में ‘आदिवासी अधिकार रैली’ निकाली एवं प्रदेश की 80 विधानसभा सीटों पर चुनाव लडऩे का ऐलान किया। देखते-ही-देखते आदिवासी अधिकार रैली को प्रदेश के सभी आदिवासी क्षेत्रों में भरपूर समर्थन मिला।

डॉ. अलावा के नेतृत्व में निकाली गयी आदिवासी अधिकार रैली में हर जगह आदिवासियों की उमड़ती भीड़ को देखकर प्रदेश की दोनों प्रमुख पार्टियाँ- भाजपा और कांग्रेस के लिए सिरदर्द का कारण बनने लगा। कांग्रेस और भाजपा ने तमाम अपवादों एवं शर्तों के साथ डॉ. अलावा को अपने-अपने खेमे में शामिल करने की पूरज़ोर कोशिश की; लेकिन सफलता कांग्रेस को मिली। कांग्रेस ने पाँचवीं अनुसूची, पेसा कानून 1996, वनाधिकार कानून 2006 समेत डॉ. अलावा की सभी शर्तेें मंज़ूर अपने खेमें में मिला लिया, जिसका फायदा कांग्रेस पार्टी को हुआ और प्रदेश के आदिवासी बहुल 75 प्रतिशत विधानसभा सीटें जीतकर कांग्रेस प्रदेश में सरकार बनाने में सफल हो गयी। मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के उपरांत मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह ने ट्विटर/फेसबुक पर डॉ. अलावा को धन्यवाद दिया था और कहा था कि डॉ. अलावा का कांग्रेस से जुडऩे के कारण कांग्रेस को आदिवासियों का भरपूर समर्थन मिला।

लेकिन यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि कांग्रेस का आदिवासियों एवं डॉ. अलावा से किया गया वादा शुरू से ही भ्रामक और झूठा था और सिर्फ आदिवासियों के वोट पाने के लिए कांग्रेस ने इतना बड़ा झूठ बोला। या फिर कांग्रेस यदि उस वादे को पूरा करने का इरादा रखती तो पाँचवीं अनुसूची के पालन के लिए राज्यपाल को अधिसूचना जारी करने हेतु पत्र लिखती एवं पाँचवीं अनुसूची के प्रावधानों के अनुसार अनुसूचित क्षेत्रों में कार्य करती।  क्योंकि पाँचवीं अनुसूची से अधिसूचित अनुसूचित क्षेत्र में पाँचवीं अनुसूची, पेसा कानून, वनाधिकार कानून समेत सभी नियमों के पालन कराने या अनुसूचित क्षेत्रों में शान्ति एवं सुशासन के लिए विनियम बनाने यानी नियंत्रित करने या दिशा-निर्देश जारी करने की शक्तियाँ राज्यपाल को प्रदान की गयी हैं। यानी विधायिका शक्ति राज्यपाल के पास है, जबकि कार्यपालिका शक्ति राज्य सरकार के हाथों में होती है।

लेकिन सच्चाई यह है कि प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनाने के एक साल बाद भी आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों, पाँचवीं अनुसूची, पेसा कानून 1996, वनाधिकार कानून 2006 समेत तमाम वादों पर अमल नहीं कर सकी है। उलटे उक्त कानूनों का उल्लंघन कर रही है, जिससे प्रदेश के आदिवासियों में कांग्रेस के प्रति आक्रोश उभर रहा है और आदिवासी खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। यदि हम पाँचवीं अनुसूची की बात करें, तो 1956 में मध्य प्रदेश के पुनर्गठन के बाद से ही संविधान की पाँचवीं अनुसूची की अवहेलना की जा रही है। 1956 में पुनर्गठित मध्य प्रदेश में जनजातीय सलाहकार परिषद् (ट्रेवल एडवायडजरी काउन्सिल) के लिए अधिसूचित त्रुटिपूर्ण, असंवैधानिक नियमों में राज्य के मुख्यमंत्री को जनजातीय सलाहकार परिषद् का अध्यक्ष बनाकर राज्य शासन के द्वारा विचार के लिए विभिन्न विषयों को सलाहकार परिषद् में प्रस्तुत किये जाने एवं राज्यपाल को सलाह देने के बजाय उन विषयों पर राज्य शासन की मंशा के अनुरूप निर्णय लेने की असंवैधानिक कार्यवाहियाँ निरंतर की जाती रही हैं।

