भाजपा में लगी इस्तीफ़ों की झड़ी

उत्तर प्रदेश में दोबारा सरकार बनाने के दावों के बीच दर्ज़न भर से ज़्यादा

मंत्रियों-विधायकों के इस्तीफ़ों से भाजपा को बड़ा झटका

स्वामी प्रसाद मौर्य ने उत्तर प्रदेश में भाजपा की नींद उड़ा दी है। उन्होंने 11 जनवरी की ठंडी दोपहरी में जब सपा प्रमुख अखिलेश यादव से मुलाक़ात की तस्वीर अपने ट्वीटर हैंडल पर डाली और योगी सरकार के मंत्री के रूप में इस्तीफ़ा देने की घोषणा की, तो भाजपा ख़ेमे को पार्टी और मंत्री पद से उनके इस्तीफ़े के बड़े नुक़सान का अहसास तक नहीं था। लेकिन जैसे ही मौर्य ने लिखा- ‘भाजपा को आने वाले दिनों में बड़े झटके लगने वाले हैं।‘ लखनऊ से लेकर दिल्ली तक भाजपा ख़ेमे में हड़कम्प मच गया।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव पर ख़ास नज़र रखे भाजपा के चाणक्य और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस घटनाक्रम की जानकारी मिलते ही उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और अन्य नेताओं से सम्पर्क साधा और उन्हें निर्देश दिया कि किसी भी तरह से और इस्तीफ़े न होने दें। लेकिन उत्तर प्रदेश में पार्टी के नेता कुछ नहीं कर सके और एक दर्ज़न से ज़्यादा विधायकों को पार्टी से बाहर जाने से नहीं रोक पाये।

विधानसभा चुनाव से पहले ‘संगठित और एकजुट’ और ‘पूरे बहुमत वाली सरकार’ बनाने का दावा कर रही भाजपा की इस घटनाक्रम ने हवा सरका दी है। इससे यह साफ़ ज़ाहिर हो गया है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ख़िलाप़ मंत्रियों और विधायकों में बड़े पैमाने पर नाराज़गी और ग़ुस्सा है। इन इस्तीफ़ों ने भाजपा को अचानक अर्श से फर्श पर ला पटका है। उत्तर प्रदेश से बाहर के उन राज्यों में भी इसका भाजपा के ख़िलाफ़ सन्देश गया है जहाँ विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। राजनीतिक गलियारों में यह ख़बर पहले ही सुलगती रही है कि भाजपा में नेतृत्व के कुछ लोग योगी से ज़्यादा ख़ुश नहीं हैं और उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बनते नहीं देखना चाहते।

उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और राजनीतिक रूप से बहुत अहम राज्य में चुनाव से ठीक पहले भाजपा के इस बिखराव ने समाजवादी पार्टी पार्टी (सपा) की सत्ता हासिल करने की उम्मीदों को पंख लगा दिये हैं। भाजपा को पहले से मज़बूत चुनौती देती दिख रही सपा के अलावा प्रियंका गाँधी की कांग्रेस भी भाजपा के बिखराब का लाभ ले सकती है। गाँधी ब्राह्मण, ओबीसी और पिछड़े वर्गों को कांग्रेस के साथ जोड़ पायीं, तो कांग्रेस की स्थिति में आश्चर्यजनक सुधार हो सकता है।

भाजपा को उत्तर प्रदेश में मंत्रियों और विधायकों के इस्तीफ़ों से सबसे बड़ा झटका यह कि यह इस्तीफ़े पिछड़ी और ओवीसी जातियों के नेताओं के हैं, जिन्हें भाजपा पिछले छ: महीने से साधना चाह रही है। पिछले साल के आख़िर में भाजपा ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में इन वर्गों के एक दर्ज़न मंत्रियों को जगह देकर उनके प्रति अपना प्रेम दिखाने की कोशिश की थी। लेकिन अब जबकि इन वर्गों के ही मंत्रियों और विधायकों ने इस्तीफ़े दिये हैं, तो भाजपा के पाँव तले की ज़मीन सरक गयी है।

वैसे भाजपा ने भी इसकी भरपाई करने की कोशिश की। उसने ख़ुद को फ़ज़ीहत से बचाने के लिए कांग्रेस विधायक नरेश सैनी और सपा के विधायक हरिओम यादव को दलबदल करवा दिया। हरिओम यादव मुलायम सिंह यादव के रिश्तेदार हैं। लेकिन इसके बावजूद भाजपा में यह रिपोर्ट लिखे जाने तक बग़ावत जारी थी।

