भय पैदा करते डिटेंशन सेंटर्स

मोदी सरकार अचानक एनआरसी से लेकर डिटेंशन सेंटर्स तक के मसले को लेकर रक्षात्मक दिखने लगी है। विरोध-प्रदर्शनों से लेकर हिंसा तक में हाथ होने का आरोप वह कांग्रेस सहित विपक्ष पर लगा रही है। लेकिन इन सबके बीच डिटेंशन सेंटर्स की चर्चा देश भर में छिडऩे से चिंतित सरकार अब कह रही है कि इन सबकी शुरुआत तो कांग्रेस सरकार के समय से ही हो गयी थी। डिटेंशन सेंटर्स क्यों चर्चा में हैं और वास्तविक स्थिति क्या है? इसे रेखांकित करती है राकेश रॉकी की यह रिपोर्ट

राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) में अपडेट को पिछले साल के आिखर में मोदी सरकार ने हरी झंडी दिखा दी, जिससे पहले से ही नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी को लेकर देश भर में मच रहे बवाल के बीच हिरासत केन्द्र (डिटेंशन सेंटर्स) को लेकर विवाद छिड़ गया है। राज्यसभा में नवंबर 2019 में गृहराज्य मंत्री नित्यानंद राय ने असम के डिटेंशन सेंटर्स में 28 लोगों की मौत होने की बात स्वीकार की थी।

इसकी शुरुआत हुई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक कार्यक्रम में बयान से कि देश में ऐसा कोई हिरासत केन्द्र है ही नहीं। विपक्ष सीएए, एनपीआर और एनआरसी के बहाने यह सन्देश देने की कोशिश कर रहा है कि नागरिकता का पेच फँसने पर लोगों को इन डिटेंशन सेंटर्स में रहने को मजबूर होना पड़ेगा। आन्दोलन को लेकर पहले ही दबाव में दिख रही मोदी सरकार को सफाई देनी पड़ी कि डिटेंशन सेंटर्स की योजना तो यूपीए सरकार के समय ही बन गयी थी।

दरअसल, डिटेंशन सेंटर्स को लेकर भय सरकार के बयानों से ही खड़ा हुआ। जितने नेता, उतनी बातें। देश में डिटेंशन सेंटर्स की बात सामने आने पर भय का जो वातावरण बना, तो एनआरसी को लेकर उन लोगों का भय दोगुना हो गया, जो असम के अनुभव के बाद देश के दूसरे हिस्सों में फैल गया। अब दस्तावेज़ जुटाने को लेकर लोग चिन्तित हैं। हालाँकि, लोगों के कड़े विरोध और विदेशों में भारत सरकार की निंदा के बाद एनडीए सरकार एनआरसी मामले में सुस्त पड़ी है, लेकिन डिटेंशन सेंटर्स बन रहे हैं।

प्रधानमंत्री ने कहा था- ‘देश में नहीं कोई डिटेंशन सेंटर’

गत 22 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के एक कार्यक्रम में कहा था कि देश में कोई डिटेंशन सेंटर नहीं है, यह झूठ कांग्रेस और विपक्ष की दूसरी पार्टियाँ फैला रही हैं, ताकि लोगों के मन में भय पैदा किया जा सके। लेकिन इसके बाद गृह मंत्री का एक बयान आया, जिसमें डिटेंशन सेंटर्स होने की बात की गयी। इससे इतना भ्रम फैला कि एक मौके पर सरकार को रक्षात्मक होना पड़ा।

बाद में सरकार की तरफ से कमोवेश हर मंत्री ने यह लाइन पकड़ ली कि डिटेंशन सेंटर्स को तत्कालीन मनमोहन सरकार ही प्रस्तावित कर गये थे। यानी मोदी सरकार ने डिटेंशन सेंटर्स को लेकर उठे विवाद से पल्ला झाडऩा चाहा। इससे सरकार की स्थिति ही खराब हुई। कई मंत्रियों को मोर्चे पर झोंकने के बावजूद देश में डिटेंशन सेंटर्स को लेकर अब चर्चा बड़ा रूप ले चुकी है।