जबकि पाँचवीं अनुसूची के भाग-ख की धारा-4 की उपधारा (3) में प्रावधान किया गया है कि राज्यपाल जनजातीय सलाहकार परिषद् के (क) सदस्यों की संख्या को, उनकी नियुक्ति की और परिषद् के अध्यक्ष तथा उसके अधिकारियों और सेवकों की नियुक्ति की रीति; (ख) उसके अधिवेशनों के संचालन तथा साधारणतया उसकी प्रक्रिया को, और (ग) अन्य सभी आनुषंगिक विषयों को, यथास्थिति, विहित या विनियमित करने के लिए नियम बना सकेगा। भाग-ख की धारा-4 की उपधारा (1) में प्रावधान किया गया है कि ऐसे प्रत्येक राज्य में, जिसमें अनुसूचित क्षेत्र है, एक जनजाति सलाहकार परिषद् स्थापित की जाएगी, जो 20 से अनधिक सदस्यों से मिलकर बनेगी, जिसमें शक्ति के अनुरूप निकटतम तीन-चौथाई उस राज्य की विधानसभा में अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधि होंगे; परन्तु यदि उस राज्य विधानसभा में ऐसे प्रतिनिधियों से भरे जाने वाले स्थानों की संख्या जनजाति सलाहकार परिषद् में ऐसे प्रतिनिधियों से भरे जाने वाले स्थानों की संख्या से कम है, तो शेष स्थान उन जनजातियों के अन्य सदस्यों से भरे जाएँगे।

उक्त प्रावधानों से स्पष्ट है कि मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने भी संविधान के पाँचवीं अनुसूची की अवहेलना कर गैर-संवैधानिक ढंग से ‘आदिम-जाति मंत्रणा परिषद्’ का गठन किया है, जिसके अध्यक्ष (मुख्यमंत्री) से लेकर अन्य कई सदस्य गैर-जनजाति वर्ग से हैं एवं परिषद् का गठन राज्यपाल द्वारा न की जाकर मध्य प्रदेश सरकार द्वारा किया गया है। आदिम-जाति मंत्रणा परिषद् के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष समेत सभी सदस्य अनुसूचित जनजाति वर्ग से होने चाहिए। साथ ही पाँचवीं अनुसूची से अधिसूचित मध्य प्रदेश के 89 ट्राइबल ब्लॉकों के लिए आदिम-जाति मंत्रणा परिषद् से सलाह लेकर राज्यपाल के द्वारा सभी फैसले लेने का प्रावधान है। जबकि 89 ट्राइबल ब्लॉकों के लिए सभी फैसले राज्य सरकार कैबिनेट के द्वारा किया जा रहा है, जो सर्वथा असंवैधानिक है। पाँचवीं अनुसूची के भाग-ख की धारा-4 की उपधारा (2) में प्रावधान किया गया है कि जनजाति सलाहकार परिषद् का यह कर्तव्य होगा कि वह उस राज्य की अनुसूचित जनजातियों के कल्याण और उन्नति से सम्बन्धित ऐसे विषयों पर सलाह दें, जो उसको राज्यपाल द्वारा निर्दिष्ट किये जाएँ।

लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार गठन के एक साल पूरा होने एवं आदिम-जाति मंत्रणा परिषद् के गठन के लगभग तीन महीने पूरे होने के बावजूद अभी तक मंत्रणा परिषद् की एक भी बैठक आयोजित नहीं की गयी है, जिससे स्पष्ट है कि प्रदेश सरकार आदिवासियों के कल्याण और उन्नति के लिए इस तरह का कोई फैसला नहीं लेना चाहती। 27 नवंबर, 2019 को मध्य प्रदेश कैबिनेट द्वारा प्रस्ताव लाया गया कि पाँचवीं अनुसूची से अधिसूचित क्षेत्रों में सामान्य व्यक्ति को अपनी ज़मीन का डायवर्जन करने के लिए कलेक्टर की अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं है; जबकि डायवर्जन नीति के उल्लंघन पर सज़ा के प्रावधान को भी हटाया गया है। मध्य प्रदेश कैबिनेट का उक्त प्रस्ताव संविधान की पाँचवीं अनुसूची का खुलेआम उल्लंघन है। उक्त प्रस्ताव को लाने के लिए ज़रूरी था कि आदिम-जाति मंत्रणा परिषद् के सदस्य राज्यपाल को सलाह दें, उसके उपरांत यदि राज्यपाल को लगे कि उक्त प्रस्ताव आदिवासियों के हित में है, तो वे राज्य सरकार को ऐसा प्रस्ताव लाने की सहमति दे सकते हैं।  रेत खनिज की खदान नीलामी प्रक्रिया में भी म.प्र. सरकार ने राज्य 89 ट्राइबल ब्लॉकों में पाँचवीं अनुसूची एवं पेसा कानून 1996 का उल्लंघन करके नीतियाँ बनायी हैं। 26 नवंबर, 2019 से रेत खनिज की खदान नीलामी की प्रक्रिया राज्य में प्रारम्भ हो गयी है। मध्य प्रदेश के 89 ट्राइबल ब्लाक संविधान की पाँचवीं अनुसूची के तहत अधिसूचित हैं, जिनमें पेसा कानून 1996 के प्रावधान भी लागू हैं।

पेसा कानून 1996 में प्रावधान किया गया है एवं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सन् 2013 फैसला दिया गया है, जिसमें वेदांता कम्पनी द्वारा ओडिशा के नियामगिरी पहाड़ से बाक्साइट-खनन मामले में ग्रामसभा की मुख्य भूमिका तय की गयी थी। सुप्रीम कोर्ट के उक्त आदेशों में पाँचवीं अनुसूची के तहत अधिसूचित विकासखण्डों में किसी भी तरह के खनिज खदान के निर्धारण, खनिज खदान के आवंटन, खनिज खदान की नीलामी के पूर्व ग्रामसभा से अनुमति लेने का स्पष्ट प्रावधान है, पर्यावरणीय अनुमति के सन्दर्भ में ग्रामसभा की अनुमति लिया जाना आवश्यक है। मध्य प्रदेश सरकार की वर्तमान रेत नीति में पाँचवीं अनुसूची द्वारा अधिसूचित क्षेत्रों में रेत की खदानों के आवंटन एवं नीलामी में आदिवासी समुदाय की कोई भूमिका राज्य सरकार द्वारा निर्धारित नहीं की गयी है; जबकि विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी ने अपने वचन पत्र के पृष्ठ-14 पर स्थानीय निवासियों/आदिवासियों की समिति बनाकर उन्हें रोज़गार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से गौण खनिज खदानों को स्थानीय-निवासी/आदिवासी समितियों को देने का वादा भी किया गया है।

यदि हम वनाधिकार कानून 2006 की बात करें, तो प्रदेश की कांग्रेस सरकार यहां भी फेल साबित हुई है। कांग्रेस ने अपने वचन-पत्र में लिखा है कि वन अधिकार अधिनियम के अंतर्गत, जिनको पट्टा अभी तक नहीं मिला उन्हें पट्टा दिलवाएँगे और भूमि का मालिकाना हक देंगे। लेकिन सच्चाई यह है कि जयस के संरक्षक एवं कांग्रेस पार्टी से ही विधायक डॉ. हिरालाल अलावा द्वारा मुख्यमंत्री कमलनाथ और राज्यपाल को पत्र लिखकर पाँचवीं अनुसूची, पेसा कानून और वनाधिकार कानून के अनुपालन के लिए अनेक बार पत्र लिखा गया; बावजूद इसके मुख्यमंत्री और राज्यपाल ने इन कानूनों के अनुपालन में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी है। डॉ. अलावा ने अपनी फेसबुक वॉल पर समय-समय पर मुख्यमंत्री एवं राज्यपाल को लिखे पत्र की जानकारी देते रहते हैं, जिसमें हाल ही में 28 नवंबर, 2019; 22 नवंबर, 2019 और 4 नवंबर, 2019 को पाँचवीं अनुसूची, पेसा कानून और वनाधिकार कानून के अनुपालन के लिए उनके द्वारा मध्य प्रदेश के राज्यपाल और मुख्यमंत्री को लिखे गये पत्र की प्रतिलिपि फेसबुक पर पोस्ट की गयी है।  वनाधिकार कानून के तहत आदिवासियों एवं परम्परागत वन-निवासियों को पट्टा देने की बात करें, तो मध्य प्रदेश में लगभग 3.50 लाख से अधिक आदिवासियों/वन-निवासियों के दावे रिजेक्ट किये गये हैं, जिसमें शासन के अधिकारियों की भयानक खामी सामने आयी है।

वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत खारिज दावा-पत्रों के आलोक में 13 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने वन एवं वनभूमि से 11 लाख से अधिक आदिवासी/परम्परागत वन-निवासी परिवारों को बेदखल करने का आदेश जारी किया था, जिसमें 3.50 लाख से अधिक परिवार मध्य प्रदेश के हैं। इस मामले की अगली सुनवाई के दौरान सितंबर माह में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को आदेश दिया कि खारिज किये गये सभी दावों की समीक्षा की जाए एवं सुनिश्चित किया जाए कि जंगलों में परम्परागत रूप से निवास करने वाले आदिवासी एवं वन-निवासी बेदखल न हों एवं अगली सुनवाई की तारीख 24 नवंबर, 2019 मुकर्रर कर दी, जिस पर फैसला आना अभी बाकी है। लेकिन मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार द्वारा उक्त 3.50 लाख रिजेक्ट दावों की समीक्षा अभी तक नहीं हो सकी है, जिससे स्पष्ट है कि 3.50 लाख आदिवासी एवं परम्परागत वन-निवासी परिवारों पर बेदखली की जो तलवार लटकी है, उनके बारे में राज्य सरकार बिलकुल भी गम्भीर नहीं है। इसके अतिरिक्त अन्य मामले भी सामने आये हैं, जिसमें वन विभाग के अधिकारियों ने आदिवासियों/अन्य-निवासियों के राजस्व संहिता में दर्ज ज़मीन पर भी कब्ज़ा करके अवैध ढंग से कार्रवाई तक कर डाली गयी है।

ज़मीन, जंगल और पर्यावरण के मुद्दे पर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विगत 30 वर्षों से कार्य करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अनिल गर्ग के अनुसार, ‘1950 से तत्कालीन शासक मालगुज़ार, ज़मींदार, जागीरदार, महल, इलाके एवं दुमाला से इजमेंट राइट्स के लिए दर्ज जंगल मद, गैर जंगल मद की ज़मीनों को अर्जित करने के कानून बने; इन कानूनों को मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता 1959  में पहले संवैधानिक संशोधन के तहत संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल किया गया। राजस्व विभाग ने ज़मीनों को अर्जित किया एवं उन्हें मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता 1954 एवं भू-राजस्व संहिता 1959 के अध्याय 18 में दखल रहित भूमि वर्णित करके अधिकार, दायित्व आदि निर्धारित किये। 01 अगस्त, 1958 में, 1975 में और 1980 में वन विभाग ने संरक्षित वन अधिसूचना प्रकाशित कर राजस्व अभिलेखों में दर्ज दखल रहित भूमियों को संरक्षित वन, असीमांकित वन, नारंगी वन दर्ज करके लोगों को भूमि से सम्बन्धित अधिकारों से वंचित कर दिया गया। लोगों के विभिन्न सरकारी एवं निस्तारी प्रयोजनों को प्रतिबन्धित कर अपराध मान लिया तथा संसद और विधानसभा द्वारा लोगों के अधिकार के लिए बनाये गये कानूनों एवं संसोधनों को मानने से इन्कार कर लोगों को उनके ज़मीनों से बेदखल कर दिया।’ उपरोक्त सभी तथ्यों से तो यहीं लगता है कि कांग्रेस पार्टी ने मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव से पूर्व आदिवासियों एवं जयस के नेता डॉ. अलावा से झूठा एवं भ्रामक वादा किया, जिसे वह कभी भी पूरा करने का इरादा ही नहीं रखती थी। लेकिन मध्य प्रदेश सरकार को यह समझना चाहिए कि इससे आदिवासी समाज उससे खफा है।

(लेखक म.प्र. समेत देश के तमाम आदिवासी इलाकों में सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय हैं)