भाजपा के एजेंडे में मंदिर के बाद क्या?

देश में उभरते गम्भीर मुद्दों और विपक्ष के इनके हल के दबाव के बावजूद, भाजपा हिंदुत्व का अपना एजेंडा नहीं छोडऩा चाहती। हाल के कुछ विधानसभा चुनाव के नतीजे बताते हैं कि भाजपा को गम्भीर मुद्दों की राजनीति करनी चाहिए; क्योंकि जनता एक सीमा तक उसका समर्थन कर सकती है। लेकिन भाजपा इसके बावजूद यह रिस्क उठाने के लिए तैयार है। भाजपा ऐसा क्यों करना चाहती है? बता रहे हैं राकेश रॉकी

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को ख़त्म करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय से अयोध्या में राम मंदिर पर भी फैसला आ गया। क्या अब भाजपा देश के आर्थिक मंदी, बेरोज़गारी और किसानों की समस्या जैसे गम्भीर मुद्दों पर भी लौटकर जाएगी? शायद नहीं। मई, 2019 के लोक सभा चुनाव में इन सब मुद्दों के होते हुए भी जिस तरह भाजपा ने उग्र राष्ट्रवाद को अपना चुनावी एजेंडा बना लिया, उससे ज़ाहिर होता है कि वह किसी भी सूरत में अपने कोर एजेंडे से अलग नहीं होना चाहती। तो क्या यह माना जाए कि अब उसके निशाने पर समान नागरिक संहिता (कॉमन सिविल कोड) है?

अगले लोक सभा चुनाव के लिए तो भाजपा के पास कमोवेश साढ़े चार साल पड़े हैं। लेकिन उसे इस बीच कुछ राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव की बड़ी बाधा पार करनी है। हाल ही में हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावी नतीजे उसकी उम्मीदों के अनुरूप नहीं रहे हैं। आने वाले महीनों में उसे पश्चिम बंगाल और गुजरात जैसे राज्यों के चुनाव झेलने हैं। इन चुनाव नतीजों के बाद बहुत से राजनीतिक पंडितों ने कहा है कि भाजपा के आम आदमी से जुड़े मुद्दों से दूर होने के कारण लोग भी उससे दूर होने लगे हैं। लेकिन क्या भाजपा के बीच भी ऐसी ही धारणा है? नहीं। भाजपा का थिंक टैंक मानता है कि हिंदुत्व का उसका एजेंडा ही उसकी रूह है और इससे छिटकते ही भाजपा एक साधारण राजनीतिक पार्टी बनकर रह जाएगी।

अगर गहराई से अध्ययन किया जाए, तो ज़ाहिर होता है कि भाजपा ने सत्ता में आने के बाद बहुत चतुराई से तमाम मुद्दों को किसी-न-किसी रूप से हिंदुत्व से जोड़ दिया है, जो उसका कोर एजेंडा है। यहाँ तक की पाकिस्तान के साथ तनाव को भी भाजपा ने कुछ इस तरह पेश किया है, मानो यह हिन्दू-मुस्लिम मसला हो; जबकि यह शुद्ध रूप से विदेश नीति और राष्ट्र की सुरक्षा से जुड़ा मसला है।

भाजपा ने अपने हर कदम को हिन्दू-मुस्लिम मसला ऐसे ही नहीं बना लिया। इसके लिए उसने दीर्घकालीन रणनीति पर काम किया है। इसके लिए एक मज़बूत सोशल मीडिया नेटवर्क खड़ा किया है। भाजपा ने इस चतुराई से इसका इस्तेमाल किया है कि विपक्षी दल जब तक भाजपा को घेरने की रणनीति बुनने की सोच रहे होते हैं, भाजपा अपने सोशल नेटवर्क से मुद्दे की परिभाषा ही बदल चुकी होती है।