पुलिस कार्रवाई पर दी सफाई

पहले से ही एनआरसी, एनपीआर और सीएए को लेकर सरकार की स्थिति सफाई देने वाली हो चुकी है। यूपी, दिल्ली से लेकर असम तक आज भी विरोध-प्रदर्शन जारी हैं। यूपी और अन्य हिस्सों विरोध-प्रदर्शनों के दौरान 25 से ज़्यादा लोगों की जान चली गयी। यूपी पुलिस तो सफाई देती रही कि पुलिस की गोलियों से कोई नहीं मरा। बाद में कुछ तथ्य सामने आये, तो पुलिस प्रशासन ने बड़ी झिझक के साथ एकाध मामले में पुलिस की गोली से किसी के मरने की बात स्वीकारी।

सरकार भले हाल के विरोध-प्रदर्शनों को आसामाजिक तत्त्वों का काम और विपक्ष के हिंसा को उकसाने के अलावा इसमें विदेशी हाथ की बात कह रही हो, सच यह कि इन विरोध-प्रदर्शनों को समाज के हर वर्ग का समर्थन मिला है, जिससे मोदी सरकार के भीतर चिन्ता बढ़ी है।

लोगों में बढ़ी चिन्ता और घबराहट

इन सब परिस्थितियों में डिटेंशन सेंटर्स के मुद्दे ने देश में एनआरसी को लेकर बड़ी चिन्ता पैदा कर दी है। देश में रह रहे भारतीयों में से अधिकतर लोगों में, खासकर ग्रामीणों, आदिवासियों, बेघरों और खानाबदोशों में इस बात को लेकर घबराहट है कि अगर उन्हें यह साबित करना पड़ा कि वे भारतीय हैं, तो उनके सामने पुराने दस्तावेज़ जुटाने की समस्या शत्-प्रतिशत आयेगी। अनेक लोग ऐसे हैं, जिन्हें यह तक नहीं पता कि उनके दादा या परदादा का नाम क्या था? वहीं एक जगह से दूसरी जगह विस्थापित लोगों के पास भी पुराने दस्तावेज़ नहीं मिलेंगे। ऐसे में वे भारतीय होते हुए भी विदेशी साबित कर दिये जाएँगे और उन्हें हिरासत में लेकर डिटेंशन सेंटर्स में भर दिया जाएगा। देश में लाखों की संख्या में ऐसे मज़दूर हैं, जो कभी एक जगह काम नहीं करते। इन्हें घुमंतू मज़दूर कह सकते हैं। अर्थात् जहाँ काम मिला, वहीं डेरा जमा लिया। इनके पास तो न आधार कार्ड हैं, न राशन कार्ड, न बिजली या गैस के बिल या कनेक्शन। इसके अलावा दूरदराज के इलाकों में लाखों लोग हैं जिनके पास दस्तावेज नहीं। देश में अभी तक 100 प्रतिशत लोगों के आधार कार्ड भी नहीं बने हैं। मुस्लिम समुदाय की ही बात की जाये तो देश में उनकी संख्या करीब 20 करोड़ है। इनमें से सिर्फ 10 प्रतिशत भी एनआरसी के पेच में उलझ जाएँ (या उलझा दिए जाएँ), तो अकेले यह संख्या ही दो करोड़ हो जाएगी। दूसरे समुदाओं को भी इसमें जोड़ लिया जाये तो देश में डिटेंशन सेंटर्स के निर्माण के लिए ही बाकायदा अलग बजट का प्रावधान करना पड़ेगा। नहीं भूलना चाहिए कि असम में बड़ी संख्या हिन्दू भी एनआरसी के पेच में फँस चुके हैं और दस्तावेज़ जुटाने के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। इसके अलावा गाँवों में ऐसे असंख्य लोग हैं, जिनके मकानों के पंजीकरण के कागज़ात हैं ही नहीं। इनमें से बहुत से मकान पुश्तैनी हैं। दूसरे इस सारी कवायद से दुनिया में भारत की एक सभ्य देश के रूप में पहचान को बहुत बड़ा धक्का लगने का भी बड़ा खतरा पैदा हो रहा है।

