मंदी की आहट

दुनिया में एक बार फिर मंदी की आहट दस्तक देती दिखायी दे रही है। यह ऐसे समय में हो रहा है, जब केंद्र सरकार पाँच ट्रिलियन इकॉनमी की तरफ़ बढऩे का दावा कर रही है। यदि मंदी आती है, तो निश्चित ही मोदी सरकार के लिए यह बड़ी अग्निपरीक्षा होगी; भले इसके कारण भी सन् 2008 की मंदी की तरह वैश्विक हों। हाल में आईएमएफ ने भारत की आर्थिक वृद्धि दर अनुमान आरबीआई के 7.5 फ़ीसदी से घटाकर वित्त वर्ष 2022-23 के लिए भारत की आर्थिक वृद्धि दर 6.8 फ़ीसदी कर दिया है और भारत की अर्थ-व्यवस्था अभी भी दो साल के मुश्किल कोरोना-काल के नुक़सानों से बाहर नहीं निकल पायी है। हालाँकि आईएमएफ ने यह भी कहा है कि शायद भारत को अमेरिका या दूसरे पश्चिमी देशों के मुक़ाबले कम संकट का सामना करना पड़े।

वैसे तो दुनिया भर के आर्थिक विशेषज्ञों की मानें, तो आने वाली इस आर्थिक मंदी का सबसे ज़्यादा असर अमेरिका, ब्रिटेन पर होगा और यूरोप पर इस मंदी की गहरी मार पड़ सकती है। विशेषज्ञों के अनुमान चीन के लिए भी बेहतर नहीं हैं। उनका यह ज़रूर कहना है कि भारत पर इसका शायद ज़्यादा असर न पड़े। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने अपनी एक रिपोर्ट में हाल में कहा था कि दूसरे देशों की तुलना में भारत की स्थिति बेहतर है। अर्थ-व्यव्स्था में वैश्विक गिरावट से उपजी मंदी की मार भारत पर कम ही पड़ेगी।

हालाँकि यह भी सच है कि भारतीय बाज़ारों में कोरोना-काल के दौरान से पहले जैसी तेज़ी नहीं आ सकी है। वैसे इसके बावजूद देश चीन, अमेरिका और ब्रिटेन की तुलना में बेहतर दिख रहा है। साल 2023 में चीन की जीडीपी वृद्धि दर 4.4 फ़ीसदी रहने का अनुमान है, जबकि भारत की अनुमानित वृद्धि दर 6.1 फ़ीसदी बतायी गयी है। आईएमएफ के अलावा हाल में जापानी ब्रोकरेज फर्म नोमुरा की भी एक रिपोर्ट सामने आयी है। इसमें कहा गया है कि साल 2023 में दुनिया की प्रमुख अर्थ-व्यवस्थाएँ मंदी का सामना करेंगी। रिपोर्ट में टेक कम्पनियों के पिछले 5-6 महीने ख़राब बीतने का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि अमेरिकी शेयर बाज़ार पर गिरावट का दौर है। अमेरिकी टेक कम्पनियाँ गूगल, एप्पल, टेस्ला पर सबसे ज़्यादा मार पड़ रही है, जबकि दुनिया में अमेरिका की अर्थ-व्यवस्था सबसे मज़बूत है।

ख़ुद राष्ट्रपति जो बाइडेन स्वीकार कर चुके हैं कि अमेरिका मंदी का सामना कर सकता है। ज़ाहिर है इसका असर दुनिया भर में पड़ेगा। हालाँकि उनका यह भी कहना है कि उसने इस सम्भावित संकट से उबरने की तैयारी की है, जिससे उसके पास इसका मुक़ाबला करने की क्षमता है। अमेरिका, यूरोप के अलावा चीन का भी आर्थिक मंदी में जाना तय माना जा रहा है। कारण यह भी है कि शून्य कोरोना नीति के चलते चीन को बड़ा आर्थिक नुक़सान सहना पड़ा है। आज भी हालत यह है कि वहाँ कोरोना का एक भी मामला सामने आ जाए, तो वहाँ सख़्त पाबंदियाँ लगा दी जाती हैं। इससे कारोबार ठप पड़ जाते हैं और उद्योग को भी बड़ा धक्का लगता है।

इसके अलावा रूस-यूक्रेन युद्ध ने दुनिया की आर्थिक स्थिति पर जबरदस्त असर डाला है। दरअसल कोरोना महामारी के भयंकर दो साल के बाद रूस-यूक्रेन युद्ध ने भी दुनिया की आर्थिकी पर विपरीत असर डाला है। वैश्विक निर्यात शृंखला (ग्लोबल सप्लाई चेन) की कमर टूट गयी है और कच्चे तेल के भाव अचानक आसमान छूने रहे हैं। इससे दुनिया भर में आवश्यक चीज़ों का संकट होने से उनके दाम बढ़े हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि रूस और यूक्रेन, दोनों ही गेहूँ-जौ जैसे अनाजों के बड़े निर्यातक हैं।