ऐसे में जब कांग्रेस और विपक्ष के नेता भाजपा की आलोचना करने लगते हैं, तो भाजपा बहुत आसानी से उनकी आलोचना को देश के िखलाफ या पाकिस्तान परस्त बताकर विपक्ष के हमलों को कुन्द कर देती है। हाल के वर्षों में यह साफ देखने को मिला है कि विपक्ष की हर आलोचना को चाहे उसमें सच्चाई भी हो। भाजपा नेता इसे राष्ट्रवाद के िखलाफ और पाकिस्तान की बोली बताते रहे हैं।

भाजपा ने इन वर्षों में खासकर भाजपा की डोर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हाथ में आने के बाद देश को बार-बार यह बताने की कोशिश है कि वही सच्ची राष्ट्रवादी पार्टी है और अभी तक की सरकारें देश के हितों से खिलवाड़ करती रही हैं। भाजपा ने इसके लिए बहुत मशक्कत की है। सच भले यह हो कि इंदिरा गाँधी जैसी ताकतवर प्रधानमंत्री ने 48 साल पहले पाकिस्तान के दो टुकड़े करके अलग राष्ट्र बांग्लादेश बना दिया था। वह भी अमेरिका के ताकतवर विरोध के बावजूद।

विपक्ष के नेता स्वीकार करते हैं कि भाजपा की इस रणनीति को विपक्ष बेहतर तरीके से काट नहीं पाया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्य सभा में कांग्रेस दल के नेता गुलाम नबी आज़ाद कहते हैं कि भाजपा की यह राजनीति पहले से रही है। आज़ाद कहते हैं कि भाजपा साम्प्रदायिकता की सोच से चलने वाली पार्टी है। यह उसकी खुराक है और वह इसके बिना सर्वाइव नहीं कर सकती, क्योंकि देश के अन्य गम्भीर मसलों से उसका कोई लेना-देना नहीं है।

लेकिन भाजपा के युवा नेता और मोदी सरकार में राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर आज़ाद की बात से कतई सहमत नहीं। अनुराग ने कहा कि देश की आत्मा को हमारे नेतृत्त्व ने जगाया है। दुनिया भर में आज यदि भारत का डंका बज रहा है, तो यह यूँ ही नहीं हो गया। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नया भारत की जो कल्पना की है, उस पर देश चल पड़ा है। कांग्रेस जो रोना रोये, जनता अब जान चुकी है कि मोदी देश को बहुत सही दिशा में लेकर बढ़ चुके हैं।

लेकिन यह सवाल उठता है कि भाजपा सचमुच सही दिशा में है या उसके भीतर एक भय है कि यदि वह हिंदुत्व के एजेंडा से बाहर जाती है, तो उसकी राह कठिनाई भरी हो जाएगी। राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार एसपी शर्मा कहते हैं कि भाजपा को लगता है कि हिंदुत्व का एजेंडा इस देश में हमेशा काम कर सकता है; क्योंकि देश की बहुमत आबादी हिन्दू है। उसके नेता मानते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी ने भी कोर एजेंडे से बाहर जाकर विकास की राह से जीत की मं•िाल तलाशी; लेकिन इतने काम करने के बावजूद दूसरे ही चुनाव में भाजपा हार गयी। यह भय भाजपा को कभी हिंदुत्व से बाहर नहीं जाने देगा। लेकिन इस देश के ज्वलंत मुद्दे बहुत लम्बे समय तक नजरअंदाज़ करना भाजपा को भारी पड़ सकता है। जनता का मूड समझने में भाजपा भूल भी कर सकती है।

मई, 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जिस तरह पुलवामा, बालाकोट और पाकिस्तान का त्रिकोण बनाकर उग्र राष्ट्रवाद वाला चुनावी अभियान चलाया और जैसी बड़ी जीत उसे मिली, उससे उसके नीतिकारों में यह पक्की धारणा बनी है कि हिंदुत्व का एजेंडा छोडऩा समझदारी नहीं होगी।