सरकार को करना पड़ा बड़े आन्दोलन का सामना

पिछले करीब साढ़े पाँच साल के शासन में यह पहला अवसर है, जब मोदी सरकार का किसी बड़े आन्दोलन से सामना हुआ है। विपक्ष ने यह भी आरोप लगाये कि हिंसा के पीछे सरकार के प्रायोजित लोगों का हाथ था, ताकि आन्दोलन को बदनाम किया जा सके और उसकी धार कुन्द की जा सके। भले सरकार आन्दोलन में हिंसा के लिए प्रदर्शनकारियों और विपक्ष को •िाम्मेदार ठहरा रही हो। अब जो माहौल बना है, उसमें लोगों में एनआरसी के बाद के हालात को लेकर चिन्ता पैदा हो रही है। भले अभी तक एनआरसी को मंत्रिमंडल में नहीं लाया गया और यह भी साफ नहीं है कि सरकार कब तक इससे जुड़ा बिल संसद में लाएगी? लेकिन सरकार के मंत्री जिस तरह यह बार-बार दोहरा रहे हैं कि एनआरसी आएगा ही, उससे लोगों में भय का माहौल बन गया है। उन्हें लग रहा है कि कहीं वे दस्तावेज़ नहीं जुटा पाये, तो डिटेंशन सेंटर्स में रहने की नौबत न आ जाए।

पुराने रिकॉर्ड खँगालने में लगे लोग

सच यह है कि देश भर में लोग अभी से अपने पुराने रिकॉर्ड और दस्तावेज़ खँगालने लगे हैं। वे चाहते हैं कि समय रहते दस्तावेज़ जुटा लिये जाएँ। ऐसे लाखों लोग हैं, जो दस्तावेज़ों को लेकर आशंकित हैं कि जुटा भी पाएँगे या नहीं। इनमें सभी धर्मों और समुदायों के लोग हैं। इस मामले में लोग अब दस्तावेज़ जारी करने वाले अफसरों की ओर लाचारी से देख रहे हैं। बता दें कि दस्तावेज़ इकट्ठा करने के मामले में माना जा रहा कि रिश्वत का खेल शुरू हो गया है। हालाँकि इस तरह के आरोप तब तक पुख्ता नहीं माने जा सकते, जब तक किसी पर आरोप सिद्ध न हो जाए।

डिटेंशन सेंटर का हो रहा निर्माण

डिटेंशन सेंटर्स को लेकर सरकार का बयान निश्चित ही गलत है; क्योंकि असम में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर बहुत बड़े स्तर पर विरोध हुआ है। वहाँ के गोलपारा के मटिया में डिटेंशन सेंटर्स का तेज़ गति से निर्माण चल रहा है। इसका निर्माण भाजपा सरकार के ही समय 2018 में शुरू हुआ लिहाज़ा इससे मोदी सरकार की नीयत पर सवाल उठाये जा रहे हैं। तहलका संवाददाता ने जो जानकारी जुटायी उसके मुताबिक, मटिया डिटेंशन सेंटर का करीब 70 फीसदी हिस्सा बनकर तैयार हो चुका है।

छोटा-मोटा नहीं होगा डिटेंशन सेंटर

डिटेंशन सेंटर कोई छोटा-मोटा भवन नहीं होगा। इसमें करीब 15 इमारतें होंगी और हरेक इमारत चार-चार मंजिला बनायी जाएंगी। वैसे तो इसे पिछले साल के आिखर तक पूरा किया जाना था, लेकिन अब यह 2020 के मध्य या आिखर तक ही बनकर तैयार हो पाएगा। कारण पिछली बरसात में वहाँ जल भराव हो गया था, जिसके चलते काम रुका था।

