बेहद निराशाजनक है हिन्दी भाषी राज्यों के कॉलेजों का प्रदर्शन

भारतीय कॉलेजों की रैंकिंग-2020

कोरोना महामारी के बीच केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा शैक्षिक गुणवत्ता के विभिन्न मापदण्डों के आधार पर जून, 2020 में उच्च शैक्षणिक संस्थानों के लिए जारी की गयी राष्ट्रीय संस्थात रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरफ) सूची में कुछ महत्त्वपूर्ण बदलाव देखने को मिले हैं। वर्ष 2016 में जब पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर एनआईआरएफ सूची जारी की गयी थी, तो उसमें महज़ चार श्रेणियों को ही शामिल किया गया था। पिछले साल तक इस सूची में नौ श्रेणियाँ शामिल थीं; लेकिन इस बार इसमें डेंटल श्रेणी को भी जोड़ा गया है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) ने इस साल जो 10 अलग-अलग श्रेणियों में रैंकिंग्स जारी की है वो समग्र, विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग, प्रबन्धन, कॉलेज, फार्मेसी, मेडिकल, वास्तुकला, कानून, तथा डेंटल हैं।

इस वर्ष जारी इंडिया रैंकिंग्स 2020 अब तक की पाँचवीं रैंकिंग हैं और हिन्दी भाषी राज्यों के लिए यह रैंकिंग्स कई मायनों में बेहद खास है। कॉलेज कैटेगरी को छोडक़र बाकी के नौ श्रेणियों में हिन्दी राज्यों के प्रदर्शन को अगर हम गौर से देखें, तो इसे सन्तोषजनक कहा जा सकता है; लेकिन कॉलेज श्रेणी में इन राज्यों का प्रदर्शन शुरुआत से लेकर अब तक बेहद निराशाजनक रहा है। जहाँ समग्र और विश्वविद्यालय की रैंकिंग्स श्रेणी में पर्याप्त भौगोलिक विविधता देखने को मिलती है, वहीं कॉलेज श्रेणी की रैंकिंग में कुछ ही राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश का प्रभुत्व है। आश्चर्य की बात यह है कि हिन्दी राज्यों में इस गम्भीर मुद्दे पर कोई ठोस विमर्श नहीं हो रहा है। इन प्रदेशों के मुख्यधारा की ज़्यादातर मीडिया संस्थानों ने या तो इसे केवल सूचनात्मक खबर बनाया है या फिर इस मुद्दे को व्यापक दृष्टिकोण से देखने में वे असफल रहे हैं।

एनआईआरएफ-2020 की सूची के कॉलेज कैटेगरी में टॉप 100 में 88 कॉलेज तीन राज्यों हैं, जबकि एक केंद्र शासित प्रदेश से है। दक्षिण के राज्यों में तमिलनाडु के सबसे ज़्यादा 32, केरल के 20, पूर्वी राज्य पश्चिम बंगाल के 7 तथा देश की राजधानी दिल्ली के 29 कॉलेजों ने देश के टॉप 100 कॉलेजों की सूची में महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया हैं। अगर हम टॉप 200 कॉलेजों की रैंकिंग्स को देखें, तो इन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश के कॉलेजों के आँकड़े और भी बढ़ जाएँ। यह बेहद दु:खद है कि देश के बड़े राज्यों में शामिल उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे हिन्दी भाषी राज्यों से एक भी कॉलेज टॉप 200 में शामिल नहीं हैं। झारखण्ड, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों की भी स्थिति बेहद निराशाजनक है। इन राज्यों का भी कोई कॉलेज टॉप 200 की सूची में शामिल नहीं हैं। अन्य हिन्दी राज्यों की अगर बात करें, तो हरियाणा का एक कॉलेज 49वें स्थान पर है और राजस्थान के दो कॉलेज टॉप 200 में शामिल हैं; लेकिन इन दोनों कॉलेजों की रैंकिंग्स 180 के ऊपर है।

बता दें कि एनआईआरएफ-2020 के समग्र सूची में लगातार दूसरे साल भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास शीर्ष पर बना हुआ है; जबकि विश्वविद्याल-रैंकिंग सूची में हर बार की तरह इस बार भी भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलूरु पहले स्थान पर बना हुआ है।