हालाँकि, कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यह घातक भी साबित हो सकता है। हाल में ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2019 के आँकड़े ज़ाहिर करते हैं कि भारत भुखमरी के मामले में दुनिया के 117 देशों में 102वें नम्बर पर है, जो यह ज़ाहिर करता है कि देश की सत्ता वास्तविक मुद्दों से दूर है और यह चिंता की बात है। लेकिन भाजपा का थिंक टैंक इन सब तर्कों को नहीं मानता। याद कीजिए जिस दिन अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया, घंटे-भर के भीतर देश के रक्षा मंत्री और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने क्या कहा? राजनाथ सिंह ने कहा कि अब समान अचार संहिता (कॉमन सिविल कोड) भी देश में लागू होगी।

तो क्या अब भाजपा कॉमन सिविल कोड पर फोकस करने वाली है? तहलका की जानकारी के मुताबिक, भाजपा तुरन्त इस पर हाथ नहीं डालना चाहती है। भाजपा के रणनीतिकारों को लगता है कि चूँकि राम मंदिर के निर्माण की प्रक्रिया का •िाम्मा सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से केंद्र सरकार पर डाल दिया है, पार्टी इसे अभी और भुना सकती है। केंद्र सरकार को ही सर्वोच्च अदालत के निर्देश के मुताबिक ट्रस्ट बनाना है, जो मंदिर निर्माण और मस्जिद के लिए 5 एकड़ ज़मीन देने की प्रक्रिया में नोडल एजेंसी होगा।

भाजपा कॉमन सिविल कोड से पहले एनआरसी पर ध्यान दे रही है। कारण है पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव। संसद में गृह मंत्री एक हफ्ता पहले ही कह चुके हैं कि मोदी सरकार एनआरसी को पूरे देश में लागू करेगी। पश्चिम बंगाल के चुनाव भाजपा के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। वो हर हालत में वहाँ जीतना चाहती है। यह माना जाता है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इसे व्यक्तिगत प्रतिष्ठा मान लिया है।

लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी गृह मंत्री अमित शाह की घोषणा का पुरज़ोर विरोध कर चुकी हैं। ममता बनर्जी के रहते भाजपा की राह पश्चिम बंगाल में आसान नहीं कही जा सकती। माँ, माटी, मानुष का नारा देने वालीं ममता बनर्जी को ज़मीन से जुड़ा नेता माना जाता है और भाजपा के लिए उन्हें राज्य से उखाडऩा आसान नहीं है।

लेकिन भाजपा के लिए नेशनल सिटीजन रजिस्टर (एनआरसी) थाली में रखी खीर की तरह नहीं है। असम में भाजपा एनआरसी को लेकर बहुत दिक्कतें झेल चुकी है। उसे अपने ही सहयोगियों से असम और दूसरे उत्तर पूर्व राज्यों में एनआरसी की तौर-तरीकों पर ज़बरदस्त विरोध झेलना पड़ रहा है। असम में तो जब हिन्दू भी एनआरसी की चपेट में आ गये, तो भाजपा को बड़ी उलझन वाली स्थिति का सामना करना पड़ा है। ऐसे में सिर्फ पश्चिम बंगाल के चुनावों को जीतने के लिए भाजपा कितना बड़ा जोखिम लेगी, यह देखने वाली बात होगी।

लिहाज़ा भाजपा फूँक-फूँककर कदम रखना चाहती है। उसका थिंक टैंक मानता है कि उसके पास अभी अगले लोक सभा चुनाव तक का हिंदुत्व से जुड़े मुद्दों का खूब मसाला है, जो उसे विधानसभा चुनाव में ताकत दे सकता है। लेकिन बहुत से राजनीतिक जानकार मानते हैं कि भाजपा फिसलन वाली पिच पर खड़े रहने का रिस्क ले रही है। उनका मानना है कि भाजपा देश के ज्वलंत मुद्दों से ज़्यादा दिन दूर नहीं भाग सकती। देश में बेरोज़गारी, किसान और महँगाई बड़े मुद्दे हैं और जनता इन पर ज़्यादा लम्बे समय तक समझौता नहीं करेगी।

