भारत में अल्पसंख्यक कौन और हिन्दुओं को सुरक्षा की आवश्यकता क्यों?

जब गृह मंत्री अमित शाह ने ज़ोर देकर कहा कि नरेंद्र मोदी सरकार तब तक नहीं रुकेगी और जब तक देश में सभी शरणार्थियों को सीएए के तहत नागरिकता नहीं दी जाती है, तब तक विपक्षी दल इसे मज़ाक ही मान ले रहे थे। उन्होंने स्पष्ट किया कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के कारण एक भी व्यक्ति नागरिकता नहीं खोयेगा। पश्चिम बंगाल में एक रैली में ‘और अन्याय नहीं’ अभियान शुरू करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि विपक्ष अल्पसंख्यकों को डरा रहा है।

मैं अल्पसंख्यक समुदाय के प्रत्येक व्यक्ति को आश्वस्त करता हूँ कि सीएए केवल नागरिकता देता  है, लेता नहीं है। यह आपकी नागरिकता को प्रभावित नहीं करेगा।

इससे एक प्रासंगिक सवाल उठता है कि अल्पसंख्यक कौन है? फरवरी में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (एनसीएम) को अल्पसंख्यक शब्द को पुनर्भाषित करने की माँग करने वाले एक अभ्यावेदन पर तीन महीने के भीतर जवाब देने का निर्देश दिया। यह अभ्यावेदन 15 महीने से आयोग के समक्ष लम्बित था। यह समझना मुश्किल है कि आयोग इतने लम्बे समय से अभ्यावेदन को क्यों दबाये बैठा था? राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 की धारा-2 (सी), जिसके तहत एनसीएम का गठन किया गया था, अधिनियम के प्रयोजनों के लिए केंद्र सरकार के अधिसूचित समुदाय के रूप में अल्पसंख्यक को परिभाषित करती है।

केंद्र सरकार ने दो सूचनाओं, एक 1993 में और दूसरी 2014 में जारी हुई; के माध्यम से छ: धार्मिक समुदायों- मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन को भारत में अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित किया। एनसीएम का वास्तव में यह तय करने में कोई बस ही नहीं था कि कौन अल्पसंख्यक है और कौन नहीं?

संविधान में परिभाषित नहीं अल्पसंख्यक

लगभग सत्तर साल पहले लागू हुआ भारत का संविधान देश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उन्नति के लिए विशेष मौलिक अधिकार प्रदान करता है। हालाँकि, संविधान में अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है, फिर भी अनुच्छेद-29 और 30 से साझे रूप से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह शब्द मुख्य रूप से धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को संदर्भित करता है।

साल 1958 में सुप्रीम कोर्ट ने केरल शिक्षा विधेयक के संदर्भ में जानना चाहा कि क्या अल्पसंख्यक समुदाय वह है, जो संख्यात्मक रूप से 50 फीसदी से कम है? इसके बाद न्यायालय ने टिप्पणी की कि भले ही उस प्रश्न का उत्तर पुष्टि के रूप में दिया गया हो, एक अन्य सवाल यह है कि किसका 50 फीसदी? भारत की सम्पूर्ण जनसंख्या का या राज्य की जनसंख्या का? जो संघ का हिस्सा है। -यह प्रश्न अनुत्तरित रह गया था। साल 1971 के डीएवी कॉलेज के मामले में यह कहा गया था कि धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों को केवल उस विशेष कानून के सम्बन्ध में निर्धारित किया जाना है, जिसे लागू करने की माँग की गयी है। दूसरे शब्दों में, यदि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम जैसे केंद्रीय कानून को चुनौती दी जाती है, तो ऐसे मामले में अल्पसंख्यक को पूरे भारत की जनसंख्या के संदर्भ में देखना होगा; किसी एक राज्य की नहीं।

टीएमए पाई मामले में शीर्ष अदालत के 2002 के फैसले ने अनुच्छेद-30 के तहत अल्पसंख्यक की परिभाषा की जाँच की और एक दिलचस्प निष्कर्ज़ पर पहुँचे कि चूँकि भारत में राज्यों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर हुआ था, इसलिए धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को राज्यवार माना जाता है।

