मध्यप्रदेश: मुद्दा विहीन राजनीति में मुद्दे

कृषि से किसानों की समस्याएं, पिछले डेढ़  दशक में 24000 से ज़्यादा किसानों की आत्महत्याएं, अमरकंटक से लेकर बड़वानी तक होता बेरहम विस्थापन, तिल-तिल कर मरते लोग और चैपट होती सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं, स्वास्थ्य सेवाओं का बढ़ता निजीकरण, जानबूझकर ढहा दी गई सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली, बच्चों और महिलाओं में जबरदस्त कुपोषण, महिलाओं पर अपराध में अव्वल प्रदेश, रोजग़ार की तलाश में पलायन करते लाखों नागरिक, बढ़ती बेरोजगारी, बंद होते पारंपरिक व्यवसाय (हाथकरधा – हस्तशिल्प) तमाम ग्लोबल इन्वेस्टर मीट के बीच घटता औद्योगिक निवेश, असफल होता औद्योगिककरण, आदिवासियों और दलितों पर बढ़ते अत्याचार, दिनों दिन कमज़ोर होती कानून व्यवस्था, भ्रष्टाचार का चरम पर पहुंच जाना, शहरों और गांवों में पीने के पानी की गहराती समस्या, शासकीय रोडवेज को बंद कर निजी व्यक्तियों को सौपनें से उपजी यातना, आदि- अनादि। एक अंतहीन फेहरिस्त है मध्यप्रदेश में समस्याओं या चुनावी मुद्दों की परंतु सारा पक्ष व विपक्ष न जाने किन मुद्दों पर चुनाव लडऩा चाहता है, या लड़ रहा है, यह वास्तव में रहस्य का विषय है।

भौगोलिक तौर पर और कहें तो संस्कृति सभ्यता के लिहाज से भी मध्यप्रदेश को मालवा, निमाड, महाकौशल, बुंदेलखंड, व बघेलखंड (विंध्य) जैसे अंचलों में विभक्त किया जा सकता है। इनका रहन-सहन वेशवूषा, भाषा बोली एक दूसरे से भिन्न हंै लेकिन समस्याएं एक सी हंै। परंतु सरकार मानती है कि मध्यप्रदेश अब पिछड़ा राज्य नहीं रहा वह अब कई कदमों की छलांग लगाकर अगले राज्यों की कतार में शामिल होने को तत्पर है। मध्यपद्रेश एक ऐसे मुख्यमंत्री द्वारा शासित है जो निरंतर यात्राओं पर ही रहता है। राजधानी भोपाल में रहना उन्हें ज़्यादा पसंद नहीं है और दूसरी ओर वर्तमान संसदीय प्रणाली के दिमाग में अध्यक्षीय प्रणाली का दौरा पड़ गया है। अतएव मुख्यमंत्री राज्यों में और केंद्र में प्रधानमंत्री के अलावा अन्य मंत्री अर्थहीन होते जा रहे हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पर भ्रष्टाचार व प्रशासनिक अकर्मण्यता के जितने भी आरोप लगाए जा सकते हैं, लग चुके हैं, पर वे अविचलित हैं। यह वास्तव में बेहद विचारणीय व चिंतनीय विषय है।

यदि शाीर्ष नतृेत्त्व की बात करें तो भारतीय जनता पार्टी के पास मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के अतिरिक्त कोई और प्रदेश स्तरीय चेहरा ही नहीं है। जो मालवा के हैं उन्हें बघेलखंड के मतदाता नहीं पहचानते और बुंदेलखंड वाले नेता को निमाड़ के लोग नहीं जानते। जबकि कांग्रेस के पास कमलनाथ, दिग्विजय सिंह , ज्योतिरादित्य सिंधिया और अजय सिंह, कांतिलाल भूरिया, अरुण यादव ऐसे युवा नेता हंै जिनकी प्रदेश स्तरीय पहचान है। परंतु इस उपलब्धि को कांग्रेस की कमी के रूप में देखा जा रहा है, गोया कि अब दलों में एक नेता से ज़्यादा का उभरना, लोकतंत्र के अशुभ है? कांग्रेस की स्वंय ही यह समस्या है कि वह अपनी इस संपत्ति को एनपीए में परिवर्तित कर लेना चाहती है। अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने से कौन कब किसी को रोक पाया है। मध्यप्रदेश विधानसभा में कुल 230 सदस्य हैं। पिछली विधानसभा में भाजपा के 165 कंाग्रेस के 58 व अन्य दलों व निर्दलीय 7 विधायक थे। भाजपा ने मध्यप्रदेश के सभी अंचलों एवं उनमें शामिल आदिवासी अंचलों में भी जबरदस्त पैठ बनाई थी। वहीं दूसरी ओर केंद्र में भी भाजपा सरकार के आने से जनता को उम्मीद जगी थी कि अब प्रदेश में बेहतर ढंग से विकास और शासन हो पाएगा। परंतु हुआ इसका ठीक उलटा। कुपोषण से ग्रस्त मध्यप्रदेश में पोषण आहार को लेकर जबरदस्त अनिमितताओं के चलते, न्यायालय की शरण में जाना पड़ा और वहां से भी आधी- अधूरी राहत मिल पाई। मुख्यमंत्री स्वंय को मामा कहलवाते हैं, परंतु उनकी संवेदनाएं अंतत: दिखावटी ही जान पड़ती है। विधानसभा सत्रों के दौरान  जब भी विपक्ष सरकार  को कटघरे में  लेता था तब समय से पहले ही विधानसभा का लगातार सत्रावसान कर दिया जाता रहा है। इससे यह भी समझ में आता है कि दो-तिहाई बहुमत के बावजूद सरकार सदन में सवाल जवाब को लेकर स्वंय पर विश्वास नहीं कर पर रही थी। उधर दूसरी ओर विपक्ष भी उतना ही पंगु बना  रहा। कांग्रेस पिछले पांच सालों में एक भी बड़ा आंदोलन सरकार के खिलाफ खड़ा नहीं कर पाई थी। हां, कमलनाथ के प्रदेशाध्यक्ष बनने के बाद थोड़ी चेतना अवश्य दिखी, परंतु वह भी चुनाव की वजह से सामने आई दिखती है। बहरहाल देर आए दुरूस्त आए। यही कहा जा सकता है।

