भारत को चाहिए फिर एक चाणक्य

सकारात्मक प्रयासों और शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त करके आज भी भारत बन सकता है शक्तिशाली और समृद्ध

वर्तमान समय में जब भूटान, पाकिस्तान के बाद नेपाल और फिर चीन ने भारत से सीमा विवाद किया है। चीन, जापान और रूस के अलावा वियतनाम और चीनी ताइपे तिब्बत को आज से 200 साल पहले का चीनी साम्राज्य का हिस्सा मानकर वर्तमान समय में सीमा साम्रज्य को बढ़ाने की बात कर रहा है। चीनी सैनिकों द्वारा हमारी सीमा में घुसपैठ की कोशिश के दौरान हमारे ही सैनिकों को शहीद कर देने के बाद भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीमा का दौरा किया, लेकिन चीन अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आयेगा, ऐसा लगता  है। इन मामलों को लेकर अमेरिका ने विश्व चौधरी के रूप में अपनी सैन्य शक्ति को अलर्ट कर रखा है। वहीं भारत अपने पड़ोसी देशों से दो देशों का मामला बताते हुए किसी भी अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता से इन्कार करता हुआ आ रहा है। परन्तु दुनिया भर में इस तरह की समस्या देने वाला देश आज विवादित विषय पर अपनी प्रतिक्रिया देने से भी बचता नज़र आ रहा है। प्राचीन सोने की चिडिय़ा कहा जाने वाला देश अखण्ड आर्यावर्त के इंडिया बनने तक का सफर भी बहुत दिलचस्प रहा है। इतिहास पर गौर करें तो भारत पर आक्रमण की कई खूँरेज़ घटनाएँ सामने आती हैं। परन्तु कहीं पर इसके वर्तमान पड़ोसी देशों का ज़िक्र नहीं किया गया है। भारत के इर्द-गिर्द चीन, तिब्बत, मंगोलिया फारस और यूनान का ज़िक्र कुछ जगहों पर मिलता भी है। परन्तु अफगानिस्तान, पाकिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका, नेपाल, तिब्बत, भूटान, मालदीव या बांग्लादेश का ज़िक्र प्राचीन इतिहास में नहीं मिलता, जो हमारे साथ सीमा विवाद का प्रश्न किसी तीसरे के कहने पर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाने की कोशिश करते हैं।

इस बारे में हमारे देश के बुद्धिजीवियों- कवियों, लेखकों और इतिहासकारों ने कभी कुछ नहीं लिखा। न ही पत्रकारों ने इस बारे में कुछ भी लिखा, न पढऩे की कोशिश की और न ही जनता को अपने गौरवशाली इतिहास की याद दिलाने में मदद की। परन्तु छोटे-से यूरोपीय देश ब्रिटेन को कैसे दुनिया का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र द ग्रेट ब्रिटेन कहकर उसका महिमामण्डन में कोई कसर नहीं छोड़ी। तभी आज की वर्तमान पीढ़ी को भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति का या तो थोड़ा-बहुत ही ज्ञान है या ज्ञान है ही नहीं, जिससे उन्हें देश पर फख्र का भी अहसास नहीं होता। पिछले 300 साल में जो देश अर्श से फर्श पर आ गया, इस सच को हम झुठला नहीं सकते। 5000 साल से मिटाने की दुनिया भर की कोशिशें के बाद भी यह कहना पड़ता है कि कुछ तो बात रही होगी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। बताते हैं कि आज दुनिया को आँख दिखाने वाला मुल्क चीन कभी भारत में शिक्षा-दीक्षा लेने आया करता था; जिसका ज़िक्र भी प्राचीनकाल में चीनी यात्रियों ने समय-समय पर किया है। प्राचीन काल में भारत के बौद्ध तीर्थ स्थलों की यात्रा करने वाले चीनी यात्री फाहियान और ह्वेनसांग के यात्रा विवरणों से भी वर्तमान बिहार राज्य और ऐतिहासिक पाटलिपुत्र के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