हिन्दी भाषी राज्यों में राष्ट्रीय स्तर पर कॉलेज कैटेगरी की इस रैंकिंग्स को लेकर एक गम्भीर विमर्श की ज़रूरत है; क्योंकि ऐसा नहीं है कि हिन्दी राज्यों के लिए कॉलेज कैटेगरी के आँकड़े केवल इसी साल निराशाजनक रहे हैं। अगर हम साल 2019 और 2018 की एनआईआरएफ सूची के कॉलेज श्रेणी के टॉप 100 कॉलेजों के रैंकिंग्स देखें, तो आँकड़े करीब 2020 जैसे ही लगते हैं। साल 2019 में भी टॉप 100 कॉलेजों की सूची में 88 कॉलेज और 2018 में 87 कॉलेज उन्हीं तीन राज्यों- तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल तथा केंद्र शासित राज्य दिल्ली के ही थे। साल 2019 में टॉप 100 कॉलेजों की सूची में 35 कॉलेज अकेले तमिलनाडु से थे, जबकि 2018 में इस राज्य का आँकड़ा 38 तक पहुँच गया था। साल 2019 में हिन्दी भाषी राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड से कोई भी कॉलेज टॉप 200 सूची में शामिल नहीं था। इस साल की तरह ही केवल राजस्थान के दो कॉलेजों ने इस रैंकिंग सूची में 180 के बाद अपनी जगह बनायी थी। अगर 2018 में भी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड तथा छत्तीसगढ़ जैसे हिन्दी भाषी राज्यों से एक भी कॉलेज टॉप 200 कॉलेजों की सूची में शामिल नहीं था, जो बेहद दु:खद है। कुल मिलाकर अब तक कॉलेजों की रैंकिंग्स को देखें, तो सिर्फ 2017 में हिन्दी भाषी राज्यों के कॉलेजों ने टॉप 200 की सूची में सबसे ज़्यादा संख्या में जगह बनायी थी; लेकिन इनमें से कोई भी कॉलेज टॉप 100 में शामिल नहीं था। साल 2017 में जारी रैंकिंग सूची में हिन्दी राज्यों से कुल सात कॉलेजों ने अपना स्थान बनाया था, जिसमें उत्तर प्रदेश से दो, हरियाणा से तीन, मध्य प्रदेश से एक तथा झारखंड से एक कॉलेज शामिल था। बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड जैसे हिन्दी भाषी राज्यों से एक भी कॉलेज इस सूची में शामिल नहीं थे। साल 2016 में कॉलेज कैटेगरी की रैंकिंग को शामिल नहीं किया गया था। ध्यान रहे कि यहाँ राष्ट्रीय स्तर की इस रैंकिंग में हिन्दी राज्यों के कॉलेजों के प्रदर्शन की स्थिति के बारे में बात हो रही हैं, केंद्र शासित प्रदेशों के कॉलेजों के प्रदर्शन के बारे में नहीं। वैसे हिन्दी क्षेत्र में दिल्ली और चंडीगढ़ जैसे केंद्र शासित प्रदेश कॉलेज कैटेगरी के इस राष्ट्रीय स्तर की रैंकिंग्स में काफी बेहतर कर रहे हैं। दिल्ली का मिरांडा हाउस इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जो लगातार चौथे साल कॉलेज रैंकिंग्स में पहले पायदान पर बना हुआ है।

दरअसल एनआईआरएफ-2020 की कॉलेज रैंकिंग हिन्दी राज्यों के सन्दर्भ में कई सवाल खड़े करती है। लगता है कि इन राज्यों की सरकारों और यहाँ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले निजी संस्थानों ने कॉलेज शिक्षा की गुणवत्ता पर कभी उतना ध्यान ही नहीं दिया, जितना उन्हें देना चाहिए था। इन राज्यों को बहुत वर्ष पहले ही कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस बनाने चाहिए थे; जो दुर्भाग्य से आज तक नहीं बने।

