मज़बूत अर्थ-व्यवस्था के बिना विकास का सपना

कोरोना वायरस से दूसरे सबसे ज़्यादा प्रभावित देश भारत की अर्थ-व्यवस्था कब और कैसे दोबारा उछाल मारेगी? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। देश के सामने इस समय कई बड़ी चुनौतियाँ हैं। जैसे पिछले दो साल में क़रीब 1.5 से 1.7 करोड़ लोगों का रोज़गार छिना है। भारतीय रिजर्व बैंक ने कहा कि फँसा क़र्ज़ यानी एनपीए कुल क़र्ज़ का 7.5 फ़ीसदी से बढक़र 13.5 फ़ीसदी तक पहुँच सकता है। ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाले लोगों के औसत उपभोग में वृद्धि की बात तो छोड़ दीजिए, उसमें गिरावट आयी है।

पिछले पाँच साल में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए खपत न केवल धीमी हुई है, बल्कि लगातार गिरती चली गयी है। पाँच साल पहले की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र में प्रति व्यक्ति खपत में 8.8 फ़ीसदी की कमी आयी है। इसके साथ-साथ देश में ग़रीबी की दर में वृद्धि हो रही है। देश की दूरगामी अर्थ-व्यवस्था के लिए ग्रामीण क्षेत्र महत्त्वपूर्ण है। बेरोज़गारी के आँकड़े देखेंगे, तो यह पिछले 45 साल में सर्वाधिक है। इससे पहले कभी भी बेरोज़गारी की दर इतनी अधिक नहीं रही।

 

पीएचडीसीसीआई के वरिष्ठ उपाध्यक्ष साकेत डालमिया कहते हैं कि कोरोना के कारण भारत की अर्थ-व्यवस्था पर असर पड़ा है, जिससे लोगों की आमदनी प्रभावित हुई है। केंद्र सरकार विकास का सपना काफ़ी पहले से लोगों को दिखा रही है। कहा जा रहा है कि वह सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम (एमएसएमई) क्षेत्र पर ध्यान दे रही है। लेकिन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि हमें इस क्षेत्र के लिए पूँजी का निवेश करना होगा। विकास को पुनर्जीवित करने और इसे बेहतर ढंग से विस्तारित करने के लिए राजकोषीय और मौद्रिक नीतियों के बारे में विचार करना होगा।

सवाल यह उठता है कि दीर्घकालिक विकास कैसे सम्भव होगा? देश में निवेश की दर में लगातार कमी आ रही है। 2008-2009 में जीडीपी के भीतर क़रीब 39 फ़ीसदी हिस्सा निवेश का था, जो कम होकर 30 फ़ीसदी तक पहुँच गया। इससे यह बात तो साफ़ हो गयी है कि पाँच ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी की अर्थ-व्यवस्था अगले 4-5 साल में तो असम्भव है; क्योंकि इसकी गणना यूएस डॉलर के आधार पर होती है। अब तो विकास दर गिरकर 4.5 फ़ीसदी पर पहुँच गयी है। पिछले कुछ साल में अर्थ-व्यवस्था के विरोधाभासी और सन्देहास्पद आँकड़ों को लेकर भी सवाल उठ रहे है। देश में आँकड़ों को एकत्रित करने के लिए सांख्यिकीय प्रणाली उपयोग में लायी जाती है।

सवाल उठ रहा है कि सरकार अर्थ-व्यवस्था में जान कैसे फूँकेगी? वित्त वर्ष 2022-23 के बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने गाँवों में ग़रीबों और मज़दूरों को सहारा देने वाली मनरेगा योजना का आवंटन भी पहले से घटा दिया है। जैसा कि हम जानते हैं इस योजना के तहत ग्रामीणों को माँगने पर 100 दिनों का सुनिश्चित रोज़गार देने का प्रावधान है। लेकिन गाँवों में भी बेरोज़गारी की समस्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।

राज्यसभा में गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने बताया कि बेरोज़गारी की वजह से 2018 से 2020 तक 9,140 लोगों ने आत्महत्या की है। साल 2018 में 2,741, 2019 में 2,851 और 2020 में 3, 5480 लोगों ने बेरोज़गारी की वजह से आत्महत्या की। साल 2014 की तुलना में 2020 में बेरोज़गारी की वजह से आत्महत्या के मामलों में 60 फ़ीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी है।

इसी तरह आर्थिक संकट के कारण आत्महत्या करने के आँकड़े भी भयावह हैं। बेरोज़गारी की तरह ही सन् 2018 से सन् 2020 तक दिवालियापन और क़र्ज़ की वजह से आत्महत्या करने वालों में भी बढ़ोतरी हुई है। गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने बताया कि ऐसे मामलों में इन तीन वर्षों में कुल 16,091 लोगों ने आत्महत्या की है। साल 2019 में दिवालियापन और क़र्ज़ के चलते आत्महत्या करने वालों की संख्या 5,908 है, जो तीन वर्षों में सबसे अधिक है। देश में नौकरी का संकट बड़ा है। लाखों युवक नौकरी की तैयारी कर रहे हैं; लेकिन उन्हें नौकरी नहीं मिल रही है। लेकिन सरकार के पास रोज़गार देने की कोई स्पष्ट नीति नहीं है। देश में आर्थिक मोर्चे पर किस तरह की ग़फलत हो रही है, इसका ख़ुलासा पिछले दिनों, जिसमें पता चला कि एनएसई की पूर्व सीईओ किसी हिमालय वाले योगी के कहने पर बहुत-से काम किया करती थी, यहाँ तक कि एक शख़्स की नियुक्ति भी ईमेल के ज़रिये योगी बाबा के कहने पर मोटा वेतन देकर की गयी।