बहुत खराब होती है डिटेंशन सेंटर की हालत

अगर हम दुनिया के डिटेंशन सेंटर्स की बात करें, तो ज़ाहिर होता है कि उनमें से ज़्यादातर की हालत बहुत खराब होती है और वहाँ सुविधाओं के नाम पर कुछ नहीं होता। हालाँकि, गोवालपारा के डिटेंशन सेंटर में स्कूल और अस्पताल के लिए भवन का अलग से इंतज़ाम करने की बात कही जा रही है। जो भवन वहाँ बन रहा है, उसकी 15 में से तीन इमारतें महिलाओं के लिए बन रही हैं।

यह भी सच कि राज्यों में कई बार ऐसे विदेशी पकड़े जाते हैं, जिनकी रहने की अवधि या तो खत्म हो चुकी होती है या वे बिना वैध दस्तावेज़ों के कारण वहाँ रह रहे होते हैं। कायदे से उनके रहने के लिए अलग सेंटर्स होने चाहिए; लेकिन उन्हें इसकी अनुपस्थिति में जेलों में रखा जाता है। पहले पुलिस थानों में जिन जगहों को डिटेंशन सेंटर्स में तब्दील किया गया, उनकी हालत अब बेहद खराब मानी जाती है। यह भी सामने आया है कि यह इंसानों के रहने लायक ही नहीं।

सरकार के पास है अधिकार

सरकार के पास द फॉरेनर्स एक्ट के सेक्शन 3(2)(सी) के तहत यह अधिकार है कि वह किसी भी ऐसी व्यक्ति, जो देश का नागरिक नहीं है या जिसके पास पूछताछ के वक्त वैध दस्तावेज़ नहीं हैं, उसे देश से बाहर भेज सकती है। जब तक उसे देश से बाहर नहीं भेजा जाता, उसे उस प्रक्रिया के दौरान डिटेंशन सेंटर्स में ही रखा जाता है। जेल में ही डिटेंशन सेंटर्स बनाने की शुरुआत भी असम से ही हुई, जब 2009 में केन्द्र में यूपीए की सरकार दूसरी बार सत्ता में आयी थी। घुसपैठियों की संख्या आदि से जुड़े एक मामले में तब सरकार को न्यायालय में हलफनामा दािखल करना था। हलफनामा दािखल करते वक्त महसूस किया कि इन घुसपैठियों को लेकर कोर्ट में दी जा रही जानकारी कहीं गलत न हो जाए, घुसपैठियों को किसी सुरक्षित जगह पर रखना होगा। इसके बाद जेल में ही हिरासत केन्द्र बनाने की बात हुई।

असम में बन रहा है सातवाँ डिटेंशन सेंटर

दस्तावेज़ों की छानबीन से ज़ाहिर होता है कि इस तरह के डिटेंशन सेंटर्स असम के छ: ज़िलों में हैं। इनमें गोलपारा, कोकराझार, सिल्चर, डिब्रूगढ़, जोरहाट और तेजपुर शामिल हैं; जबकि नया सेंटर मटिया में बन रहा है। यहाँ यह बताना दिलचस्प होगा कि इस सेंटर का निर्माण सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद हो रहा है और सर्वोच्च अदालत का साफ निर्देश है कि इन सेंटर्स में आम सहूलियत की सभी सुविधाएँ उपलब्ध करवायी जाएँ। माना जा रहा है कि अभी और भी डिटेंशन सेंटर्स बनाये जाएँगे।

डिटेंशन सेंटर्स बनाने में खर्च होगा मोटा बजट

भारत ही नहीं, दुनिया के दूसरे देशों में भी अवैध रूप से लोग आते हैं। सच यह है कि यह अब वैश्विक विषय बन गया है। अमेरिका के पिछले चुनाव में राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रम्प तो मेक्सिको-अमेरिका बॉर्डर पर घुसपैठ रोकने के दीवार बनाने का वादा कर सत्‍ता में आये थे। एक अनुमान के मुताबिक, अमेरिका में करीब 1.10 करोड़ ऐसे अवैध नागरिक (शरणार्थी) हैं।