राजनीतिक जानकार इसके लिए विधानसभाओं के चुनाव नतीजों का उदाहरण देते हैं। हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव तब हुए जब मोदी सरकार संसद से जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जे वाले अनुच्छेद 370 को खत्म करने वाले कानून को पास करवा चुकी थी।

धारा 370 भाजपा का दशकों से बहुत बड़ा मुद्दा रहा था। ऐसे में यदि इसे हटाने के बाद भी भाजपा हरियाणा में बहुमत हासिल नहीं कर पायी और महाराष्ट्र में उसकी सीटें पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले ज़्यादा सीटों पर लडऩे के बावजूद घट गयीं, तो यह इस बात का संकेत है कि इस तरह के डॉन पर कम से कम राज्यों में चुनाव नहीं जीते जा सकते, क्योंकि जनता रोज़मर्रा के मुद्दों को ज़्यादा ज़रूरी मानती है।

 गोवा में लागू है ‘यूनिफॉर्म सिविल कोड’

आज जबकि देश भर में कॉमन सिविल कोड (समान आचार सहिंता) पर चर्चा हो रही है, तो बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि देश के ही एक राज्य गोवा में ‘यूनिफॉर्म सिविल कोड’ लागू है। वहाँ सभी धर्मों के लोगों पर एक ही कानून लागू होता है। सवाल यह है कि सिर्फ  एक राज्य में ऐसा कानून क्यों है? आपको बता दें कि यह मामला गोवा के भारत में विलय से जुड़ा है। वहाँ विलय और समान नागरिक संहिता लागू होना एक-दूसरे से जुड़े मुद्दे हैं। भारत 15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश हुकूमत से स्वतंत्र हुआ। लेकिन इसके बाद भी भारत के कुछ क्षेत्र पुर्तगाली, फ्रांसीसी उपनिवेशी शासकों के अधीन थे। इनमें गोवा के अलावा दमन दीव और दादर नगर हवेली भी हैं, जिनका भारत में विलय उस समय नहीं हुआ। भारत की पंडित नेहरू सरकार ने गोवा पर आधिपत्य के लिए ‘ऑपरेशन विजय’ चलाया। इस तरह साल 1961 में भारत में शामिल होने के बाद गोवा, दमन और दीव के प्रशासन के लिए भारतीय संसद ने गोवा, दमन और दीव एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट 1962 कानून पारित किया। इस कानून में भारतीय संसद ने पुर्तगाल सिविल कोड 1867 को गोवा में लागू रखा, जिसमें यूनिफॉर्म सिविल कोड की व्यवस्था थी। इस तरह भारत का हिस्सा होने के बाद भी गोवा में समान नागरिक संहिता लागू हो गयी, जो आज तक देश के अन्य किसी हिस्से में नहीं है। भारत का हिस्सा होने के बाद गोवा में सभी धर्मों के लोगों के लिए एक-सा क़ानून लागू होता है। उदाहरण के लिए गोवा में पंजीकृत शादियों वाले मुस्लिम पुरुष बहु-विवाह (एक से ज़्यादा विवाह) नहीं कर सकते। अब भले देश में कानून बनने के बाद खत्म हो गया, इस्लाम को मानने वालों के लिए मौखिक तलाक (तीन तलाक) का गोवा में कोई प्रावधान पहले से नहीं था। गोवा में उत्तराधिकार, दहेज और विवाह के सम्बन्ध में हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई के लिए एक ही कानून है। इस कानून में ऐसा प्रावधान भी है कि कोई माता-पिता अपने बच्चों को पूरी तरह अपनी सम्पत्ति से वंचित नहीं कर सकते। गोवा में लागू समान नागरिक संहिता में एक प्रावधान यह भी है कि यदि कोई मुस्लिम अपनी शादी का पंजीकरण गोवा में करवाता है, तो उसे बहु-विवाह की अनुमति नहीं होगी। दिलचस्प बात है कि हाल में सर्वोच्च न्यायालय में भी एक सम्पत्ति विवाद मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस की पीठ ने गोवा में समान नागरिक संहिता की मिसाल दी थी।

 क्या है एनआरसी?

