भेदभाव और नफरत पर पछतावा

संसार में सभी प्राणियों से ज़्यादा समझदार माना जाने वाले इंसान सदियों से आपस में भिड़ता रहा है, आपस में खून-खराबा करता रहा है। यह तब है, जब तकरीबन हर इंसान यह मानता है कि सभी एक ईश्वर की संतान हैं। दरअसल इंसानों के आपसी टकराव की वजह भाषा, क्षेत्र, मज़हब आदि का बँटवारा, आपसी मतभेद, एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़, अधिकतर लोगों द्वारा खुद को बड़ा और ऊँचा दिखाने की कोशिश, नफरत और धन-बल की हैसियत आदि है। कुल मिलाकर सभी एक-दूसरे से जीतने में लगे हुए हैं। जो जिस स्तर का है, वह उसी स्तर पर जीतना चाहता है। दूसरे लोगों से जीतने की यही ज़िद बहुत-से इंसानों को अपराधी तक बना देती है और जब इंसान आपराधिक प्रवृत्ति अिख्तयार कर लेता है, तो उसे न मज़हब की सीख याद रहती है और न यह याद रहता है कि एक दिन उसे सब कुछ छोड़-छाडक़र इस नश्वर संसार से विदा होना है।

ऐसी बहुत-सी घटनाएँ हैं, जिनमें लोगों ने इस बात की सीख अन्तिम समय में ली है कि ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, दुनिया भर की हाय-हाय, भेदभाव, एक-दूसरे से नफरत और मज़हबों तथा ज़ात-पात का बँटवारा, सब कुछ व्यर्थ है। ऐसी ही एक कहानी शाहजहाँपुर के एक गाँव की है। इस गाँव में एक ठाकुर परिवार रहता था, किसी ज़माने में इस गाँव की ज़मींदारी इसी ठाकुर परिवार के पास थी। जब देश आज़ाद हुआ, तो ज़मींदारी भी चली गयी; पर ठाकुर परिवार की अकड़ और भेदभाव की सोच नहीं गयी। ठाकुर परिवार का उसूल था कि गाँव का कोई भी आदमी इस परिवार की दहलीज़ नहीं लाँघ सकता था। अगर उनके मज़हब का न हो, तब तो और भी नहीं। न ही ठाकुर परिवार का कोई सदस्य किसी दूसरों के घर जाता था, जिसकी अटकती वह हाथ जोडक़र ठाकुर साहब के पास आकर गुहार लगाता। इस परिवार में तीन ही प्राणी थे- ठाकुर साहब, उनकी पत्नी और एक बेटा। बेटा बाहर पढ़ता था। घर में कई नौकर-चाकर थे, जिन्हें ठीक से कभी भी मेहनताना नहीं मिला; लेकिन मजाल क्या कि कोई ठाकुर साहब से कुछ कह दे। क्योंकि बड़े-बड़े रसूखदारों और थाने के बड़े अफसरों से ठाकुर साहब के अच्छे ताल्लुक थे। लेकिन दौलत अगर गलत तरीके से कमायी गयी हो, तो वह कभी-न-कभी घर से विदा हो ही जाती है। यही इस परिवार के साथ हुआ। ठाकुर साहब का इकलौता बेटा, जो कि बाहर पढ़ाई करता था, न जाने कब और कैसे नशे की गिरफ्त में आ गया। बस यहीं से ठाकुर साहब के घर में बर्बादी का घुन लग गया। बेटा जब-तब घर से पढ़ाई और अन्य खर्चों के नाम पर पैसे मँगाने लगा। अगर ठाकुर साहब मना करते, तो मरने की धमकियाँ मिलतीं। इकलौती संतान, सो ठाकुर साहब मजबूर होकर रकम देते जाते। इसकी वसूली वह अपने नौकरों से ज़्यादा काम कराकर और कम मेहनताना देकर करना चाहते; लेकिन कहा जाता है कि यदि घड़े की तली टूटी हो, तो उसमें कितना भी पानी भरो, वह कभी नहीं भर सकता। फिर बेटे द्वारा लुटायी जा रही रकम के आगे मज़दूरों की मज़दूरी भला थी ही क्या? धीरे-धीरे समय बीतता गया और ठाकुर साहब के लाडले के बिगडऩे के साथ-साथ उनका धन भी बुरी तरह खत्म होता जा रहा था।