तब दुनिया भर में नेपाल को भी नहीं जाना जाता था और आज नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. ओली का कहना है कि बिहार का कुछ भू-भाग नेपाल का है और नेपाल में ही अयोध्या थी। जो भी हो ओली के दावे पर भारत के बुद्धिजीवी वर्ग की खामोशी आश्चर्यजनक है। चीनी यात्रियों में से एक ने ईसा पूर्व की पाटलिपुत्र को याद करते हुए सातवीं शताब्दी में कहा था कि फाहियान लिखता है कि पाटलिपुत्र में मौर्यों का राजप्रासाद वर्तमान में अभी भी है। दर्शक को ऐसा आभास होता था कि मानो इसका निर्माण देवताओं ने स्वयं किया है। इसकी दीवारों और द्वारों में पत्थर चुनकर लगाये गये थे। इसमें जैसी सुन्दर नक्काशी और पच्चीकारी की गयी थी, वैसी विश्व के किसी मानव से सम्भव नहीं थी। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, फाहियान गुप्त शासकों के समय भारत आया था। उसके यात्रा विवरण से पाटलिपुत्र नगर की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है। सम्राट अशोक के संन्यास के बाद चीनी यात्री ह्वेनसांग लिखता है कि पाटलिपुत्र की हालत खराब होती जा रही है।

दरअसल आचार्य चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य के काल में भारतवर्ष एक सूत्र में बाँधा और इस काल में भारत ने हर क्षेत्र में प्रगति की। आचार्य चाणक्य ने उन दिनों एक नारा दिया- उतिष्ठ भारत: मतलब उठो भारत। आज हम सभी भारतीयों को उसी नारे के साथ जोश में उठना होगा और बिखरते तथा सीमावर्ती देशों द्वारा डराये जा रहे भारत को फिर से अखण्ड और विकसित भारत बनाना होगा। सम्राट अशोक (ईसा पूर्व 269-232) प्राचीन भारत के मौर्य सम्राट बिन्दुसार का पुत्र और चंद्रगुप्त का पौत्र था, जिसका जन्म लगभग 304 ई. पूर्व में माना जाता है। जब अशोक को राजगद्दी मिली, तब उन्होंने साम्राज्य को विस्तार देने के लिए 260 ई.पू. में कलिंगवासियों पर आक्रमण किया तथा उन्हें पूरी तरह कुचलकर रख दिया। युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजित देश की जनता के कष्ट से सम्राट अशोक की अंतरात्मा को तीव्र आघात पहुँचा और सम्राट शोकाकुल रहने लगे। अंतत: वह प्रायश्चित करने के प्रयत्न में बौद्ध धर्म अपनाकर भिक्षु बन गये। जहाँ तक प्राचीन भारतवर्ष का सम्बन्ध है, तो इसकी सीमाएँ हिन्दुकुश से लेकर आज के अरुणाचल, कश्मीर से कन्याकुमारी तक, पूर्व में अरुणाचल से लेकर इंडोनेशिया तक और पश्चिम में हिन्दुकुश से लेकर अरब की खाड़ी तक फैली थीं। लेकिन समय और संघर्ष के चलते अब भारत इंडिया बन चुका है। कैसे और क्यों? वह बड़ा और सवाल है।