भारतीय स्टॉक मार्केट नियामक (सेबी) ने यह जानकारी दी कि देश के सबसे बड़े एक्सचेंज की पूर्व प्रमुख सीईओ चित्रा रामकृष्ण ने एक योगी के साथ गोपनीय जानकारी साझा की और उनकी सलाह से कई महत्त्वपूर्ण फ़ैसले लिये। भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने यहाँ तक कहा कि चित्रा रामकृष्ण ने योगी के साथ बिजनेस प्लान, बोर्ड बैठकों का एजेंडा और वित्तीय अनुमान साझा किये थे। चित्रा रामकृष्ण ने 2016 में नेशनल स्टॉक एक्सचेंज से इस्तीफ़ा दिया था। सेबी ने कहा है कि अब तक उन्होंने जो दस्तावेज़ एकत्रित किये हैं, उससे साफ़ हो गया कि स्टॉक एक्सचेंज को पीछे से एक योगी चला रहे थे।

सवाल यह है कि आख़िर वह हिमालय वाला योगी कौन है? इस सवाल के जवाब में कई नाम सामने आ रहे हैं। यह मामला किसी संदेहास्पद भूतिया फ़िल्म जैसा बन गया है, जिससे पर्दा तब ही उठ सकता है, जब ख़ुद चित्रा रामकृष्ण उस योगी का नाम पता और पहचान बता दें। सीबीआई ने पूर्व सीईओ चित्रा रामकृष्ण, रवि नारायण और पूर्व सीईओ आनंद सुब्रमण्यम के ख़िलाफ़ लुकआउट सर्कुलर भी जारी किया है। मामले की छानबीन करने से पता चलता है कि चित्रा रामकृष्ण चेन्नई के एक योगी मुरुगादिमल सेंथिल, जिसे तमिल भाषा में स्वामिगल कहते हैं; के सम्पर्क में रहती थीं। वह उन्हें अपना गुरु और आध्यात्मिक मार्गदर्शक (स्प्रिचुअल गाइड) मानती थीं। अभी उस योगी की मौत हो चुकी है। दिलचस्प है कि वह योगी आनंद से भी जुड़े हुए थे, जिसे चित्रा रामकृष्ण ने भारी पैकेज पर नियुक्त किया था।

आनंद सुब्रमण्यम का सालाना पैकेज 14 लाख रुपये के क़रीब था। लेकिन जब अप्रैल, 2013 में उन्हें एनएसए नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में एम.डी. और सीईओ चीफ स्ट्रेटेजिक एडवाइजर के तौर पर नियुक्त किया, तो उन्हें क़रीब डेढ़ करोड़ रुपये का सालाना पैकेज ऑफर किया गया और दो से तीन साल के अन्दर ही सुब्रमण्यम का पैकेज बढक़र पाँच करोड़ रुपये तक पहुँच गया है। योगी के इशारों पर ही आनंद को तगड़े इनक्रिमेंट दिये गये और उस पर ख़ूब पैसे लुटाये गये। यही नहीं, रामकृष्ण प्रदर्शन के मूल्यांकन (परफॉर्मेंस अप्रेजल) की रेटिंग देते हुए भी बाबा से सलाह लेती थीं और सुब्रमण्यम को हमेशा ए+ रेटिंग देती थीं। चित्रा रामकृष्ण की इस करतूत ने नियामक संस्थाओं पर सवाल खड़े कर दिये हैं। लेकिन देश की अर्थ-व्यवस्था जिस दौर से गुज़र रही है; बैंकों का एनपीए बढ़ रहा है, तो ऐसे ख़ुलासे लोगों के भरोसे को तोड़ते हैं। रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने वित्त वर्ष 2022-23 के लिए वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी की वृद्धि दर 7.8 फ़ीसदी रहने का अनुमान लगाया है, जबकि संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण में यह दर 8.5 फ़ीसदी रहने का अनुमान लगाया गया है। सकल घरेलू उत्पाद यानी ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट (जीडीपी) किसी एक साल में देश में पैदा होने वाले सभी सामानों और सेवाओं के कुल मूल्य (वैल्यू) को कहते हैं।

जीडीपी किसी भी देश के आर्थिक विकास का सबसे बड़ा पैमाना है। अधिक जीडीपी का मतलब है कि देश में आर्थिक बढ़ोतरी हो रही है। अगर जीडीपी बढ़ती है, तो इसका मतलब है कि अर्थ-व्यवस्था ज़्यादा रोज़गार पैदा कर रही है। इसका यह भी मतलब है कि लोगों का जीवन स्तर भी आर्थिक तौर पर समृद्ध हो रहा है। इससे यह भी पता चलता है कि कौन-कौन से क्षेत्र में विकास हो रहा है? कौन-सा क्षेत्र आर्थिक तौर पर पिछड़ा है?