भारत के प्रमुख न्यायविदों में से एक, वरिष्ठ अधिवक्ता फली एस. नरीमन ने 2014 में एनसीएम का 7वाँ वार्षिक व्याख्यान देते हुए टिप्पणी की कि टीएमए पाई में फैसला अल्पसंख्यकों के लिए एक अनसुलझी मुसीबत थी।

इस सबके माध्यम से एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकार से अल्पसंख्यक अधिकार बहुत व्यापक हैं। साल 2004 के संवैधानिक संशोधन बिलों में अल्पसंख्यकों के पुनर्निर्धारण का व्यापक रूप से विरोध किया गया था और इसे इसलिए खत्म (लैप्स) होने दिया गया, क्योंकि इससे अल्पसंख्यकों के अधिकारों में कई विसंगतियाँ और विकृतियाँ उत्पन्न होतीं।

बाल पाटिल मामले में 2005 का फैसला, धार्मिक अल्पसंख्यकों और भाषाई अल्पसंख्यकों को अलग तरह से मानता है। यह टीएमए पाई मामले के फैसले से सहमत था कि भाषाई अल्पसंख्यकों की पहचान भारत के एक विशेष राज्य के भीतर उनकी आबादी के आधार पर की जानी चाहिए, क्योंकि राज्यों को मूल रूप से भाषाई आधार पर पुनर्गठित किया गया था। दूसरी ओर, न्यायालय ने माना कि राज्य स्तर पर उनकी जनसंख्या के आधार पर धार्मिक अल्पसंख्यक दर्जे का आकलन  भारत की अखंडता और धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के खिलाफ होगा। नतीजतन, राष्ट्रीय स्तर पर छ: धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यक के अर्थ में आते हैं।

भारत में अल्पसंख्यक कौन है? (घटनाक्रम)

26 जनवरी, 1950 अल्पसंख्यकों के लिए विशेष मौलिक अधिकारों के साथ भारत का संविधान लागू हुआ।

अनुच्छेद-29 : अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण

(1) भारत के क्षेत्र में रहने वाले या हिस्से जिसकी अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति है, में रहने वाले नागरिकों को उसके संरक्षण का अधिकार होगा।

(2) किसी भी नागरिक को राज्य के अनुरक्षित किसी भी शैक्षणिक संस्थान, जो राज्य निधियों से सिर्फ धर्म, जाति, भाषा या इनमें से किसी एक आधार पर सहायता प्राप्त है;  में प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद-30 : शिक्षण संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के लिए अल्पसंख्यकों का अधिकार

(1) सभी अल्पसंख्यक, चाहे वे धर्म या भाषा के आधार पर हों; उन्हें अपनी पसन्द के शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।

(2) राज्य शिक्षण संस्थानों को सहायता देने में किसी भी शिक्षण संस्थान के खिलाफ इस आधार पर भेदभाव नहीं करेगा कि वह अल्पसंख्यक के प्रबन्धन के अधीन है, चाहे वह धर्म या भाषा पर आधारित हो।

22 मई, 1958 – केरल शिक्षा विधेयक, 1957 में भारत के संविधान के अनुच्छेद-143 (1) के तहत संदर्भ, सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य लोगों के बीच निम्नलिखित प्रश्न पर विचार किया- ‘क्या केरल शिक्षा विधेयक का कोई प्रावधान अनुच्छेद-30 (1) के तहत भारत के संविधान का उल्लंघन करता है?’ इसके जवाब के दौरान, शीर्ष अदालत ने चर्चा की कि- ‘अल्पसंख्यक क्या है? यह एक ऐसा शब्द है, जिसे संविधान में परिभाषित नहीं किया गया है। यह कहना आसान है कि अल्पसंख्यक समुदाय का अर्थ एक ऐसा समुदाय है, जो संख्यात्मक रूप से 50 फीसदी से कम है। लेकिन सवाल का पूरी तरह से जवाब नहीं मिला है, सवाल के एक भाग का अभी तक उत्तर दिया जाना है। अर्थात् 50 फीसदी क्या? क्या यह भारत की पूरी आबादी का 50 फीसदी या संघ के एक राज्य का 50 फीसदी हिस्सा?’