वैसे शुरूआती फेहरिस्त में दो समस्याएं और जोडऩा आवश्यक है जो आने वाले चुनावों में महत्वपूर्ण साबित हो सकती हंै। ये है बढ़ती सांप्रदायिकता और बढ़ता जातिवाद। बढ़ती सांप्रदायिकता ने कमोवेश भाजपा के लिए काफी अनुकूल परिस्थितियां बना दी थीं। वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ (आरएसएस) का शासन-प्रशासन में सीधा हस्तक्षेप समस्याएं भी खड़ी कर रहा था। परंतु मुख्यमंत्री ने किसी तरह इसको संभाल लिया और कई मसलों पर समानांतर शासन व्यवस्था अघोषित रूप से मान्य भी कर दी गई। परंतु अनुसूचित जाति-जनजाति पर अत्याचार हेतु आपराधिक कार्रवाई को लेकर आए सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को संसद द्वारा बदल दिए जाने के बाद हालात काफी बदले। निर्णय आने के बाद अनुसूचित (दलित) वर्ग सड़कों पर उतरा था और उसने काफी आक्रामक रुख अपनाया था। संसद के अधिनियम पारित  करने के पश्चात यथास्थिति कायम हो जाने से सवर्ण व अन्य पिछडा वर्ग (ओबीसी) बेहद नाराज हो गए और उनका संगठन एकाएक अत्यंत सक्रिय हो गया। इधर दलित संगठन तो पहले से ही सक्रिय था। सरकार की अदूरदर्शिता ने इन दोनों संगठनों की भाजपा से दूरी बना दी और अनजाने में ही कांग्रेस लाभ की स्थिति में पहुंच गई। उधर बसपा की हां-न-हां के बीच कांग्रेस से गठबंधन की स्थितियां नहीं बन पाई। छत्तीसगढ़ में बसपा और अजीत जोगी के समझौते ने आग में घी का काम किया। कांग्रेस का समाजवादी पार्टी से भी समझौता नहीं हो पाया। इस पूरे घटनाक्रम को देखकर स्पष्ट आभास होता है कि दोनों ही ओर से गठबंधन को लेकर अनिच्छा थी। इसी दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को प्रदेश दौरे के दौरान मिली अपार लोकप्रियता ने जहां कांग्रेस को आशान्वित किया वहीं भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गई। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के दौरे में भाजपा अपेक्षित जमावड़ा कर पाने में सफल नहीं हो पाई थी।

इस बार के चुनाव में आम आदमी पार्टी (आप) भी एक गंभीर प्रतिद्वंदी के रूप में उतरने का प्रयास कर रही है।। नर्मदा बचाओ आंदोलन के वरिष्ठ कार्यकर्ता आलोक अग्रवाल इसका नेतृत्व कर रहे हैं और मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी हैं। आप ने बड़ी संख्या में उम्मीदवारों को चुनावी मैादान में उतारा भी है । यदि आप बेहतर कर पता है, तो यह मध्यप्रदेश की राजनीति के लिए शुभ ही होगा। परंतु संगठन के स्तर पर अभी अधिक काम किए जाने की आवश्यकता है। वही गोडंवाना गणतंत्र पार्टी का महाकौशल में थोड़ा प्रभाव ज़रूर है। पश्चिमी मध्यप्रदेश में जय आदिवासी युवा शक्ति (जयश) एक मजबूत राजनीतिक व सामाजिक संगठन के रूप में तेजी  से अपना स्थान बना रहा था। परंतु कांग्रेस की घाघ नीतियों के चलते धराशायी होकर बिखर गया। सपाक्स को हाल ही में राज्य स्तरीय राजनीतिक दल के रूप में मान्यता मिल गई है और वह भी सभी स्थानों से चुनाव लडऩे का मन बना रहा है। यह छोटे दल कहीं पर भाजपा तो कहीं कांग्रेस को मुश्किल में डाल सकते हैं। इन दलों की वजह से जीत-हार का अंतर काफी कम हो सकता है।