लेकिन यह भी सच है कि डिटेंशन सेंटर्स बनाना और उन पर खर्च करना बहुत महँगा पड़ता है। भारत की ही बात करें, तो जैसी बड़ी संख्या यहाँ इस तरह के अवैध निवासियों की बतायी जाती है, उसके हिसाब से यदि डिटेंशन सेंटर्स बनाने पड़ें, तो उससे तो देश के बजट का एक बहुत बड़ा हिस्सा इनके निर्माण में ही खप जाएगा।

असम के मटिया में निर्माणाधीन डिटेंशन सेंटर्स पर करीब 47 करोड़ का खर्च आयेगा, जो निर्माण के पूरा होने तक बढ़ भी सकता है। इसकी कुल 15 इमारतों में महिलाओं समेत करीब 2950 लोगों (अवैध नागरिकों, घुसपैठियों) को रखा जा सकेगा। इसके अलावा उसमें अधिकारियों, कर्मचारियों और सुरक्षाकर्मियों के लिए भी इमारत होगी। इसे बनाने के लिए करीब 28,700 वर्ग फुट ज़मीन का इस्तेमाल किया जा रहा है। राजधानी गुवाहाटी से यह करीब सवा सौ किलोमीटर दूर है। इसे बनाया भी आबादी से दूर जा रहा है। इसे सही मायने में देश का पहला शुद्ध डिटेंशन सेंटर्स कहा जाएगा; क्योंकि अभी तक अवैध लोगों को जेलों में बनाये गये डिटेंशन सेंटर्स में ही रखा जाता था। असम में ही जेलों में चल रहे डिटेंशन सेंटर्स एक-दो नहीं हैं। असम के मटिया में महज 2950 लोगों के लिए बन रहे डिटेंशन सेंटर के निर्माण का खर्चा ही 47 करोड़ के आसपास बैठ रहा है यानी प्रति व्यक्ति करीब 1.75 लाख रुपये का खर्चा। यदि जो 19 लाख सूची से बाहर हुए हैं, उनके लिए ही कहीं डिटेंशन सेंटर्स बनाने पड़े, तो उसके लिए इस हिसाब से 25,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा की ज़रूरत पड़ेगी। इसके लिए बड़े पैमाने पर अतिरिक्त स्टाफ की ज़रूरत पड़ेगी। यदि 2950 लोगों के लिए 28,000 वर्ग फीट ज़मीन इस्तेमाल हो रही है, तो 19 लाख या फिर एनआरसी आने के बाद सूची से बाहर रहने वालों के लिए कितनी ज़मीन की ज़रूरत पड़ेगी, समझना मुश्किल नहीं। इसके लिए हज़ारों डिटेंशन सेंटर्स की ज़रूरत पड़ेगी। जिस देश का दुनिया में हंगर इंडेक्स में 117 देशों में 102वाँ नम्बर हो, उसके लिए इतना पैसा डिटेंशन सेंटर पर बर्बाद कर देना कितना उचित होगा, यह एक बड़ा सवाल है।

सेंटर बनाने में लगेगा लम्बा समय

एक अनुमान के मुताबिक, एनपीआर तैयार करने में कोई तीन साल का वक्त लगेगा और इसे तीन चरणों में पूरा किया जाएगा। पहला चरण पहली अप्रैल, 2020 से होगा और 30 सितंबर तक केन्द्र और राज्य सरकार के कर्मचारी घर-घर जाकर जनसंख्या के आँकड़े जुटाएँगे। एनपीआर का दूसरा चरण अगले साल 9 फरवरी से 28 फरवरी के बीच होना है, जबकि तीसरा चरण पहली मार्च से 5 मार्च के बीच। इसमें अपडेट की प्रक्रिया की जाएगी।

क्या कहते हैं सरकारी आँकड़े?