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि इस सवाल कि क्या इस बिल ने धारा-30 (1) का उल्लंघन किया? बिल खुद इसी आधार पर है कि केरल में जो अल्पसंख्यक हैं, वो इस धारा-30 (1) के तहत प्रदत्त अधिकारों के हकदार हैं। कोर्ट ने आगे कहा- ‘साफ कह रहे हैं, इस सवाल का जवाब देने के लिए हमें यह पूछने की ज़रूरत नहीं है कि अल्पसंख्यक समुदाय का मतलब क्या है या इसे कैसे निर्धारित किया जाए?’

5 मई, 1971 में डीएवी कॉलेज आदि बनाम पंजाब राज्य और अन्य में यह कहा गया था- ‘धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों को केवल उस विशेष कानून के सम्बन्ध में निर्धारित किया जाना है, जिसे लागू करना है। यदि यह राज्य विधानमंडल है, तो इन अल्पसंख्यकों को राज्य की जनसंख्या के सम्बन्ध में निर्धारित किया जाना है।’

12 जनवरी, 1978 को अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की परिकल्पना गृह मंत्रालय के प्रस्ताव में की गयी थी, जिसमें विशेष रूप से उल्लेख किया गया था कि ‘संविधान में प्रदत्त सुरक्षा उपायों और लागू कानूनों के बावजूद, अल्पसंख्यकों में असमानता और भेदभाव की भावना बनी रहती है। धर्मनिरपेक्ष परम्पराओं को बनाये रखने और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार अल्पसंख्यकों के लिए प्रदान किये गये सुरक्षा उपायों को लागू करने के लिए सबसे अधिक महत्त्व देती है और यह स्पष्ट विचार है कि सभी के प्रवर्तन और कार्यान्वयन के लिए प्रभावी संस्थागत व्यवस्था की तत्काल आवश्यकता है। संविधान में अल्पसंख्यकों के लिए केंद्र और राज्य के कानूनों में और सरकारी नीतियों और प्रशासनिक योजनाओं में समय-समय पर दी गयी सुरक्षा प्रदान की गयी है।’

1984 को अल्पसंख्यक आयोग को गृह मंत्रालय से अलग कर दिया गया और कल्याण मंत्रालय के नये सृजित मंत्रालय के अधीन रखा गया।

30 मार्च, 1988 को भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय के प्रस्ताव संख्या-  ढ्ढङ्क १२०११/२/८८ ष्टरुरू के तहत जनवरी 1978 के गृह मंत्रालय के मूल प्रस्ताव के खंड-2 और 3 को संशोधित किया गया और देश के भाषाई अल्पसंख्यकों पर अल्पसंख्यक आयोग के अधिकार क्षेत्र को हटा दिया गया।

17 मई, 1992 को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 अधिनियमित किया गया था। अधिनियम-2 (सी) इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए अल्पसंख्यक को परिभाषित करता है, जिसका अर्थ है- ‘केंद्र सरकार का अधिसूचित समुदाय।’ इस प्रकार, केवल केंद्र सरकार अधिनियम के तहत एक समुदाय को अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित कर सकती है।

18 दिसंबर, 1992 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के संकल्प संख्या 47/135 की अपनायी गयी राष्ट्रीय या जातीय, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों से सम्बन्धित व्यक्तियों के अधिकारों की घोषणा में कहा गया है- ‘राज्य की ज़िम्मेदारी है कि वह अपने सम्बन्धित क्षेत्रों के भीतर अल्पसंख्यकों की सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई पहचान और उनके राष्ट्रीय या जातीय अस्तित्व की रक्षा करेगा और उस पहचान को बढ़ावा देने के लिए स्थितियों को प्रोत्साहित करेगा।’

17 मई, 1993 को पहला वैधानिक राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (एनसीएम) स्थापित किया गया था।

23 अक्टूबर, 1993 को भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय की जारी एक राजपत्र अधिसूचना में पाँच धार्मिक समुदाय- मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में अधिसूचित किये गये थे।