एनआरसी इस समय देश में सबसे ज़्यादा चर्चित मुद्दों में से एक है। संसद में गृह मंत्री के इस ब्यान पर कि मोदी सरकार एनआरसी पूरे देश में लागू करना चाहती है, बहस और चर्चा शुरू हो गयी है। भाजपा के एजेंडा एनआरसी बहुत पहले से रहा है। पहले यह जानना ज़रूरी है कि एनआरसी है क्या? तहलका के पाठकों के लिए बता दें कि यह सारी कवायद सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश में हो रही है।

दरअसल, इसकी शुरुआत 1986 में हुई, जब असम में अवैध रूप से रह रहे अप्रवासियों, खासकर बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान की ज़रूरत महसूस की गयी। नेशनल सिटिजन रजिस्टर असम में रहने भारतीय नागरिकों की पहचान के लिए बनायी गयी एक सूची है और आज की तारीख में सिर्फ असम में ही लागू है। इस प्रक्रिया के लिए 1986 में सिटीजनशिप एक्ट में संशोधन कर असम के लिए विशेष प्रावधान किया गया। इसके तहत रजिस्टर में उन लोगों के नाम शामिल किये गये हैं, जो 25 मार्च, 1971 के पहले से असम के नागरिक हैं या उनके पूर्वज राज्य में रहते आये हैं।

वैसे असम में पहली बार नेशनल सिटीजन रजिस्टर 1951 में बना था। तब बने रजिस्टर में उस साल हुई जनगणना में शामिल हर शख्स को राज्य का नागरिक माना गया। हालाँकि बाद के वर्षों में रिवाइज करने की माँग की जाने लगी। आरोप रहा है कि पड़ोसी देशों खासकर बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ के चलते वहाँ जनसंख्या संतुलन गड़बड़ा रहा था। स्थानीय लोग एनआरसी को अपडेट करने की माँग कर रहे थे। इस माँग और बांग्लादेशी घुसपैठ के विरोध में असम समय-समय पर विरोध-प्रदर्शन और हिंसा होती रही है।

साल 2015 में एनआरसी की प्रक्रिया शुरू हुई और 2018 तक राज्य के 3.29 करोड़ लोगों ने नागरिकता साबित करने के लिए 6.5 करोड़ दस्तावेज़ सरकार को भेजे। एनआरसी के प्रारूप का कुछ (पहला) हिस्सा 31 दिसंबर, 2017 को जारी किया गया; जबकि दूसरा ड्राफ्ट जुलाई, 2018 में प्रकाशित हुआ। दूसरी एनआरसी सूची में 3.29 करोड़ लोगों में से 2.89 करोड़ लोगों को नागरिक माना गया था; वहीं 40.37 लाख लोगों का नाम शामिल नहीं था। नेशनल सिटिजन रजिस्टर (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्ट/एनआरसी) की आिखरी सूची 31 अगस्त, 2019 को जारी की गयी थी। इस अंतिम सूची में राज्य के 3.29 करोड़ लोगों में से 3.11 करोड़ लोगों को भारत का वैध नागरिक करार दिया गया है; जबकि करीब 19 लाख लोग इससे बाहर हैं। इनमें वे लोग भी शामिल हैं, जिन्होंने कोई दावा पेश नहीं किया था। जिन लोगों के नाम लिस्ट में नहीं हैं, उनके सामने अब भी फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में अपील करने का मौका है। फाइनल एनआरसी में उन लोगों के नाम शामिल किये गये, जो 25 मार्च, 1971 के पहले से असम के नागरिक हैं या उनके पूर्वज राज्य में रहते आये हैं। इस बात का सत्यापन सरकारी दस्तावेज़ों के ज़रिये किया गया। हालाँकि, सूची को लेकर आहूत सवाल भी उठे हैं और ऐसे लोग भी सामने आये हैं, जिनके परिजन सेना में रहे हैं; लेकिन उनका नाम सूची में है ही नहीं। यहाँ तक कि पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के परिजनों तक को सूची से बाहर कर दिया गया है।

 समान आचार संहिता है क्या?

