भ्रष्टाचार का सजावटी सत्कार

साफ-सुथरा प्रशासन देने के लिए चर्चित गहलोत सरकार के सियासी नक्शे पर भ्रष्टाचार के लक्षण दिखने शुरू हो गये हैं। इस दौड़ में परिवहन महकमा बाज़ी मारने पर तुला है। भ्रष्टाचार निरोधी महकमे की कार्रवाई में बेशक अभी इसका छोटा-सा हिस्सा उजागर हुआ है। अलबत्ता निजी बस ऑपरेटर और परिवहन महकमे के अफसरों के बीच लेन-देन की परतें कहीं ज़्यादा गहरी हैं। राजनीतिक रसूख ने भ्रष्टाचार की कालिख और बढ़ा कर दिया है। मुद्दा गरमाया, तो भ्रष्टाचार पर ज़ीरो टॉलरेंस के सवाल पर मुख्यमंत्री गहलोत यह कहते हुए बिफर पड़े कि संवेदनशील और जवाबदेह प्रशासन मेरे अकेले की ही नहीं, बल्कि सभी मंत्रियों और नौकरशाही की ज़िम्मेदारी भी है। जनता ने हमें ऊँचे पदों पर बैठाया है। अफसर-कर्मचारी कोताही बरतेंगे, तो सरकार की उन पर नज़र रहेगी।

यह सरकारी महकमों में गहरे पैठते भ्रष्टाचार पर मुख्यमंत्री का गुस्सा भर नहीं है। असल में यह मंत्रियों का निकम्मापन है, जिन्हें अपने काम की गम्भीरता का कतई अंदाज़ा नहीं है। आिखर क्यों मीडिया ने इस महकमे को खुलकर निशाने पर लिया कि राजनीतिक रसूख तो अहम किरदार है ही। सरकारी परिवहन सेवा को बरबाद करने के लिए दूसरे हथकंडे भी खुलकर अपनाये जा रहे हैं। समस्या यह है कि अगर परिवहन मंत्री प्रतापसिंह खाचरियावास की नज़र समूची व्यवस्था पर नहीं है, तो फिर इस खुले खेल पर कौन शिकंजा कसेगा? जब सरकारी बसों को जानबूझकर लेट करवाकर निजी बसें आगे दौड़ाई जा रही हैं, तो कहने को क्या बचा है? जयपुर समेत कोटा, डूंगरपुर, भीलवाड़ा, पाली, अजमेर, जोधपुर, राजसमंद और हनुमानगढ़ में नेताओं और अफसरों की शह पर निजी बसें दौड़ रही हैं। जानकारों का कहना है कि जब बिना नियमों के चल रही इन बसों को परिवहन महकमे ने ही हरी झंडी दे रखी है, तो परिवहन मंत्री प्रतापसिंह खाचरियावास को मुख्य खलनायक के रूप में क्यों नहीं देखा जाएगा? भ्रष्टाचार निरोधक विभाग द्वारा इस खेल की बखिया उधेडऩे के बावजूद खाचरियावास अगर अपनी सफाई का रिपोर्ट कार्ड पेश करने के लिए मुख्यमंत्री के पास जाते हैं, तो क्या अर्थ रह जाता है? हालाँकि, खाचरियावास इसे मुख्यमंत्री से औपचारिक मुलाकात बताते हैं। लेकिन विश्लेषक कहते हैं कि एक मंत्री की मान्यताओं और मंत्रालय की अपेक्षाओं के बीच इतनी चौड़ी खाई विरले ही देखने को मिलती है। सवाल यह नहीं कि मंत्रालयों में सबसे खराब प्रदर्शन परिवहन मंत्री खाचरियावास का ही है? बल्कि इतने खराब प्रदर्शन के लिए ज़िम्मेदार कौन है? बहरहाल इस मंत्रालय के विरुद्ध अक्षमता का आरोप काफी बड़ा है। एक तरफ मुख्यमंत्री खुलकर परिवहन मंत्रालय को अक्षमता का सर्टिफिकेट जारी कर रहे हैं। दूसरी तरफ खाचरियावास का दावा चौंकाता है कि महकमे में जो खामियाँ थीं, हमने उन्हें दूर किया है। जो परिवहन का बेड़ा निजी हाथों में सौंपा जा रहा था, हमने उसे बन्द कर दिया है। लेकिन सवाल है कि कहाँ हुआ ऐसा? उनका यह दावा तो सरासर गलत है कि हमने प्राइवेट बस माफिया को बन्द कर दिया है। आिखर परिवहन मंत्री के पास इन सवालों का क्या जवाब है कि सड़क सुरक्षा का ज़िम्मा सँभालने वाले फिटनेस केंद्रों को निजी हाथों में क्यों दिया गया है? जबकि फर्ज़ीवाड़े की शिकायतों के बाद भी इन्हें विकसित किया जा रहा है। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार में परिवहन मंत्री रहे बाबूलाल वर्मा की मानें तो, आये दिन एसीबी के छापे पड़ रहे हैं। ज़ाहिर है कि महकमे में खुलेआम भ्रष्टाचार हो रहा है। जब निजी बसों का गैर-कानूनी संचालन जारी है, तो कहाँ थमा भ्रष्टाचार? परिवहन महकमे और निजी बस संचालकों की साँठ-गाँठ को लेकर लोगों का कहना है कि प्राइवेट बसों की दौड़ में नेता और अफसरों का पूरा हाथ है। निजी बसों को जिस तरह हरी झंडी मिली हुई है? बसों में की जा रही कोड स्टीकरों की सजावट तो इस खेल की खुलकर तस्दीक करती है। भुवनेश जैन कहते हैं कि पैसा खिलाकर बिना फिटनेस सर्टिफिकेट के बसें चलाकर जनता की ज़िन्दगी से खिलवाड़ किया जाता है। बच्चे मरे या बड़े, किसी को क्या फर्क पड़ता है? बूँदी ज़िले के लाखेरी में मेज नदी दुखांतिका इसकी सबसे ताज़ा मिसाल है। इसमें 24 व्यक्तियों की मौत हो गयी। बुरी तरह कंडम हो चुकी बस को परिवहन विभाग ने कैसे इजाज़त दे रखी थी। परिवहन महकमे के सूत्रों की मानें, तो प्रदेश के परिवहन बेड़े में 742 बसें कंडम है। लेकिन उन्हें मौत की राह पर चलाया जा रहा है। परिवहन महकमा किस कदर गले-गले तक भ्रष्टाचार के दलदल में डूबा है, इसकी ज्वलंत मिसाल है वह रिपोर्ट है, जिसमें कहा गया है कि ट्रक के मालिक और ड्राइवर परिवहन अधिकारियों तथा पुलिस को सालाना 48,000 करोड़ की रिश्वत देते हैं। रिश्वत वसूलने में राजस्थान दूसरे नंबर पर है। इस सूबे के ट्रक ड्राइवरों को प्रत्येक लम्बी फेरी में औसतन 1803 रुपये की रिश्वत देनी पड़ती है।