31 अक्टूबर, 2002 को टीएमए पाई फॉउंडेशन और अन्य बनाम कर्नाटक सरकार और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सवाल- भारत के संविधान के अनुच्छेद 30 में अभिव्यक्त अल्पसंख्यकों का अर्थ क्या है? का यह जवाब दिया- ‘भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को संविधान के अनुच्छेद-30 के तहत अभिव्यक्त अल्पसंख्यक के तहत कवर किया जाता है। चूँकि, भारत में राज्यों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर किया गया है; इसलिए अल्पसंख्यक के निर्धारण के उद्देश्य से इकाई राज्य होगी, न कि सम्पूर्ण भारत। इस प्रकार धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों, जिन्हें अनुच्छेद 30 में सम्मिलित किया गया है; को राज्‍यवार माना जाना चाहिए।’

11 नवंबर, 2004 को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग (एनसीएमईआई)  अधिनियम लागू हुआ।

2 (डीए)- अल्पसंख्यकों के लिए शैक्षिक अधिकार का अर्थ है अल्पसंख्यकों के अधिकारों को उनकी पसन्द के शैक्षिक संस्थानों को स्थापित और प्रशासित करना।

2 (एफ)- इस अधिनियम के तहत अल्पसंख्यक का अर्थ है- केंद्र सरकार की तरफ से अधिसूचित समुदाय।

2 (जी)- अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान का अर्थ है- एक महाविद्यालय या एक शैक्षणिक संस्थान जिसकी स्थापना अल्पसंख्यक या अल्पसंख्यक करते हैं।

23 दिसंबर, 2004 को संविधान (103वाँ संशोधन) विधेयक, 2004 और एनसीएम (निरसन) विधेयक, 2004 लोकसभा में पेश किया गया। विधेयकों को सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभाग से सम्बन्धित संसदीय स्थायी समिति के पास भेजा गया, जिसने 21 फरवरी, 2006 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। संशोधन विधेयक ने संवैधानिक स्थिति के साथ अल्पसंख्यकों के लिए एक नया राष्ट्रीय आयोग स्थापित करने का प्रस्ताव किया।

इस विधेयक को कथित तौर पर खत्म (लैप्स) होने दिया गया, क्योंकि अगर सरकार विधेयक के माध्यम से आगे बढऩे का प्रयास करती, तो उसे अल्पसंख्यकों को फिर से परिभाषित करना पड़ता। एक प्रस्ताव जिसका मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों और अन्य अल्पसंख्यकों की तरफ से समान रूप से विरोध किया जा रहा था। अल्पसंख्यक समुदायों के नेताओं और इस कदम का विरोध करने वाले विशेषज्ञों ने तर्क दिया कि अल्पसंख्यकों की एक राज्य-विशिष्ट परिभाषा से अल्पसंख्यक अधिकारों में विकृतियाँ आयेँगी।

कई पूर्वोत्तर राज्यों और पंजाब में सिख बहुसंख्यक समूह घोषित किये गये हैं और परिणामस्वरूप संवैधानिक रूप से स्वीकृत अल्पसंख्यक अधिकारों से वंचित थे। इसका परिणाम कई अन्य विसंगतियों के रूप में होता है। जैसे ईसाई छात्र अन्य राज्यों में अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए अयोग्य हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें वहाँ अधिवास अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त नहीं होगा। इन सभी समस्याओं को देखते हुए मंत्री एआर अंतुले ने कथित तौर पर आश्वासन दिया था कि धार्मिक अल्पसंख्यकों की परिभाषा में कोई बदलाव नहीं होगा।

08 अगस्त, 2005 को भारत के बाल पाटिल और एएनआर बनाम भारत संघ और अन्य के जैन समुदाय ने केंद्र सरकार को जैन समुदाय को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक अधिनियम, 1992 की धारा-2 (सी) के तहत अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित करने के लिए एक मानदंड/ निर्देश जारी करने की माँग की। उस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा- ‘टीएमए पाई फाउंडेशन केस में 11 न्यायाधीश की बेंच ने कहा था कि भाषाई और धार्मिक दोनों आधारों पर अल्पसंख्यकों के दावे एक इकाई के रूप में प्रत्येक राज्य होंगे। भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन अधिनियम के तहत देश को पहले ही वर्ष 1956 में पुनर्गठित किया जा चुका है। राज्य के भीतर भाषा के आधार पर भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए भिन्न तरीके समझ आते हैं। लेकिन अगर धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों के लिए समान अवधारणा को प्रोत्साहित किया जाता है, तो पूरे देश, जो पहले से ही विभिन्न विभाजनकारी ताकतों के कारण वर्ग और सामाजिक संघर्षों से पीडि़त है; आगे धार्मिक विविधताओं के आधार पर और विभाजन झेलने को मजबूर हो सकता है। धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक दर्जे के इस तरह के दावे संवैधानिक गारंटी के हिस्से के रूप में विशेष सुरक्षा, विशेषाधिकार और लाभ प्राप्त करने वाले लोगों के विभिन्न वर्गों की उम्मीद में वृद्धि करेंगे। इस तरह की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करना संवैधानिक लोकतंत्र की धर्मनिरपेक्ष संरचना के लिए एक गम्भीर झटका है।’

