मंथन ही मंथन

आरएसएस प्रमुख ने देश की राजधानी में अभी हाल में हुए तीन दिन के प्रबोधन समारोह में जो कुछ कहा वह कम महत्वपूर्ण नहीं है। अपनी साफ और ईमानदारी से कही गई बातों से दिल्ली के बुद्धिजीवियों का उन्होंने दिल जीत लिया। उनके लंबे भाषण और फिर उन पर सवाल और जवाबों से एक संस्थान को समझने में निश्चय ही श्रोताओं को आसानी हुई होगी। जबकि संशयवादियों ने उनके कई बयानों से सहमति भी जताई।

बड़ा कठिन है आरएसएस को समझना जबकि उसे गलत समझ लेना बहुत ही आसान। एक विद्वान ने तीन दशक पहले यह टिप्पणी की थी। उन भागीदारों में वे थे जो आरएसएस को बाहर से देख रहे थे। कुछ ऐसे भी थे जो आरएसएस को अंदर से देखते आ रहे थे। कठिनाई आरएसएस की बनाई हुई थी। इस तथ्य के बावजूद जिसे भागवत ने अपने भाषण में  अहमियत भी दी-केबी हेडगेवार। वे 1936 में ही प्रचार शाखा चाहते थे। आरएसएस कुल मिला कर मौन और छिपा सा ही रहा।

‘प्रसिद्धि प्राणमुखता’ यानी लोकप्रियता से बचो एक ऐसा लेख है जिस पर आरएसएस आज भी यकीन करता है। पहले छह दशकों तक बहुत कठोरता सख्ती और लगन से उस पर ध्यान दिया गया। फिर 1985 में जब संगठन ने अपना साठवां साल मनाया तो तय किया कि जनता के बीच व्यापक संपर्क अभियान करेंगे। तब आरएसएस के नेताओं को पता लगा कि ज्य़ादातर को तो पता ही नहीं है कि कोई संगठन है जिसमें राय-मश्विरा होता है। हालांकि यह अखिल भारतीय है लेकिन यह सहता है आलोचना और उपहास भी। ऐसा करने वालों में ज्य़ादातर को बहुत कम जानकारी होती है लेकिन उसे कभी जवाब नहीं देते। एक बहुत ही नामी विद्वान ने आरएसएस की तुलना कछुए से की। जब कछुए पर लाठियां बरसती है तो वह अपनी खोल में सिमट जाता है बाद में जब हमलावर चले जाते हैं तो यह अपने अंग निकालता है और चलने लगता है। यानी नतीजा होता है वही घिसीपिटी बातें और बदनामी।

संस्था में खुलापन लाने वाले पहले नेता थे बाला साहब देवरस। वे आरएसएस के तीसरे प्रमुख थे। उनके नेतृत्व में संस्थान ने बाहर निकल कर समाज में हाथ-पांव फैलाने शुरू किए। इसकी तीन बड़ी महत्वपूर्ण शाखाएं थीं – सेवा, संपर्क और प्रचार। इनकी शुरूआत तभी हुई।

भागवत एक कदम और आगे बढ़े। तीन दिन के अपने प्रवचन में उन्होंने खुलेपन और महत्वपूर्ण वैचारिक सवालों पर अपनी बात रखी जिससे संस्थान  की पहचान हो। अंदर का व्यक्ति होने के नाते मैं बदलाव का एक जानकार हूं जो कुछ पिछले एक दशक में हुआ या जब से भागवत गद्दी पर आए। उन्होंने पहले भी इस बदलाव की बात देशवासियों से की थी।

सबसे महत्वपूर्ण बयान था हिंदू राष्ट्र और मुसलमान। भागवत बदलाव को दोहराते, ‘कोई हिंदू राष्ट्र, नहीं यदि उसमें मुसलमान नहीं।’ वे एक तरह से घोषणा ही करते। चूंकि वे दुहराते तो उसके कई अर्थ निकलते। मुझे याद आता है, 1980 के दशक मेें आरएसएस के एक नेता कार्यकर्ता से पूछा गया – ‘क्यों मुसलमानों, और ईसाइयों को आरएसएस में नहीं आने देते।’ उसने सवाल के जवाब में सवाल किया, ‘क्या लड़कियों के स्कूल में लड़कों को प्रवेश मिलता है।’ आरएसएसय का लक्ष्य है हिंदुओं में एकता बढ़ाना। इसमें सवाल ही कहां उठता है कि उन्हें बुलाया जाए जो हिंदू नहीं है। धर्म से, संस्कृति से या जो हो। देखिए उस बयान से अब तक एक पूरी यात्रा हो गई।