भारत ही नहीं दुनिया है। कई देश आज की तारीख़ में महँगाई से परेशान हैं। ब्रिटेन में तो महँगाई पिछले 40 साल के सबसे ऊँचे स्तर पर है। अमेरिका भी महँगाई पर क़ाबू के लिए ब्याज दरों में बढ़ोतरी कर रहा है। भारत में हाल में रेपो रेट में लगातार वृद्धि की गयी, जिसका मक़सद महँगाई पर क़ाबू पाना है, क्योंकि देश में खुदरा महँगाई दर आठ फ़ीसदी से ऊपर है।

हाल में स्टिजरलैंड बेस्ड ग्लोबल इंवेस्टमेंट बैंक और दुनिया की टॉप फाइनेंशियल सर्विसेज कम्पनी क्रेडिट सुइस जैसी दिग्गज कम्पनी का शेयर अब तक के सेबल निचले स्तर पर आगे, जिसके बाद आर्थिक विशेषज्ञों ने इसे भविष्य में वैश्विक मंदी का बड़ा संकेत बताया। इस कम्पनी के शेयर 10 अक्टूबर को 10 फ़ीसदी नीचे गिर गये। माना जाता है कि बढ़ती महँगाई के कारण कम्पनी ख़राब वित्तीय स्थिति में फँसी है। रिपोट्र्स के मुताबिक, साल भर पहले ही क्रेडिट सुइस का मार्केट कैप 22.3 बिलियन डॉलर था, जो अब घटकर 10.4 बिलियन डॉलर पर पहुँच गया है, जो इसके शेयरों में 56 फ़ीसदी की गिरावट दर्शाता है। विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि क्रेडिट सुइस जैसी ग्लोबल कम्पनी को ऐसी स्थिति झेलनी पद रही है, तो यह ग्लोबल फाइनेंशियल मार्केट के ध्वस्त होने के संकेत हैं।

इसके अलावा पिछले कुछ महीने से कच्चे देल के दाम में लगातार बढ़ोतरी हुई है और इसके दाम लगातार 90 से 100 डॉलर प्रति बैरल से भी ज़्यादा चल रहे हैं। यह माना जाता है कि जब भी किसी देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में बिना नागा छ: महीने (दो तिमाही) तक गिरावट होती जाए, तो अर्थशास्त्र की भाषा में इसे आर्थिक मंदी माना जाता है। लेकिन लगातार दो-तिमाही तक जीडीपी दर 10 फ़ीसदी गिर जाए, तो इसे मंदी (डिप्रेशन) कहा जाता है। इसे अर्थशास्त्री बेहद चिन्ताजनक मानते हैं। इसके लिए 1930 के दशक में विश्व युद्ध के बाद की महामंदी का उदाहरण दे सकते हैं। मंदी से जब विकट हो और निचले स्तर पर पहुँच जाएँ, तो उसे महामंदी कहते हैं।

आर्थिक मंदी की सबसे पहली मार जीडीपी के आकर पर पड़ती है और दैनिक उपयोग की ची•ों महँगी हो जाती हैं। ख़र्च बढ़ जाता है और आय गिरने लगती है। इसका असर जनता के ख़रीदारी की क्षमता पर पड़ता है। इसके अलावा कम्पनियाँ पैसा बचने के लिए कर्मचारियों की छँटनी (ले ऑफ) शुरू कर देती हैं। इससे का असर यह होता है कि बेरोज़गारी की लाइन और लम्बी हो जाती है। हाल के कोरोना-काल में यह दिखा था। छोटे व्यवसाय (एमएसएमई) ठप पड़ जाते हैं। कच्चा माल भी महँगा हो जाता है और शेयर बाज़ार में लगा पैसा लोग निकालने लगते हैं।

भारत झेल चुका है मंदी

आज़ादी के बाद सन् 1991 में भारत ने सबसे बड़ी मंदी का सामना किया था। देखा जाए, तो भारत में दो बार मंदी आयी है। पहली बार सन् 1991 में और उसके बाद सन् 2008 में। सन् 1991 में आयी भयंकर मंदी के समय तो भारत की आर्थिक हालत यह थी कि हमारे पास महज़ इतनी ही विदेशी मुद्रा बची थी कि सिर्फ़ तीन हफ़्ते के आयात ख़र्चे पूरे किये जा सकते थे। उस समय भारत क़र्ज़ की क़िस्तें चुकाने में असमर्थ हो गया था और देश का सोना गिरवी रखना पड़ा था। तब देश में चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली सरकार थी।

इसके बाद दूसरी बार सन् 2008 में बड़ी मंदी का सामना देश ने किया, जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। उस मंदी का कारण हालाँकि वैश्विक थे और आर्थिक विशेषज्ञों ने कहा था कि एक जाने-माने अर्थशास्त्री के सत्ता में होने के कारण देश ने इसका बेहतर तरीक़े से सामना किया था।