सुप्रीम कोर्ट ने एनसीएम अधिनियम की धारा-2 (सी) के तहत एक अधिसूचना जारी कर जैनियों को एक धार्मिक अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित करने के लिए केंद्र सरकार को निर्देशित करने की जैन समुदाय की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया।

27 जनवरी, 2014 को केंद्र सरकार ने जैन समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित कर दिया।

10 नवंबर, 2017 को अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने 23 अक्टूबर, 1993 की अधिसूचना को संविधान के विपरीत और अति-विवादास्पद घोषित करने के लिए

डब्ल्यूपी (सी) 1064/2017 दायर की थी, लेकिन राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग में जाने की बात कहकर इसे वापस ले लिया और 17 नवंबर, 2017 को एक प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। एनसीएम ने कथित तौर पर 15 महीने तक उनके प्रतिवेदन का जवाब नहीं दिया।

11 फरवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की दायर रिट याचिका डब्ल्यूपी (सी) 94/2019 पर सुप्रीम कोर्ट का विचार था कि एनसीएम को याचिकाकर्ता के 17 नवंबर, 2017 को दायर प्रतिवेदन पर विचार करना चाहिए और तीन महीने की अवधि के भीतर उचित आदेश पारित करना चाहिए। एक बार जब यह कवायद पूरी हो जाती है, तो याचिकाकर्ता उस तरह के उपायों का लाभ उठाने के लिए स्वतंत्र होगा जैसा कि उसे कानून में उपलब्ध है। याचिकाकर्ता ने कथित रूप से निम्नलिखित प्रार्थनाओं के साथ रिट याचिका दायर की थीं :-

क) यह निर्देशित और घोषित किया जाए कि एनसीएम अधिनियम 1992 का  अनुछेद-2 (सी) मनमाना, अनुचित और अपमानजनक होने के कारण भारत के संविधान की धारा-14, 15 और 21 के तहत अमान्य और निष्क्रिय है।

ख) निर्देशित और घोषित करें कि अल्पसंख्यक समुदाय पर 23 अक्टूबर, 1993 की अधिसूचना-1993 6एसओ नम्बर- 816 (ई) एफ, नम्बर- 1/11/93-एमसी (डी)8 मनमानी, अनुचित और अपमानजनक होने के कारण भारत के संविधान के अनुच्छेद-14, 15, 21, 29 और 30 के तहत अमान्य और निष्क्रिय है।

ग) सरकार को अल्पसंख्यकों को परिभाषित करने और उनकी पहचान के लिए दिशा-निर्देश देने के लिए निर्देशित करें। ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि केवल उन धार्मिक और भाषाई समूहों, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से गैर-प्रमुख और संख्या के आधार पर कम हैं, अनुच्छेद-29 और 30 के तहत गारंटीशुदा  अधिकारों और संरक्षण का लाभ ले सकते हैं।

घ) प्रार्थना के विकल्प में (सी) निर्देशित और घोषित करें कि केवल भारतीय नागरिकों के धार्मिक और भाषाई समूह, जो सामाजिक रूप से आर्थिक और राजनीतिक रूप से गैर-प्रमुख हैं और संख्यात्मक रूप से उस सम्बन्धित राज्य की कुल जनसंख्या का एक फीसदी से अधिक नहीं हो सकते हैं, संविधान के अनुच्छेद-29, 30 के तहत गारंटीशुदा  अधिकारों और सुरक्षा का लाभ लें।