दूसरी तरफ इन दिनों जिस तरह सम्पत्ति का एक बड़ा हिस्सा बजरी माफिया की झोली में जा रहा है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या राजस्थान बजरी माफिया की गिरफ्त में पहुँच गया है? 27 फरवरी को जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राज्य विधानसभा में बजट पर जवाब दे रहे थे, तो पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के ‘सुपर रिच’ खेल पर चुटकी लेने से नहीं चूके कि बजरी माफिया 5 करोज़ रुपये प्रतिमाह किसको दे रहे थे? यह तो बता दो! गहलोत का बजरी मुद्दे पर करारा पलटवार विपक्षी नेताओं राजेन्द्र राठौड़ और किरण माहेश्वरी सरीखे नेताओं पर था। क्योंकि बजरी का मुद्दा इन्होंने उठाया था। गहलोत ने प्रश्नकर्ता विपक्षी नेताओं को ही यह कहकर निरुत्तर कर दिया कि बजरी बन्द क्यों हुई है? ये जंजाल क्यों पैदा हुआ? यह तो बता दो! गहलोत ने कहा कि ताज्जुब है आप हमसे पूछ रहे हो बजरी कहाँ गयी? दिलचस्प बात है कि आज भी बजरी माफिया का खौफ कायम है। स्याह काली रातों में पुलिस और खनन महकमे के अफसरों की मिलीभगत से रेत माफिया अवैध कारोबार कर रहे हैं। लेकिन प्रश्न है कि बजरी माफिया की तहें खँगालने की दिशा में मौज़ूदा सरकार के खान मंत्री प्रमोद भाया ने क्या किया? विश्लेषकों की मानें, तो बजरी माफिया पूरी तरह बेखौफ हैं। सवाल यह है कि इनकी धरपकड़ नहीं होने का क्या मतलब हुआ? क्या उनके निकम्मेपन को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया जा रहा है।