जहां भाजपा को अपने 15 वर्षों के सतत् शासन व केंद्र में अपनी सरकार का होना चौथी बार चुनाव जीतने का आश्वासन प्रदान कर रहे हैं। वहीं कांग्रेस में काफी वर्षों बाद इतनी ऊर्जा दिखाई दे रही है। वह बुंदेलखंड एवं बघेलखंड में आगे दिखाई देती दिख रही है। वहीं महाकौशल में कमोवेश बराबरी पर है। मालवा क्षेत्र कृषि एवं उद्योग दोनों में प्रदेश में सबसे आगे है। गोलीकांड का शिकार मंदसौर क्षेत्र इसी में स्थित है। यह सोयाबीन का भी बड़ा उत्पादक है। साथ ही लहसुन का भी। पिछले दिनों यहां लहसुन मात्र एक से दो रुपए किलो बिक गया। वहीं अभी सोयाबीन भी न्यूनतम खरीदी मूल्य से नीचे बिक रही है। भावांतर का फायदा अधिकांशत व्यपारियों को ही मिल पा रहा है। वहीं औद्योगिक क्षेत्रों में भी अशांति हैं । कारखाने या तो बंद हो रहे हैं या बड़े पैमाने पर श्रमिकों की छटनी होने से असंतोष बढ़ता जा रहा है। निमाड़ क्षेत्र नर्मदा स्थित बांधों जिसमें सरदार सरोवर बांध प्रमुख है, की वजह से उबल सा रहा है। गुजरात की मनमानी व केंद्र की शह से पानी न बरसने के बावजूद निमाड़ का बड़ा हिस्सा अवैध रूप से डूब में आ रहा है। ये बातें भी भाजपा को संकट में डाल सकती हंै।वहीं जीएसटी के प्रकोप से सभी छोटे व मध्यम कारोबारी हैरान व हताश हैं।

कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र (मेनिफेस्टो) में कुल 50 बिंदुओं पर विस्तार से चर्चा की है। इसमें कृषि, हस्तशिल्प, हाथकरधा, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, रोजग़ार आदि सभी महत्वपूर्ण विषय शामिल हैं। वैसे भी कमलनाथ प्रतिदिन मुख्यमंत्री से एक मसले पर प्रश्न पूछ रहे है। यह 40 प्रश्नों की एक शंृखला है परंतु एक का भी जवाब नहीं मिल रहा है। यही आधुनिक राजनीति का लब्बोलुआब भी है। सवाल यही उठता है कि क्या कांग्रेस व अन्य दल इसका लाभ उठा पाएंगे? टिकट वितरण को लेकर दोनों ही दलों में असंतोष चरम पर है। मुद्दाविहिन चुनाव प्रचार अभी तो आपसी दोषारोपण के सहारे चल  रहा है। उम्मीद ही की जा सकती है कि आने वाले समय में चुनाव में आम जनता के मुद्दे सड़क, पानी बिजली के अलावा भी उभरेंगे।

 चेस्टरटन ने लोकतंत्र के लिए कहा था,” दि वल्र्ड विल  नेवर बी सेफ फार डेमोक्रेसी – इट इस ए डेंजरस ट्रेड” अर्थात लोकतंत्र निष्कंटक तो शायद ही नहीं होने पाएगा । इसे निष्कंटक बनाने की कोशिश एक खतरे से भरा काम है। गांधी कहते हैं,” मैंने उस जनगणना करने वाले भाई को जवाब देते हुए अपने को धर्म संस्थापक नहीं कहा था, राजनीतिज्ञ कहा था। अहिंसा का स्थान तो सभी धर्मों में है। मगर राजनीति में शक्ति के विकेंद्रीकरण  के द्वारा जो अहिंसा स्थापित होगी वह अपने आप में धर्म होगी।  “क्या हम विकेंद्रीकरण देख पा रहे हैं?  पुरातन ग्रीस और रोम के सिक्कों पर मतदान पेटी में मत डालते व्यक्ति को दिखाया गया है। 2500 वर्ष पश्चात भारत में मतपेटी  का स्थान ईवीएम मशीन ने ले लिया है। परंतु लोकतंत्र उसी मतदान पेटी के पास कदमताल करता नजर आ रहा है। क्या आने वाला चुनाव कुछ कदम आगे बढ़ पाएगा?