लेकिन दुर्भाग्य कि हम भारतीयों को अंग्रेजों ने ऐसी शिक्षा दी कि पहले हम अपना इतिहास भूले और अब चीन के आगे ही नतमस्तक होते जा रहे हैं। तभी तो आज भूटान और नेपाल जैसे देश भी दिल्ली को आँख दिखा रहे हैं। क्योंकि अंग्रेजों ने गोली और अत्याचार से ज़्यादा प्रहार हमारी संस्कृति और हमारी सोच पर किया। मैकाले की शिक्षा पद्धति से हमारे देश के युवाओं का भविष्य नष्ट किया गया। क्योंकि उन्हें पता था कि अगर भारत को जीतना है, तो भारतीय जनमानस को ही अंग्रेजी शिक्षा के जाल में फँसाकर काली चमड़ी में अंग्रेजी बोलने वाले लोगों से ही भारत को कमज़ोर कर सकते हैं। क्योंकि जहाँ विश्व विजेता सिकंदर हार गया था, वहीं पृथ्वीराज चौहान को हराने के लिए जयचंद ने मोहम्मद गोरी की मदद की थी।

मीर कासिम, जिसके कारण मैकाले ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के लिए भारतीय शिक्षा पद्धति पर घातक प्रहार किया। लेकिन उसके इस प्रयास को तत्कालीन समाज ने बुरी तरह से नकार दिया था। कोलकाता में स्थापित भारत का पहले कॉन्वेंट स्कूल को बन्द करना पड़ा। परन्तु समय का चक्र ऐसा घूमा कि मैकाले द्वारा अपने पिता को लिखे गये पत्र की हर एक बात सच हुई। दुर्भाग्य की बात है कि 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजी शासन व्यवस्था से आज़ादी मिलने के बाद भी आज तक हम गुलाम ही बने हुए हैं। पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी के गुलाम रहे, तो आज बहुराष्ट्रीय (मल्टीनेशनल) कम्पनियों के गुलाम हैं। तब हम बाज़ार और उत्पादक देश थे और आज हम उपभोक्ता देश बने, जिसके पीछे मैकाले और आज़ादी के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू का भी योगदान रहा, जिन्होंने जाने-अनजाने वहीं किया, जो अंग्रेजी शासन व्यवस्था उनके माध्यम से भारत की जनता के खिलाफ करवाना चाहती थी। परिणामस्वरूप आज़ादी की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) और वर्तमान जीडीपी की तुलना की जा सकती है। रही सही कसर अब पूरी हो रही है। अर्थ-व्यवस्था चरमराती जा रही है। प्राचीन भारत से ही अंग्रेजी शासन व्यवस्था से पूर्व तक भारत में गुरुकुल की शुरुआती शिक्षा के बाद ऋषिकुल में जीवन और जीविका को लेकर पढ़ाई होती थी। आज कॉम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड में भी इतने विभाग नहीं है, जितने भारत में उस समय पढ़ाये जाते थे। भारतीय विद्यार्थियों को जिन विधाओं (विद्याओं) में निपुण किया जाता था, वे इस प्रकार हैं- अग्नि विद्या, वायु विद्या, जल विद्या, अंतरिक्ष विद्या, पृथ्वी विद्या, सूर्य विद्या, चन्द्र व लोक विद्या, मेघ विद्या, पदार्थ विद्युत विद्या, सौर ऊर्जा विद्या, दिन-रात्रि विद्या, सृष्टि विद्या, खगोल विद्या, भूगोल विद्या, काल विद्या, भूगर्भ विद्या, रत्न व धातु विद्या, आकर्षण विद्या, प्रकाश विद्या, तार विद्या, विमान विद्या, जलयान विद्या, अग्नेय अस्त्र विद्या, जीव-जन्तु विज्ञान विद्या और यज्ञ विद्या। वैज्ञानिक तो अब इन विद्याओं की अब बात करते हैं। इसके अलावा भारत में व्यावसायिक और तकनीकी विषयों में वाणिज्य, कृषि, पशु पालन, पक्षी पालन, पशु प्रशिक्षण, यान यन्त्रकार, रथकार, रत्नकार, स्वर्णकार, वस्त्रकार, कुम्भकार, लोहकार, तक्षक रंगसाज, खटवाकर रज्जुकर, वास्तुकार, पाक विद्या, सारथ्य, नदी प्रबन्धक, सूचिकार, गौशाला प्रबन्धक, उद्यान पाल, वन पाल, नापित आदि विधाएँ गुरुकुल और ऋषिकुल में सिखायी जाती थीं; लेकिन भारत के दुश्मनों ने साज़िश करके गुरुकुलों को नष्ट कर दिया। आज़ादी के बाद भारत की सरकार ने भी गुरुकुल शिक्षा पद्धति के स्थान पर कॉन्वेंट स्कूलों और मदरसों की शिक्षा प्रणाली को जारी रखा।

वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक रवि आनंद के मुताबिक, अभी केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) और अन्य बोर्ड ने परीक्षा परिणाम जारी किया, जिसमें सभी बच्चों ने अच्छे अंक भी प्राप्त किये, परन्तु ये अंक उन्हें भविष्य के लिए आशावान नहीं बनाते। क्योंकि उनके परिणाम से उनकी आजीविका का निर्धारण नहीं हो पाता। एक हिसाब से मैकाले की शिक्षा पद्धति ने हमें बेरोज़गार बनाया। सरकार या शासन व्यवस्था पर भी यह युवा पीढ़ी बोझ ही बनती जा रही है; तभी तो वर्तमान समय की सरकार स्किल इंडिया की बात करने पर मजबूर हुई है। लेकिन आज छात्रों को मार्कशीट (अंकतालिका) बेचकर भी रोज़गार प्राप्त नहीं होगा। हमारी संस्कृति को अवैज्ञानिक बताने वाले लोगों को भी हमने जो ज्ञान दिया था, उन्हें अब मानना पड़ा। उज्जैन, जिसे पृथ्वी का केंद्र माना जाता है, इसका एक उदाहरण है। जो सनातन धर्म में हज़ारों वर्षों से मानते आ रहे हैं। इसलिए उज्जैन में सूर्य की गणना और ज्योतिष गणना के लिए मानव निर्मित यंत्र भी बनाये गये हैं। यहाँ करीब 2000 साल से अधिक पहले, तब और अब करीब 100 साल पहले पृथ्वी पर काल्पनिक रेखा (कर्क) अंग्रेज वैज्ञानिक द्वारा बनायी गयी, तो उनका मध्य भाग भी उज्जैन ही निकला।

बहरहाल आज भी वैज्ञानिक उज्जैन ही आते हैं। सूर्य और अंतरिक्ष की जानकारी के लिए। इन्हीं जैसे अनेक ज्ञान के विषयों को नष्ट करने के लिए नालंदा विश्वविद्यालय को जलाया गया। पर भारतीय संस्कृति में नकारात्मक सोच को नज़रअंदाज़ कर सकारात्मक सोच को प्रश्रय दिया जाता है। तभी तो नालंदा विश्वविद्यालय को आग लगने वाले बिख्तयार खिलजी के नाम पर नालंदा में ही एक शहर बसा है। नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने वाले को भी हमने न केवल सम्मान दिया, बल्कि आज भी उनके द्वारा स्थापित शहर को भी संजोये हुए हैं। क्योंकि भारतीय संस्कृति में ज्ञान को बहुत महत्त्व दिया जाता है।

बिख्तयार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को जलाकर विश्व का नुकसान किया; क्योंकि वह केवल अपने देश और अपने धर्म से प्यार करता था। लेकिन हम न तो अपनी संस्कृति और न ही अपने देश से ही प्यार करते हैं। यही कारण है कि हम कोरोना-काल में भी आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को पुनर्जीवित करने के स्थान पर उस चिकित्सा पद्धति पर भरोसा कर रहे हैं, जिसमें रोगों का सही इलाज कभी हुआ ही नहीं है।  इसीलिए मेरा मानना है कि भारत को दोबारा अखण्ड, शक्तिशाली और समृद्ध बनाने के लिए फिर से एक और चाणक्य की ज़रूरत है, जो दोबारा किसी न्यायप्रिय चंद्रगुप्त मौर्य को सत्ता में स्थापित कर सके।