भाजपा के लिए विधायकों और मंत्रियों का जाना इतना चौंकाने वाला था कि उसे 13 जनवरी को दिल्ली में पार्टी की कोर कमेटी (अंतर्भाग समिति) की बैठक करनी पड़ी। इसमें चुनाव के लिए उम्मीदवारों का चयन भी चर्चा में रहा; लेकिन बैठक में बड़े नेता इस बग़ावत से काफ़ी चिन्तित दिखे। यह माना जाता है कि स्वामी प्रसाद मौर्य और दूसरे मंत्रियों-विधायकों के इस्तीफ़े के बाद भाजपा को उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ा।

मौर्य के इस्तीफ़े की ख़बर आते ही अमित शाह ने मुख्यंमत्री योगी आदित्यनाथ और अन्य नेताओं के साथ लम्बी चर्चा की। जानकारी के मुताबिक, उन्हें सख़्त हिदायत दी गयी कि किसी भी सूरत में इन लोगों को पार्टी में रोका जाए। लेकिन किसी को इसमें सफलता नहीं मिली। उधर भाजपा में टिकटों को लेकर भी जंग है। कुछ अपने रिश्तेदारों को टिकट चाहते हैं, पार्टी इसे लेकर दुविधा में है।

हाल के वर्षों के विपरीत भाजपा को उत्तर प्रदेश में इस बार टिकटों के मामले में विधायकों के आगे काफ़ी हद तक समर्पण करना पड़ा है। कई को मनाने के लिए दिल्ली में वरिष्ठ नेताओं को कसरत करनी पड़ी। जो नहीं माने, वो बग़ावत करके पार्टी छोड़कर चले गये। पार्टी पहले बड़े पैमाने पर विधायकों के टिकट काटने की तैयारी में थी। बाद में उसे समीक्षा करनी पड़ी और यह संख्या बहुत कम रह गयी। मौर्य के साथ जा सकने की सम्भावना वाले विधायकों को सकने वाले विधायकों और दिल्ली से बड़े नेताओं को फोन करके उनकी चिरोरी करनी पड़ी।

उत्तर प्रदेश में जो कुछ हुआ, उससे भाजपा के राजनीतिक और चुनाव प्रबन्धन की भी पोल खुल गयी। भाजपा हाल के वर्षों में अपने इस प्रबन्धन पर गर्व करती रही है। भाजपा के प्रबन्धन की यह तक हालत हुई कि उसने मंत्री दारासिंह चौहान को चार्टर प्लेन भेजकर दिल्ली में बातचीत के लिए दिल्ली बुलाया; लेकिन उन्होंने भी इस्तीफ़ा दे दिया। भाजपा के चुनाव और राजनीतिक प्रबन्धन में ऐसी ही दरारें बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले और नतीजे आने के बाद भी दिखी थीं। उत्तर प्रदेश में तो यह राजनीतिक रूप से इसलिए ज़्यादा घातक साबित हो सकती हैं, क्योंकि वहाँ भाजपा जिस ओबीसी और पिछड़े वर्ग पर सबसे ज़्यादा ध्यान दे रही थी, उसी समुदाय के मंत्री-विधायक इतनी बड़ी संख्या में उसका साथ छोड़कर चले गये। निश्चित ही इस्तीफ़ों वाले इस राजनीतिक घटनाक्रम से चुनाव से ऐन पहले भाजपा के लिए माहौल ख़राब हुआ है। बसपा की तर्ज पर वह जिस नयी तरह की सोशल इंजीनियरिंग को आगे करके चुनाव जीतना चाह रही थी। इसमें फ़िलहाल पार्टी को झटका लगा है, जिसका उसे बड़ा नुकसान कर सकता है।

यह माना जा रहा है कि चूँकि उत्तर प्रदेश में भाजपा का वोट बैंक ग़ैर-यादव पिछड़ा वर्ग है, लिहाज़ा सपा उसमें सेंध लगाने की कोशिश में है। भाजपा को जब तक पता चलता, तब तक स्वामी प्रसाद मौर्य की मार्फ़त सपा खेल कर चुकी थी। उनसे पहले भाजपा से संवादहीनता के चलते नाराज़ ओमप्रकाश राजभर भी सपा के साथ चले गये थे। सपा ने ओबीसी-पिछड़ा वर्ग की अपनी रणनीति के ही तहत बसपा के भी काफ़ी ग़ैर-यादव नेताओं को हाल में फोड़ा है। इस तरह सपा ने अपने जातिगत समीकरण मज़बूत करने के लिए काफ़ी चतुराई से रणनीति बुनी है।

