ब्रिटेन चुनाव में लेबर पार्टी पर भारी पड़े कंजर्वेटिव बोरिस जॉनसन

संसद के निचले सदन हाउस ऑफ कॉमन्स की 650 सीटों के लिए हुए चुनाव में कंजर्वेटिव टोरी पार्टी को 364 सीटों के साथ सत्ता मिल गयी है। प्रधानमंत्री के रूप में जॉनसन को अब ‘गेट ब्रेक्जिट डन’ पर काम करना है।

चार साल में तीसरी बार हुए आम चुनाव में ब्रिटेन की जनता ने आिखर कंजर्वेटिव पार्टी के बोरिस जॉनसन को चुन लिया है। संसद के निचले सदन हाउस ऑफ कॉमन्स की 650 सीटों के लिए हुए चुनाव में जनता ने कंजर्वेटिव पार्टी को 364 सीटों के साथ ज़बरदस्त बहुमत दे दिया।

तकरीबन एक सदी के बाद त्योहारों वाले दिसंबर महीने में ब्रिटेन में चुनाव हुए। ऐसा इससे पहले 1923 में हुआ था, जब दिसंबर में चुनाव कराये गये थे।

इसका असर चुनाव प्रचार में भी दिखा। मुख्य मुकाबला कंजर्वेटिव टोरी पार्टी और वाम लेबर पार्टी के बीच था। पहले लग रहा था कि दोनों में कड़ी टक्कर होगी; लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भले लेबर पार्टी ने 203 सीटें जीतीं, कंजर्वेटिव पार्टी 364 सीटों के साथ ज़बरदस्त बहुमत पाने में सफल रही। चूँकि बोरिस जॉनसन ने चुनाव में ‘गेट ब्रेक्जिट डन’ अर्थात् ब्रेक्जिट का नारा दिया था और जनता ने उन्हें पूर्ण बहुमत देकर ब्रिटेन में फिर ब्रेक्जिट का रास्ता साफ कर दिया है। चुनाव प्रचार के दौरान ही साफ हो गया था बोरिस जॉनसन पहली बार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद के लिए चुने जाने की आकांक्षा के साथ जनता के बीच पहुँचे हैं। अभियान में जॉनसन ने ब्रेक्जिट के अपने नारे को बार-बार दोहराया। इसका चुनाव परिणाम में उन्हें लाभ मिला। चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में ही साफ हो गया था कि ब्रिटेन की जनता ने बोरिस जॉनसन के साथ जाने का फैसला कर लिया है। एक सर्वे में यह सामने आया कि देश के 60 फीसदी से ज्यादा मतदाता जॉनसन के ब्रेक्जिट नारे से वािकफ थे।

वैसे लेबर नेता जेरेमी कॉर्बिन ने ही चुनाव जीतने की स्थिति में तीन महीने के भीतर ब्रेक्जिट का नया ड्राफ्ट तैयार करने, यूरोपीय संघ से उसे पास करवाने और अगले तीन महीने में ब्रिटिश जनता से उस पर जनमत संग्रह (रेफरेंडम) का वादा किया था। लेकिन वे बोरिस जॉनसन की तरह इस पर स्पष्ट नहीं थे। जनता के मन में कॉर्बिन को लेकर दुविधा थी क्योंकि इस पर वे अपनी स्थिति साफ नहीं कर पा रहे थे। जनता की दुविधा को समझते हुए बोरिस जॉनसन ने प्रचार में अपना आक्रमण जेरेमी कॉर्बिन पर साधे रखा।

पिछले चार साल में तीसरी बार हो रहे चुनाव से ब्रिटेन की जनता भी ऊब चुकी थी। प्रचार में ही जाहिर हो गया था कि ब्रिटेन की जनता चुनाव में ब्रेक्जिट को लेकर जनादेश देने जा रही है। जनता का फैसला बोरिस जॉनसन के हक में रहा।