भारतीय संदर्भ में अल्पसंख्यकों का अर्थ है- अल्पसंख्यक धर्म, यानी मुस्लिम, ईसाई, जैन, सिख आदि। एससी, एसटी, ओबीसी अल्पसंख्यक में नहीं हैं। वे अल्पसंख्यक जातियाँ भी नहीं हैं। वे मुख्यत: हिन्दू धर्म से सम्बन्धित हैं और हिन्दू हैं।

इसका अर्थ है- ‘एक जातीय, नस्लीय, धार्मिक या अन्य समूह, जिसकी समाज में एक विशिष्ट उपस्थिति होती है; ऐसे समूह-जिनके पास कम शक्ति या समाज के भीतर अन्य समूहों के सापेक्ष प्रतिनिधित्व हो-व्यवहार में अल्पसंख्यक जातीय, धार्मिक या भाषाई समूह हैं, जो उत्पीडऩ के काफी और न्यायसंगत भय में ‘बहुसंख्यक’ समूह के बीच रहते हैं।

एक समूह की अल्पसंख्यक स्थिति का एक अच्छा परीक्षण यह है कि राष्ट्रीय मीडिया और अंतर्राष्ट्रीय राय सहित दुनिया उनके उत्पीडऩ को कैसे मानती है? यदि उनसे क्रूरता हुई है और कोई इसकी परवाह नहीं करता है, तो वे स्पष्ट रूप से अल्पसंख्यक हैं। उदाहरण के लिए, सूडान के दारफुर क्षेत्र में, अश्वेतों को अरब आतंकित करते हैं। रंगभेद के तहत दक्षिण अफ्रीका के अश्वेतों के साथ भी लम्बे समय से यही स्थिति थे। वे वास्तव में अल्पसंख्यक थे, भले ही वे संख्यात्मक रूप से बहुसंख्यक थे।

यूरोप, अमेरिका, मुस्लिम दुनिया और माक्र्सवादी भूमि में- अल्पसंख्यकों को पता है कि वे वास्तव में कौन हैं? और बहुसंख्यक जानते हैं कि वे कौन हैं? इसमें कोई भ्रम नहीं है कि शक्तिशाली कौन है?

भारतीय परिदृश्य

लेकिन भारत में ऐसा बिल्कुल नहीं है। इसके दो कारण हैं। एक है- बिना किसी श्रेष्ठता के अहसास के जटिल बहुलवाद की पारम्परिक हिन्दू स्वीकृति। दूसरा तथ्य यह है कि कोई भी हिन्दू खुद को ‘बहुमत’ का हिस्सा नहीं मानता है। यह चौंकाने वाली बात है। क्योंकि प्रत्येक हिन्दू खुद को अपनी जाति का हिस्सा मानता है। प्रत्येक हिन्दू अल्पसंख्यक व्यक्ति है। कोई अखण्ड हिन्दू-पहचान नहीं है; प्रत्येक व्यक्ति अपने जाति समूह के प्रति प्राथमिक निष्ठा रखता है। यह कुछ ऐसा है, जैसे- माक्र्सवादी लगातार हिन्दुओं पर आरोप लगाते हैं, लेकिन वे इसे स्वीकार नहीं करते हैं। फलस्वरूप, हिन्दू खंडित हैं। किसी भी हिन्दू से पूछें कि क्या वे एक प्रभावी समूह से सम्बन्धित हैं? आप पायेँगे कि वे सभी, बिना किसी संकोच के महसूस करते हैं कि वे एक पीडि़त समूह से सम्बन्धित हैं; जिसके साथ भेदभाव किया जाता है। निचली जाति के लोगों के पास उत्पीडऩ का इतिहास है, जिसे उन्होंने/उनके पूर्वजों ने भुगता है। ऊँची जाति के लोगों को लगता है कि उनके साथ बुरा व्यवहार किया गया है और वे आरक्षण और इसके चलते अपने अवसर के नुकसान का विरोध करते हैं। इस प्रकार कोई भी हिन्दू किसी बेहतर बहुसंख्यक व्यक्ति के रूप में नहीं घूमता, बल्कि किसी गरीब अल्पसंख्यक मुस्लिम या ईसाई पर हमले की फिराक में रहता है।