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, असम में 1985 से लेकर पिछले साल अक्टूबर तक 1.29 लाख लोगों को विदेशी घोषित किया गया है। दिलचस्प यह है कि इनमें करीब 72 हज़ार लोगों की कोई जानकारी ही नहीं है कि वे कहाँ हैं? असम की एनआरसी की अंतिम सूची में 19 लाख लोगों को विदेशी बताया गया है। इनमें सबसे अधिक हिन्दू हैं।

पहले भी हुई कोशिश

डिटेंशन सेंटर्स को लेकर पहले भी कोशिशें हुई हैं। भारत में 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी, तब राज्यों को एक पत्र लिखा गया था। इस पत्र में कहा गया था कि ऐसे विदेशी नागरिकों, जिनकी हिरासत की अवधि पूरी हो चुकी है, उनकी गतिविधियाँ सीमित की जाएँ। जब यूपीए की सरकार दूसरी बार बनी तो राज्यों के लिए एक एडवाइजरी जारी की गयी, जिसमें कहा गया था कि बांग्लादेश के अवैध शरणार्थियों को डिपोर्ट करने (वापस भेजने) के लिए सम्पूर्ण विवरण वाली प्रक्रिया अपनायी जाए।

मनमोहन सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में बाकायदा पत्र लिखकर राज्यों से इतने डिटेंशन सेंटर्स बनाने को कहा था, जिनमें ऐसे तमाम लोगों को वापस भेजने तक रखा जा सके, जो अवैध माने गये हैं या जिनकी जाँच प्रक्रिया चल रही है। ऐसे ही पत्र बाद में मनमोहन सरकार के समय में 2012 और मोदी सरकार में 2014 और 2018 में राज्यों को लिखे गये।

डिटेंशन के नाम पर लोगों को डराया जा रहा है। इसको लेकर देश भर में जो खबरें चल रही हैं, वे गलत हैं। डिटेंशन सेंटर्स की अफवाहें हैं। यह झूठ है! झूठ है!! झूठ है!!!

नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री

डिटेंशन सेंटर्स एक सतत प्रक्रिया है। यदि एक नागरिक पकड़ा जाता है, तो उसे डिटेंशन सेंटर में रखते हैं।

अमित शाह

गृह मंत्री

क्या आप लोगों ने प्रधानमंत्री का भाषण सुना है? क्या आपने डिटेंशन सेंटर्स का वीडियो देखा है? ‘आरएसएस के प्रधानमंत्री’ भारत माता से झूठ बोलते हैं।

राहुल गाँधी

कांग्रेस नेता

मैं अपनी जान देने के लिए तैयार हूँ। लेकिन भाजपा को बंगाल में डिटेंशन सेंटर्स नहीं बनाने दूँगी। कभी नहीं!

ममता बनर्जी

मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल

क्या होगा एनपीआर के तहत?

मोदी सरकार ने पिछले साल के आिखर में जब राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) की घोषणा की, तो देश में एनआरसी को लेकर नई बहस छिड़ गयी। इससे लोगों को यह लगने लगा है कि सरकार अब एनआरसी लाएगी ही। एनपीआर के तहत पहली अप्रैल से 30 सितंबर, 2020 तक नागरिकों का डेटाबेस तैयार करने की तैयारी सरकार कर चुकी है। इसमें देश भर में घर-घर जाकर जनगणना के फॉर्म भरे जाएँगे। हालाँकि यह फॉर्म पिछली जनगणना के थोड़े भिन्न हैं और इन्हें अलग फॉर्मेट के तहत लाया जा रहा है। सरकार का कहना है कि देश के सामान्य निवासियों की व्यापक पहचान का डेटाबेस बनाना एनपीआर का मुख्य उद्देश्य है। इस डाटा में जनसांख्यिकी के साथ बायोमैट्रिक जानकारी भी होगी।