जॉनसन ने साफ कर दिया था कि वे सत्ता में आये तो नयी संसद में आधिकारिक रूप से ‘विड्रॉल समझौता’ कहे जाने वाली ब्रेक्जिट डील को पास करवा लेंगे और 31 जनवरी को यूके को यूरोपीय संघ से निकाल लेंगे। अब जबकि वे चुनाव जीत चुके हैं, उनकी कोशिश रहेगी 2020 के अंत तक वे स्वतंत्र रूप से यूरोप, अमेरिका और दूसरे अहम साझेदारों के साथ नये व्यापारिक समझौते करें। विपक्ष को भले संदेह हो और लेबर जेरेमी कॉर्बिन कह रहे हों कि एक साल क्या अगले सात साल तक में ये समझौते पूरे नहीं हो सकते। लेकिन बोरिस ऐसा कर लेते हैं, तो फिर एक बार बिना किसी डील के ब्रिटेन के ईयू से बाहर निकलने की स्थिति बन सकती है।

चुनाव नतीजों में कंजरवेटिव पार्टी को बहुमत के आँकड़े, 326, से 30 सीटें •यादा मिली हैं। जीत के बाद पीएम बोरिस जॉनसन ने कहा है कि उन्हें अब एक नया जनादेश मिला है जिससे वह ब्रिटेन को यूरोपीय यूनियन से अलग करने वाले ब्रेक्जिट को लागू कर सकेंगे। याद रहे मार्ग्रेट थैचर की 1987 की जीत के बाद से जॉनसन की कंजरवेटिव पार्टी की यह सबसे बड़ी जीत है। इसके उलट लेबर पार्टी की हालत 1930 के बाद से सबसे अधिक खराब हुई है। ‘ब्रेक्जिट’ को लेकर ब्रिटेन में 2016 में जनमत संग्रह हुआ था, जिसके बाद आश्चर्यजनक रूप से देश की राजनीति ठंडी-सी पड़ गयी थी। देश में करीब चार साल में तीसरी बार आम चुनाव हुए थे।

 इन चुनाव परिणामों के बाद वहाँ के मुस्लिमों को लेकर भी बातें शुरू हो गयी हैं। ब्रिटिश-मुस्लिमों का कहना है कि नयी जॉनसन सरकार के अन्दर उनके समुदाय को अपने भविष्य की चिन्ता है। यूके की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बोरिस पर व्यक्तिगत रूप से इस्लामोफोबिया के आरोप लगते रहे हैं और इसी क्रम में ब्रिटेन में ब्रिटिश-मुसलमानों के स्थान को आश्वस्त करने के लिए मुस्लिम काउंसिल ऑफ ब्रिटेन (एमसीबी) ने प्रधानमंत्री जॉनसन से मुलाकात की है।

 मुस्लिम काउंसिल ऑफ ब्रिटेन के महासचिव हारून खान ने कहा कि जहाँ एक ओर सत्तारूढ़ कंजरवेटिव अपनी जीत का जश्न मना रही है, वहीं दूसरी ओर देश भर में मुस्लिम समुदाय में एक स्पष्ट डर दिखायी दे रहा है। उन्होंने कहा कि हमारी सत्तारूढ़ पार्टी और राजनीति में कट्टरता की चिन्ताओं के साथ हमने चुनाव प्रचार अभियान में प्रवेश किया था और अब सरकार पहले से ही इस्लामोफोबिया की शिकार है। हारून खान ने यह भी कहा कि जॉनसन को एक बार फिर भारी मतों के साथ सत्ता पर काबिज होने का मौका मिला है और हम प्रार्थना करते हैं कि वह पूरे ब्रिटेन के लिए कार्य करेंगे।

ब्रेक्जिट की परिभाषा

ब्रेक्जिट दो शब्दों के मेल से बना है –  ब्रिटेन + एक्जिट। अर्थात् ब्रेक्जिट का सीधा-सा मतलब है- ब्रिटेन का यूरोपियन यूनियन (ईयू) से बाहर आना। चुनाव से पहले पूरी दुनिया में इस बात को लेकर असमंजस था कि क्या ब्रिटेन ईयू में रहेगा या नहीं।  बोरिस जॉनसन की पार्टी की जीत से साफ हो गया है कि वह ब्रिटेन को यूरोपियन यूनियन से अलग कर देंगे। ब्रिटेन जब 2008 में अर्थ-व्यवस्था मंदी की मार में फँसा तब देश में ब्रेक्जिट जैसा विचार आया था। देश में महँगाई और बेरोज़गारी से त्राहि-त्राहि मचने लगी। इसके  समाधान और अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिशें चल रही थीं। तब यही महसूस किया गया कि यूरोपियन यूनियन उसे इस संकट से बाहर निकलने में कोई मदद नहीं कर रहा।