यह स्थिति तब है, जब अलवर में अरावली के खत्म होते पहाड़ों को देखकर सुप्रीम कोर्ट टिप्पणी कर चुका है कि क्या इन पहाड़ों को हनुमानजी उठाकर ले गये? खनन माफिया जहाँ सक्रिय है, पुलिस नाका और सदर थाना क्षेत्र भी है। यहाँ स्याह रातों में हर रोज़ रात को सौ से ज़्यादा भरी हुई ट्रैक्टर ट्रालियाँ निकलती है। प्रसंगवश यहाँ वसुंधरा सरकार के दौरान रेत खनन पर अदालती रोक का उल्लेख भी करना ज़रूरी होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने चार मई, 2018 को तत्कालीन वसुंधरा सरकार की उस याचिका को खारिज कर दिया था, जिसमें नवंबर, 2017 से ही रेत के खनन पर लगाये गये पूर्ण प्रतिबंध पर कुछ रियायत देने की माँग की गयी थी। जबकि जस्टिस एम.बी. लोकुर का कहना था कि पारिस्थितिकी पर खनन के प्रभाव तथा रेत की फिर से भराई की दर के वैज्ञानिकी आकलन के बाद ही खनन की अनुमति दी जाएगी। इससे एक दिन पहले राजस्थान उच्च न्यायालय ने सभी ज़िला कलेक्टरों को आदेश दिया था कि वे राज्य में रेत बजरी खनन की गतिविधियाँ रोकने के लिए विशेष दलों का गठन करे? जबकि चौंकाने वाली बात है कि तत्कालीन वसुंधरा सरकार ने अवैध खनन रोकने के लिए बनाये गये 80 चेक पोस्ट भी हटवा दिये थे; आिखर उनकी क्या मंशा थी? अब सवाल यह है कि इन आदेशों पर अमल को लेकर खान मंत्री प्रमोद भाया अब तक क्या कर पाये हैं? सरकार बेशक बदल गयी; लेकिन बजरी माफिया पुलिस की छत्र छाया में पूरी तरह फल-फूल रहा है। विरोध करने वालों को अपनी जान देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है? लेकिन अफसरों और नेताओं का पेट पाप की कमाई से भरता ही नहीं? बीकानेर में बजरी माफिया के ओवरलोड ट्रैक्टर-ट्रॉली ने तीन महिलाओं को कुचल दिया। लेकिन क्यों इस दुर्घटना से महकमे ने सबक नहीं लिया? सूत्रों का कहना है कि मंत्री प्रमोद भाया उपासना में घंटों खपाते हैं, लेकिन पाप की कमाई का परनाला नहीं थमेगा, तो उपासना का मतलब क्या? प्रश्न है कि मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों को सुधारें भी तो कैसे? भाया डेयरी महकमे के भी मंत्री हैं। उनकी अपने महकमे में तबादले की बानगी देखिए, वह कहते हैं- ‘मुझे डेयरी संधों में तबादलों की भी कोई जानकारी नहीं है। वैसे डेयरी संघों में होने वाले तबादलों की फाइलें मेरे पास आती भी नहीं…!’

मुख्यमंत्री गहलोत खरी-खरी कहने के मामले में जयपुर विकास प्राधिकरण को निशाने पर लेने से भी नहीं चूके कि प्राधिकरण में इतना भ्रष्टाचार हो रहा है कि कोई ईमानदार अफसर वहाँ लगना ही नहीं चाहता? गहलोत ने मिसाल देते हुए कहा कि अगर दो बिल्डिंग अवैध है, तो प्राधिकरण के अफसर एक को तोड़ेंगे और दूसरी को पैसा लेकर छोड़ेंगे। इससे अफसरशाही का मनोबल नहीं टूटेगा तो क्या होगा? हालाँकि, कुछ जानकारों का कहना है कि भ्रष्टाचार की वजह से कम कुशल लोग मोटी कमाई कर रहे हैं और यह काली कमाई बढ़ती जा रही है। वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हैं कि अगर मुख्यमंत्री ही पल्ला झाड़ दे, तो सरकार कहाँ है? उन्हें प्रदेश के सात करोड़ लोगों ने दायित्व सौंपा है.. वे कहाँ जाएँगे? इसलिए ज़रूरी है कि मुख्यमंत्री संवेदनशील प्रशासन का उदाहरण पेश करें।