भाजपा के एजेंडे में समान आचार संहिता (कॉमन सिविल कोड) बहुत ऊपर रहा है।

आयोध्या पर फैसला आने के तुरन्त बाद वरिष्ठ नेता और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि अब समय आ गया है कि समान आचार संहिता पर बात हो। आपको बता दें कि कॉमन सिविल कोड है क्या और इसके क्या मायने हैं? िफलहाल यह मामला कोर्ट में भी है। सीधी भाषा में कहें तो कॉमन सिविल कोड (समान आचार संहिता) के मायने हैं- देश के तमाम नागरिकों के लिए एक-सा  कानून। अर्थात् इसमें धर्म या कोई और चीज़ आड़े नहीं आएगी। सरल शब्दों में कोई हिंदू हो, मुस्लिम हो, सिख हो, पारसी हो, ईसाई हो या किसी भी अन्य धर्म/सम्प्रदाय से हो, सभी को एक ही कानून के तहत चलना होगा। हालाँकि, इसके पक्ष और विपक्ष दोनों में लोग रहे हैं। भारत में समान नागरिकता कानून लाये जाने को लेकर बहस चलती रही है। समर्थक कहते हैं कि देश में सभी नागरिकों के लिए एक जैसा नागरिक कानून होना चाहिए, फिर चाहे वो किसी भी धर्म से क्यों न हो। लेकिन यह भी याद रखने लायक बात है कि स्वतंत्रता के बाद जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और कानून मंत्री डॉ. बीआर आंबेडकर ने समान नागरिक संहिता लागू करने की बात की, उस उन्हें ज़बरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा था। इस विरोध के चलते ही नेहरू को हिन्दू कोड बिल तक सीमित रहना पड़ा और संसद में वह केवल हिन्दू कोड बिल को ही लागू करवा सके, जो सिखों, जैनियों और बौद्धों पर लागू होता है। आंबेडकर भी समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे। लेकिन जब उनकी सरकार यह काम न कर सकी, तो उन्होंने पद छोड़ दिया था। वैसे आज कांग्रेस समान आचार संहिता विरोध करती है। इसके अलावा देश के कमोवेश सभी मुस्लिम संगठन भी इसके सख्त िखलाफ हैं। यहाँ तक कि भाजपा के कुछ सहयोगी दल भी इस पर बँटे-बँटे से दिख रहे हैं। हालाँकि, भाजपा की इस माँग को आरएसएस का भी ज़बरदस्त  समर्थन रहा है। लेकिन देश के लोग इस कोड के बारे में अभी भी ठीक से नहीं जानते हैं।

एनआरसी की मौज़ूदा स्थिति से राज्य (असम) का हर वर्ग नाराज़ है। देश के वास्तविक नागरिकों के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए और उन्हें एनआरसी में शामिल किया जाना चाहिए। असम का हर वर्ग एनआरसी की स्थिति से नाराज़ है और भाजपा के मंत्री तक शिकायत कर रहे हैं। लापरवाही से क्रियान्वयन के कारण भारत के बहुत सारे वास्तविक नागरिकों को भी अदालतों का सामना करना होगा। कांग्रेस सबकी मदद करेगी। राजनीति से ऊपर देश हमारा लक्ष्य है।

गौरव गोगोई

असम से कांग्रेस सांसद

राम मंदिर का फैसला आ गया। अभी कॉमन सिविल कोड जैसे मुद्दे हैं, जिन पर काम किया जाना है।

राजनाथ सिंह, रक्षा मंत्री