हिन्दुओं पर हमले

वास्तव में यह बिल्कुल विपरीत है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह मुस्लिम और ईसाई हैं, जो जानबूझकर हिन्दुओं पर हमला करते हैं। जहाँ तक मैं बता सकता हूँ, हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक दंगे आमतौर पर मुसलमानों के शुरू किये गये प्रतीत होते हैं। और ज़रूरी नहीं कि शारीरिक रूप से हिंसक हों (हालाँकि वे वास्तव में पूर्वोत्तर में हिंसक हैं); ईसाई हर समय हिन्दुओं और उनके गहरी मान्यताओं पर हमला करते हैं। विडम्बना यह है कि जीसस क्राइस्ट के जीवन, उनके कुँवारी माता से जन्म होने आदि के मिथक भी वैसे ही हैं, जैसे पुराने हिन्दू और बौद्ध मिथक हैं।

हिन्दुओं को सुरक्षा की ज़रूरत कहाँ?

इस प्रकार भारत में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं और उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता है। प्रत्येक हिन्दू, लगभग परिभाषा के अनुसार, एक अल्पसंख्यक व्यक्ति है। फिर भी, अविश्वसनीय रूप से, नेहरूवादी स्टालिनवादियों ने इसे व्यवस्थित किया है, ताकि उन क्षेत्रों में भी जहाँ हिन्दू वास्तव में एक संख्यात्मक अल्पसंख्यक हैं, जैसे कि मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर, ईसाई बहुल मिज़ोरम और नागालैंड, या माक्र्सवादी बहुल पश्चिम बंगाल और मालाबार में; हिन्दुओं को वैसे कथित ‘अल्पसंख्यक विशेषाधिकार’ नहीं मिलते हैं। जैसे कि मुस्लिमों और ईसाइयों को भारत के अन्य हिस्सों में मिलते हैं। इसलिए भारत में हिन्दुओं पर हमला किया जाता है; उनकी हत्या की जाती है।

जो भी हो; जब तक वे संगठित होकर बदला लेने की कोशिश करते हैं, तब तक पुलिस वहाँ किसी भी हिंसा को रोकने के लिए उपस्थित होती है। हैरानी की बात है कि कोई भी मानवाधिकार कार्यकर्ता उनके बारे में परवाह नहीं करता है और न कोई मीडिया ही उनकी पीड़ा को उजागर करता है। हालाँकि बहुसंख्यक समुदाय के साथ यह गम्भीर शोषण वाली स्थिति है, जिसे स्पष्ट रूप से ‘रिवर्स भेदभाव’ का मामला कहा जा सकता है।

लोग मनमाने तरीके से कर्तव्यों को तो भूल जाते हैं, लेकिन अपने अधिकारों को याद रखते हैं। सभी को अपने कर्तव्यों का ध्यान रखना होगा तभी अधिकारों का सही उपयोग हो पायेगा। प्रत्येक अधिकार के साथ एक ज़िम्मेदारी, हर अवसर के साथ एक दायित्व और हरेक अधिकार के साथ एक कर्तव्य जुड़ा होता है। एक अन्य अमेरिकी लेखक थॉमस पेन ने अपनी पुस्तक ‘द राइट्स मैन’ में उल्लेख किया है कि अधिकारों की घोषणा, पारस्परिक रूप से कर्तव्यों की घोषणा भी है।

एक आदमी के रूप में मेरा जो अधिकार है, वह दूसरे का भी अधिकार है और यह मेरा कर्तव्य बनता है कि हम इसकी गारंटी दें और इसे अपनाएँ। एक राष्ट्रवादी होने के नाते अमेरिका के दिवंगत राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने अपने उद्घाटन भाषण में अपने साथी देशवासियों से कहा- ‘यह न पूछें कि देश आपके लिए क्या कर सकता है? यह पूछें कि आप अपने देश के लिए क्या कर सकते हैं?’ इसी कड़ी में एक इस्लामिक स्कॉलर अल-हाफिज़ बीए मसरी ने कहा- ‘किसी की दिलचस्पी या ज़रूरत किसी दूसरे के अधिकार को खत्म नहीं कर देती।’