फिर यूनाइटेड किंगडम इंडिपेंडेंस पार्टी (यूकेआईपी) ने 2015 में हो रहे चुनाव के दौरान यह मुद्दा उठाया। उसने भी कहा कि यूरोपीय यूनियन ब्रिटेन की आर्थिक मंदी को कम करने में कोइ रोल अदा नहीं कर रहा। उनका कहना था कि इससे ब्रिटेन की स्थिति लगातार खराब हो रही है। आर्थिक मंदी को कारण मानते हुए कहा गया कि  ब्रिटेन को हर साल यूरोपियन यूनियन के बजट के लिए नौ अरब डॉलर अदा करने पड़ते हैं। इस कारण ब्रिटेन में बिना रोक-टोक के लोग बसते हैं। फ्री वीजा पॉलिसी से ब्रिटेन को बड़ा नुकसान हो रहा है। जून 2016 में ब्रिटेन को ईयू से बाहर निकालने के समर्थकों का तर्क था कि ऐसा करके ही ब्रिटेन को उसके पुराने औपनिवेशिक-काल वाले वैभवशाली दर्जे पर लौटाया जा सकता है। ब्रिटिश हुकूमत ने एक समय जिस तरह करीब-करीब आधे विश्व में अपने व्यापारिक सम्बन्धों और औपनिवेशिक शासन के ज़रिये राज किया था, ब्रेक्जिट समर्थकों ने उस वैभव को अपने तर्क का आधार बनाया। वैसे यह माना जाता है कि ब्रिटेन ब्रेक्जिट में यूरोपियन यूनियन से बाहर आकर भी अपने हितों को एक सीमा तक ही ऊपर रख पाएगा। भारत के साथ भी व्यापारिक समझौते करते समय भी ब्रिटेन कमोवेश अपने हित के हिसाब से फैसले नहीं कर पाएगा। ऐसा अमेरिका, यूरोप आदि के मामले में भी होगा।

ग्लोबल ब्रिटेन बनाने के अपने इरादे को पूरा करने के लिए ब्रिटेन को भारत की तरफ देखना होगा। गौरतलब है कि ब्रेक्जिट रेफरेंडम के बाद नवंबर, 2016 में उस समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री टेरीजा मे ने भारत दौरे में साफ कर दिया था। साल 2016 में ब्रिटेन भारत के उत्पादों का पाँचवाँ सबसे बड़ा निर्यातक था, जो कि कुल भारतीय निर्यात का केवल 3.3 फीसदी था। इसके विपरीत भारत का 16 फीसदी निर्यात यूरोपीय संघ में हुआ, जो कि ब्रिटेन के मुकाबले कई गुना •यादा है। वैसे ईयू खुद 2007 से भारत के साथ एक ट्रेड डील करने की प्रक्रिया में है; हालाँकि यह अभी अधर में ही है।

चुनाव में 15 भारतीयों की रिकॉर्ड जीत

ब्रिटेन की संसद के निचले सदन- हाउस ऑफ कॉमन्स में इस चुनाव में भारतीय मूल के रिकॉर्ड 15 सांसद चुने गये हैं। दिलचस्प यह है कि सन् 1892 के बाद भारतीय मूल के सांसदों की हाउस ऑफ कॉमन्स में यह सबसे बड़ी संख्या है। वैसे भारतीय मूल के जो प्रत्याशी चुने गये उनमें 14 देश के दो बड़े दलों, कंज़रवेटिव और लेबर पार्टी, के टिकट पर चुने गये। दोनों ही दलों से 7-7 भारतीय जीते हैं। कंज़रवेटिव और लेबर पार्टी के अलावा एक भारतीय लिबरल डेमोक्रेट्स पार्टी के टिकट पर जीता है। गौरतलब है कि 2017 के चुनाव में इससे चार कम अर्थात् 12 भारतीय मूल के सांसद

हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए चुने गये थे। वैसे पिछले चुनाव में जीते 12 भारतीय मूल के सांसदों ने अपनी सीटें बरकरार रखीं और उन्हें जनता ने दोबारा चुन लिया। तीन नये चेहरे आये हैं। सदन के लिए पहली बार चुने जाने वालों में गगन मोहिंद्रा, क्लेयर कूटिन्हो और नवेंद्रू मिश्रा हैं। गोवा मूल की कोटिन्हो ने 35,624 मतों के साथ सुर्रे ईस्ट सीट पर जीत दर्ज की। महिंद्रा ने हर्टफोर्डशायर साउथ वेस्ट सीट पर जीत दर्ज की जबकि नवेंद्रू मिश्रा स्टॉकपोर्ट से जीते। आज से 127 साल पहले 1892 में फिन्सबरी सेंट्रल से भारतीय मूल के दादाभाई नौरोजी पहले सांसद बने थे। अब यह आँकड़ा 15 पर जा पहुँचा है।

इस चुनाव में कंजरवेटिव पार्टी से 25 भारतीय मूल के प्रत्याशी मैदान में उतरे थे जिनमें से 7 जीतने में सफल रहे जबकि लेबर पार्टी ने 13 भारतीयों को टिकर दिया था, जिनमें से 7 जीते। लिबरल डेमोक्रेट्स ने 8 भारतीयों को मैदान में उतारा, जिनमें से एक ही जीत पाया। नतीजों के मुताबिक, कंजरवेटिव पार्टी से दो भारतवंशी पहली बार सांसद बने। इनमें गगन मोहिंद्रा (हार्टफोरशायर साउथ वेस्ट) और क्लेयर कुटिन्हो (सरे ईस्ट) शामिल हैं। पार्टी से पाँच सांसद दोबारा जीते, जिनमें प्रीति पटेल (विटहैम), आलोक शर्मा (रीडिंग वेस्ट), शैलेश वारा (कैम्ब्रिजशायर नॉर्थ ईस्ट), सुएला ब्रेवरमैन (फेयरहैम) और ऋषि सुनाक (रिचमंड यॉर्कशायर) हैं। बोरिस जॉनसन की पिछली सरकार में प्रीति पटेल गृह सचिव थीं, जबकि आलोक शर्मा के पास अंतर्राष्ट्रीय विकास जैसा महत्त्वपूर्ण विभाग था।

उधर, सुनाक राजस्व विभाग में मुख्य सचिव थे। लेबर पार्टी से नवेंदु मिश्रा पहली बार चुनाव जीते। वो स्टॉकपोर्ट से चुने गये हैं। इसके अलावा छ: सांसद पुन: इस पार्टी से विजयी हुए, जो वीरेंद्र शर्मा (एलिंग साउथहॉल), तनमनजीत सिंह धेसी (स्लोघ), सीमा मल्होत्रा (फेल्थहैम एंड  हेस्टन), प्रीत कौर गिल (बॄमघम एजबेस्टन), लिसा नंदी (विगॉन) और वेलेरी वाज (वॉल्सल साउथ)। लिबरल डेमोक्रेट्स से जीतने वाली मुनीरा विल्सन शामिल हैं।

मुस्लिम बोरिस की जीत से चिन्ता में

बहुत हैरानी की बात है कि ब्रिटिश-मुस्लिम बोरिस जॉनसन की जीत से ब्रिटेन के मुस्लिम कुछ •यादा खुश नहीं हैं। नयी सरकार में समुदाय अपने भविष्य को लेकर चिन्ता में हैं। बोरिस पर कथित रूप से इस्लामोफोबिया के आरोप लगते रहे हैं। नतीजों के तुरन्त बाद ब्रिटेन में ब्रिटिश-मुसलमानों के स्थान को सुनिश्चित करने के लिए मुस्लिम काउंसिल ऑफ ब्रिटेन (एमसीबी) ने प्रधानमंत्री जॉनसन से मुलाकात की।