माँगी जाएगी यह जानकारी

एनपीआर के तहत अप्रैल से इसकी कवायद शुरू हो रही है। एनपीआर में नाम दर्ज करवाने के लिए इसमें निम्न जानकारी की ज़रूरत पड़ेगी- व्यक्ति का नाम, लिंग, परिवार के मुखिया से सम्बन्ध, पिता का नाम, माता का नाम, पति/पत्नी का नाम, जन्म तिथि, वैवाहिक स्थिति, जन्म स्थान, नागरिकता, वर्तमान पता, पते पर रहने की अवधि, स्थायी पता, व्‍यवसाय और शैक्षणिक योग्यता।

बजट मंज़ूर कर चुकी है केन्द्र सरकार

केन्द्र सरकार पहले ही जनगणना 2021 के लिए करीब 8,754.23 करोड़ रुपये की राशि और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को अपडेट करने के लिए भारी भरकम 3,941.35 करोड़ रुपये की राशि को मंज़ूरी दे चुकी है।

भारतीयों की पहचान के लिए है एनपीआर

एनपीआर का जो खाँचा सरकार ने देश के सामने रखा है उसके मुताबिक, एनपीआर और एनआरसी में अन्तर यह है कि एनआरसी देश में अवैध नागरिकों की पहचान के लिए है। जबकि छ: महीने या उससे अधिक समय से स्थानीय क्षेत्र में रहने वाले किसी भी निवासी को एनपीआर में अनिवार्य रूप से खुद को पंजीकृत कराना होगा। कोर्ई भी व्यक्ति देश के किसी हिस्से में छ: महीने से रह रहा है, तो उसे उसी जगह एनपीआर में अपनी जानकारी दर्ज करानी होगी। विपक्ष का आरोप है कि एनपीआर में यदि सरकारी कर्मचारी ‘संतुष्ट नहीं’ टिप्पणी कर देता है, तो एनआरसी के वक्त उस व्यक्ति के लिए दिक्कतें बढ़ेंगी और दस्तावेज़ का पूरा पुलिंदा उसे तैयार करना होगा। आरोपों के बाद सरकार ने कहा कि एनपीआर की पहल तो 2010 में यूपीए सरकार के ही समय ही हो गयी थी। गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि 2011 में जनगणना के पहले इस पर काम शुरू हुआ था। अब फिर 2021 में जनगणना होनी है, लिहाज़ा एनपीआर पर काम शुरू किया जा रहा है। अब तो पासपोर्ट बनाने को लेकर भी लोगों की तरफ से दिक्कतें झेलने की शिकायतें आने लगी हैं।

सुलगते सवाल?

उन लोगों को सरकार किस देश में भेजेगी, जो भारतीय नागरिकता सिद्ध नहीं कर पाएँगे?

क्या सरकार डिटेंशन सेंटर्स में रहने वालों के लिए मूलभूत सुविधाएँ, जैसे मतदान का अधिकार, जीने के लिए ज़रूरी सुविधाएँ, उनके बच्चों को शिक्षा अधिकार, नौकरी का अधिकार, अपनी बात रखने का अधिकार देगी?

देश में बहुत-से ऐसे लोग हैं, जो भारतीय मूल के ही हैं, परन्तु उनके पास पूर्व के प्रमाण या तो थे ही नहीं या गुम हो चुके, उनका सरकार क्या करेगी?

वे लोग, जो खानाबदोश हैं, आदिवासी हैं, बेघर हैं, उनका क्या होगा? क्या सरकार उनको विदेशी मानकर बनाये जा रहे डिटेंशन सेंटर्स में बन्द कर देगी?

ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक लोगों के पास घर तो हैं, पर खेती की ज़मीन नहीं है। जैसा कि हम जानते हैं कि सदियों से बसे गाँवों में घरों की कोई रजिस्ट्री नहीं होती। ऐसे में क्या इस तरह के लोग, जिन्हें गरीब कहा जाता है; विदेशी मान लिए जाएँगे?

एक राज्य से दूसरे राज्य में बस चुके लोग, जिनका अब गाँवों या अपने पैदाइशी स्थानों पर  कोई रिकॉर्ड नहीं है, उन लोगों को क्या विदेशी घोषित कर दिया जाएगा?