यह वह दौर था, जब गाँव के कुछ लोग परदेश निकलने लगे थे और कुछ अपना कारोबार करके ठीकठाक पैसा कमाने लगे थे। बेटे के बढ़ते खर्च को देखते ठाकुर साहब ने भी सोचा कि कोई नया व्यवसाय किया जाए, ताकि बेटे की डॉक्टरी की पढ़ाई में बाधा न पड़े; जिस दिन बेटा डॉक्टर बनकर लौटेगा, सब वसूल हो जाएगा। यही सोचकर ठाकुर साहब ने अनाज खरीदने का धंधा शुरू किया, पहली धान की छमाही में उन्हें ठीक-ठाक मुनाफा भी हुआ। वह खुश थे कि अब उनके जिगर के टुकड़े को कभी खर्चे की कमी नहीं पड़ेगी। अगली गेहूँ छमाही में उन्होंने और अधिकतर पैसा लगाकर गेहूँ खरीदा, ताकि मोटा मुनाफा कमा सकें। कई टन गेहूँ उनके भण्डारगृह में बन्द था कि एक दिन अचानक खबर मिली कि उनका बेटा वाहन दुर्घटना का शिकार हो गया है। ठाकुर साहब के पास नकदी बहुत कम थी, जिसे लेकर एक नौकर के साथ वह शहर की ओर दौड़े। वहाँ जाकर पता चला कि उनके जिगर का टुकड़ा अधमरी हालत में अस्पताल की शय्या पर है। ठाकुर साहब डॉक्टर के पैरों पड़ गये, रोते हुए बोले- डॉक्टर साहब! मेरे बेटे को बचा लो, यह भी आप ही की तरह डॉक्टर बनने की तैयारी कर रहा है; इसे बचा लो, अपने छोटे भाई को बचा लो। उस रात ठाकुर साहब ने कुछ नहीं खाया और न ही सोये, बेटे के पास कभी सिर की तरफ, तो कभी पैरों की तरफ बैठे रहे। कभी-कभी रोने लगते, तो कभी-कभी बड़बड़ाते मैंने ही तुम्हें शहर क्यों भेज दिया, मेरी मति मारी गयी थी। घर में किस चीज़ की कमी थी। सुबह हो गयी, बेटे की स्थिति नहीं सुधरी। नौकर भी भूखा-प्यासा था, सो बोला मालिक छोटे मालिक ठीक हो जाएँगे, आपने कल से कुछ नहीं खाया है, कुछ खा लीजिए। ठाकुर साहब ने जेब से दो रुपये उसे देते हुए बोले- जा तू खा ले। नौकर पैसे लेकर चाय, बिस्किट ले आया। ठाकुर साहब उसके हाथ का पानी तक नहीं पीते, लेकिन उस दिन उसके हाथ से लायी हुई चाय पी ली। एक कंपाउंडर आया और बोला, इनका ऑप्रेशन होगा 50 हज़ार रुपये जमा कराइये। ठाकुर साहब तो घर से चार-पाँच हज़ार लेकर ही चले थे, वह भी खर्च हो गये। अब क्या करें? बेटे का इलाज ज़रूरी है और पैसे का बंदोबस्त नहीं है। सो नौकर को वहीं छोडक़र घर चल दिये और औने-पौने दामों में गोदाम में भरा गेहूँ बेच डाला, लेकिन पूरी रकम नहीं जुटा सके। पूरे 12,000 कम थे। रिश्तेदारों से माँगते, मगर वे दूर-दूर बसे हुए थे। गाँव में इतनी रकम किस पर होती। फिर याद आया हाजी जी के पास काम हो सकता है, उनका बेटा परदेश में है। हाजी जी से डरते-डरते मुँह डाला; पैसे मिल गये। ठाकुर साहब का बेटा ठीक हो गया। लेकिन ठाकुर साहब का जीने का नज़रिया बदल गया। अब वह सबके साथ उठते-बैठते, किसी से भेदभाव नहीं करते और नौकरों से भी विनम्रता से पेश आते। उन्हें अपने पुराने बर्ताव पर पछतावा होता। सबसे हाथ जोडक़र कहते कि इंसान बनकर जीने में जो सुख है, वो सुख नफरत, घृणा में नहीं है, चाहे घर में कितनी भी दौलत गढ़ी हो।