यह सच ही है जब भागवत तटस्थ तौर पर मानते हैं कि ‘बंच ऑफ थॉट्स’ और दूसरे प्रकाशनों में गुरू गोलवलकर की बातों को उनके दौर के ही हिसाब से मानना चाहिए। उनका समय निकल गया अब वह सम सामयिक नहीं। दूसरे शब्दों में उन्होंने यह भी माना कि गोलवलकर के कुछ बयान समय के साथ ही खत्म हो गए। वे अब संदर्भहीन हैं। यही है वह खुलापन और बौद्धिक ईमानदारी यदि पाठक को महात्मा गांधी के विचारों मेें कहीं परस्पर विरोध लगे तो वे नवीनतम हालातों या समय के अनुसार ही चलें। भले ही गांधी ने तब ज्ञान और अपने विचारों में कितने ही ताजगी क्यों न रखी हो। भागवत की सलाह है कि इस तर्क को आरएसएस में भी अमल में लाया जाए।

दरअसल ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में गोलवलकर के भाषणों का संकलन है जब वे लगभग 33 वर्ष तक आरएसएस प्रमुख रहे। उन्होंने कभी प्रवचन के मुद्दों को न तो लिखा और न शीर्षक वगैरह ही दिए। यदि कोई उनके भाषणों के खंडों को पढ़ डाले तो पाएगा कि ज्य़ादातर जो विवाद हैं वह बेमलतब हैं। उस पर भी भागवत का यह मानना है कि गलत सोच को दूर करना चाहिए।

कई और दूसरे मुद्दों पर भी भागवत ने एकदम अलग और खुला फैसला लिया। इससे संघ के अंदर के ही लोग चकित हो उठते। उनका संविधान में भरोसा रहा। उन्होंने पूरी वह भूमिका भी पढ़ डाली जिसमें समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्द भी थे। महिलाओं के दर्जे पर उनका स्टैंड ऐतिहासिक रहा है साथ ही आरएसएस के नज़रिए से एकदम अलग। समानता और आज़ादी – शब्द हैं जिनका वे इस्तेमाल करते हैं जब वे महिलाओं पर आरएसएस का नजरिया बताते हैं। उन्होंने तो एक बार यह भी कहा था कि आरएसएस यह प्रस्ताव मानने को तैयार है कि ‘सभी धर्म आपस में समान हैं। आरएसएस में कई यह कहेंगे कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ होना चाहिए, सभी धर्मों को समान आदर दिया जाना चाहिए। (सर्वपंथ समादर) न कि ‘सभी धर्म एक समान हैं।’ (सर्व पंथ संभाव)।

आरएसएस के अंदर कई लोग यह कहेंगे कि इसमें कुछ भी नया नहीं है जो भागवत ने कहा। संगठन हमेशा उन मूल्यों में लिए खड़ा रहा लेकिन हमेशा दो लाइन का संघर्ष होता ही है। एक पहेली हमेशा जो अपनी सोच में ही घिरी रहती है।

यह संक्रमण सहज नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने विचारों से भागवत ने अपने कई आलोचकों को स्तब्ध कर दिया। लेकिन उन्होंने हमेशा संगठन में सभी लोगों को नई सोच से रूबरू किया। यह किस तरह अमल में आएगा यह भागवत के लिए चुनौती भरा काम है।

आने वाले दिनों में संगठन को भागवत कई साल और नेतृत्व देंगे। उनका संस्थान में खासा मान-सम्मान है। वे बहुत साफ, स्पष्टवादिता और संकल्प के साथ अपनी बात रखते हैं। उनमें यह क्षमता है कि वे जिस दिशा में चाहें, संगठन को ले जाएं।

‘यदि मैं नहीं तो कौन? और अभी नहीं, तो कब? लगता है भागवत भी संकल्पित है।’