क्या तीन देशों- अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आये छ: धर्मों के लोगों को भारतीय नागरिकता देने से देश पर अतिरिक्त भार नहीं पड़ेगा?

क्या भारत सरकार चीन में सताये गये हिन्दुओं, नेपाल के हिन्दुओं, श्रीलंका, म्यांमार आदि देशों में बसे इन छ: धर्मों के लोगों को भी भारतीय नागरिकता देगी?

क्या सरकार भारत में अवैध रूप से रह रहे नाइजिरियन्स को, अफ्रीकियों को और अन्य देशों के लोगों को बाहर करने के लिए कोई उपाय कर रही है?

क्या सरकार उन लोगों को भी डिटेंशन सेंटर्स में डालेगी, जो कई-कई पहचान प्रमाण-पत्र बनाकर देश में रह रहे हैं?

क्या सरकार उन लोगों को भी विदेशी घोषित करेगी, जो फर्ज़ी पहचान बनाकर देश में रह रहे हैं?

कुछ राज्य की जेलों में हैं विदेशी

दूसरे प्रदेशों में भी जब कोई विदेशी अवैध रूप से रह रहा पकड़ा जाता है, तो उसे भी वहाँ जेल में ही अस्थायी रूप से बनाये गये डिटेंशन सेंटर्स में रखा जाता है। वैसे पिछले साल जनवरी में केन्द्र ने राज्यों को एक ‘मॉडल डिटेंशन सेंटर्स मैनुअल’ भेजा था, जिसमें जेल और डिटेंशन सेंटर्स में अन्तर को बताया, ताकि राज्य इसे फॉलो करें। लेकिन तहलका संवाददाता ने जो जानकारी जुटायी उसके मुताबिक, राज्य नाममात्र को ही इस पर काम कर रहे हैं या उन्होंने ऐसे सेंटर्स बनाने से ही मना कर दिया। देश के विभिन्न राज्यों में जेलों में ऐसे लोग हैं, जो अवैध रूप से भारत में रहते हुए पकड़े गये। असम के अलावा भाजपा शासित कर्नाटक के राज्य मुख्यालय बेंगलूरु की आबादी से थोड़ा हटकर नेलामंगला में छोटा डिटेंशन सेंटर इस साल बनकर तैयार होगा। वहीं महाराष्‍ट्र के नवी मुम्बई में भी ऐसा ही एक डिटेंशन सेंटर बनाने का प्रस्ताव था। हालाँकि वहाँ सत्ता परिवर्तन के बाद कांग्रेस और एनसीपी विरोध कर सकते हैं। डिटेंशन सेंटर्स बनाने का सबसे मुखर विरोध पश्चिम बंगाल से हुआ है, जहाँ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ऐसे सेंटर्स बनाने से साफ मना कर दिया है। वहाँ पश्चिम बंगाल ने दो स्थानों पर डिटेंशन सेंटर्स बनाने का प्रस्‍ताव दिया था मगर सीएम ममता बनर्जी ने राज्‍य में ऐसा कुछ करने से मना कर दिया है। केरल की वामपंथी सरकार भी डिटेंशन सेंटर्स योजना को ठंडे वास्ते में डाले हुए है। भाजपा शासित गोवा में भी मापुसा नामक जगह में एक डिटेंशन सेंटर पिछले साल फरवरी में बनाया गया। इसके अलावा राजधानी दिल्‍ली के लामपुर में एक डिटेंशन सेंटर फॉरेनर्स रीजनल रजिस्‍ट्रेशन ऑफिस के तहत काम करता है, जबकि राजस्‍थान की अलवर सेंट्रल जेल में भी ऐसा सेंटर विकसित गया है। दिलचस्प है कि पाकिस्तान सीमा से सटे पंजाब में ऐसा कोर्ई डिटेंशन सेंटर नहीं है। वहाँ अवैध रूप से रहते हुए पकड़े गये विदेशियों को अमृतसर सेंट्रल जेल में ही रखा जाता है।