हाल के दशकों में भाजपा के लिए यह पहला ऐसा चुनाव है, जिसमें उसके दिग्गज ओबीसी नेता कल्याण नहीं होंगे। उनका पिछले साल अगस्त में निधन हो गया था। ऐसे में भाजपा के लिए ओबीसी मतदाता को साधना वैसे ही मुश्किल बना हुआ है। अब ओबीसी मंत्रियों-विधायकों के इस्तीफ़ों ने उसकी नींद हराम कर दी है।

इस्तीफ़ों का असर

श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य के भाजपा का दामन छडऩे के 24 घंटे के भीतर वन मंत्री दारा सिंह चौहान भी पार्टी को ठेंगा दिखा गये। ओबीसी समुदाय से आने वाले दोनों ही नेता समाजवादी पार्टी से जुड़ गये। अब सपा और भाजपा के बीच ओबीसी मतों को लेकर जंग खुले रूप से शुरू गयी है। याद रहे 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने ग़ैर-यादव ओबीसी जातियों जैसे कुर्मी, मौर्य, शाक्य, सैनी, कुशवाहा, राजभर और निषाद नेताओं को अपने पाले में लाकर सपा की कमर तोड़ दी थी। अब इसी समुदाय के विधायक भाजपा का साथ छोड़कर सपा में जा रहे हैं।

भाजपा ने उत्तर प्रदेश में बनी इस आम धारणा कि सपा राज में सिर्फ़ यादवों को सरकारी संसाधनों का लाभ मिला, भाजपा ने ग़ैर-यादव पिछड़ी जाति के नेताओं की नाराज़गी को हवा देकर उन्हें अपने साथ जोड़ा। याद रहे उस समय सपा और बसपा के कई बड़े ओबीसी नेता स्वामी प्रसाद मौर्य, आर.के. सिंह पटेल, एसपी सिंह बघेल, दारा सिंह चौहान, धर्म सिंह सैनी, ब्रिजेश, कुमार वर्मा, रोशन लाल वर्मा और रमेश कुशवाहा भाजपा में चले गये थे। इससे भाजपा को 2017 के विधानसभा चुनाव में बम्पर जीत हासिल करने में बड़ी मदद मिली। जिन्हें विधायक नहीं बनाया जा सका उन्हें भाजपा ने विधान परिषद् की खिड़की से सत्ता या संगठन में हिस्सेदारी दी।

सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 403 में से 312 सीटें मिली थीं। उसके सहयोगियों अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) को क्रमश: 9 और 4 सीटें मिलीं। हालाँकि सिर्फ़ दो साल बाद ही सन् 2019 लोकसभा चुनाव के बाद सुभासपा ने भाजपा से नाता और गठबन्धन तोड़ लिया। अब 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव भाजपा की 2017 वाली रणनीति अपनाते दिख रहे हैं। सम्भवता अखिलेश यादवों के अपने साथ होने की गारंटी मानते हुए ग़ैर-यादव को अपने साथ जोडऩे की $कवायद कर रहे हैं। अखिलेश बसपा के नेताओं को पहले ही बड़ी संख्या में साथ जोड़ चुके हैं।

इनमें कुशवाहा, लालजी वर्मा, रामाचल राजभर, के.के. सचान, वीर सिंह और राम प्रसाद चौधरी के नाम प्रमुख हैं। अब बसपा से पहले भाजपा में गये स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान, रोशन लाल वर्मा, विजय पाल, ब्रजेश कुमार प्रजापति और भगवती सागर जैसे नेताओं को अखिलेश साथ लाने में सफल रहे हैं। रिपोर्ट लिखे जाने तक भाजपा छोड़कर सपा में जाने वाले नेताओं की संख्या डेढ़ दर्ज़न के क़रीब हो चुकी थी। ओबीसी विधायकों के टूटने से होने वाले नुक़सान से भाजपा वाक़िफ़ है।

भाजपा छोड़ चुके विधायक

1              स्वामी प्रसाद मौर्य

2              भगवती सागर

3              रोशनलाल वर्मा

4              विनय शाक्य

5              अवतार सिंह भाड़ाना

6              दारा सिंह चौहान

7              बृजेश प्रजापति

8              मुकेश वर्मा

9              राकेश राठौर

10           जय चौबे

11           माधुरी वर्मा

12           आर.के. शर्मा

13           बाला अवस्थी

14           धर्म सिंह सैनी

“योगी सरकार ने पाँच साल के कार्यकाल के दौरान दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यक समुदाय के नेताओं और जनप्रतिनिधियों को कोई तवज्जो नहीं दी। उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया गया। योगी सरकार में दलितों, पिछड़ों, किसानों, बेरोज़गार नौजवानों और छोटे-लघु और मध्यम श्रेणी के व्यापारियों की घोर उपेक्षा हुई है।”

मुकेश वर्मा

(भाजपा छोडऩे वाले विधायक)