सबसे दु:खद बात यह है कि इन राज्यों में जो पुराने प्रसिद्ध कॉलेज थे, वो भी आज राष्ट्रीय स्तर पर शैक्षणिक गुणवत्ता के विभिन्न पैमानों पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं। बिहार और झारखण्ड समेत कुछ अन्य हिन्दी भाषी राज्यों में कुछ कॉलेजों के भवन इतने जर्जर हैं कि वो कभी भी गिर सकते हैं। सच तो यही है कि ये कॉलेज एक लम्बे अरसे से आधुनिकीकरण की राह देख रहे हैं। हाल के वर्षों में इन राज्यों में कॉलेजों के इंफ्रास्ट्रक्टर में कुछ बदलाव देखने को मिले हैं; लेकिन अभी इस दिशा में बहुत सुधार करने होंगे। इन राज्यों के कॉलेजों में प्राध्यापकों की नियमित नियुक्तियाँ भी एक बड़ा मुद्दा है। सच तो यही है कि इन प्रदेशों में सन्बन्धित भर्तियाँ या तो लम्बे समय बाद निकलती हैं या फिर कोर्ट केस में फँस जाती हैं। बिहार समेत कुछ अन्य हिन्दी भाषी राज्यों में हज़ारों की संख्या में ऐसे छात्र भी हैं, जो उच्च शिक्षा के लिए कॉलेजों में नामांकन तो करा लेते हैं, लेकिन वे कॉलेज सिर्फ परीक्षा फार्म भरने और परीक्षा देने ही जाते हैं। ऐसे छात्र बस कहने को नियमित छात्र होते हैं, जबकि वास्तव में या तो ये प्रतियोगी परीक्षाओं में व्यस्त रहते हैं या फिर अपनी अन्य गैर-शैक्षणिक गतिविधियों में। इन्हें नियमित कक्षा में जाना समय की बर्बादी लगता है। हिन्दी राज्यों के ऐसे कॉलेजों में 75 फीसदी उपस्थिति का नियम ज़्यादातर कागज़ों पर ही है, व्यावहारिकता में यह नियम दम तोड़ रहा है। हिन्दी भाषी राज्यों में बहुत-से कॉलेजों के पास हॉस्टल जैसी ज़रूरी सुविधा भी नहीं है। यहाँ विज्ञान विषयों की प्रयोगशालाओं और कम्प्यूटर लैब्स की स्थिति भी अच्छी नहीं है। कुछ हिन्दी राज्यों के पुस्तकालयों में अद्यतन अध्ययन सामग्री तक नहीं है। इन राज्यों के कॉलेजों में नियमित कक्षाएँ भले हों या न हों, लेकिन यहाँ पर छात्र और शिक्षक राजनीति चरम पर देखने को मिलती है; जिसने शैक्षणिक माहौल को और खराब कर दिया है।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि शिक्षा भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची में शामिल समवर्ती सूची का एक विषय है, जिस पर राज्य और केंद्र दोनों कानून बना सकते हैं और दोनों इस क्षेत्र में बेहतरी के लिए काम कर सकते हैं। वर्तमान परिदृश्य में अगर हम अब तक की राष्ट्रीय रैंकिंग्स को समग्रता से मूल्यांकन करें, तो पाएँगे कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में केंद्र सरकार के कई संस्थान देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग श्रेणियों में लगातार बेहतर करते आ रहे हैं। राज्य सरकारों को, खासकर हिन्दी भाषी राज्यों को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काफी सुधार करने की ज़रूरत है, ताकि तमाम मापदण्डों को पूरा करते हुए छात्रों को गुणवतापूर्ण शिक्षा प्रदान की जा सके। शिक्षा के आज इस व्यावसायीकरण के दौर में हमारे देश में हज़ारों निजी शैक्षणिक संस्थान खुले हुए हैं; लेकिन इनमें से कुछ ही निजी संस्थान हिन्दी राज्य समेत देश के अन्य भागों में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं और वे राष्ट्रीय स्तर की इन तमाम रैंकिंग्स श्रेणियों में लगातार टॉप में बने हुए हैं। लेकिन आजकल ज़्यादातर निजी संस्थानों को परम्परागत कोर्सेज से कुछ खास लेना-देना नहीं हैं; उनका ज़ोर प्रोफेशनल कोर्सेज चलाकर अधिक-से-अधिक पैसा कमाना है। हिन्दी राज्यों में ऐसे ढेरों निजी संस्थान हैं, जिनका मकसद सिर्फ लाभ कमाना है और वे इन राज्यों में कॉलेजों से ज़्यादा विश्वविद्यालय खोलने में लगे हुए हैं।

अल्पसंख्यक समुदायों के कॉलेज

कॉलेज कैटेगरी की अब तक की राष्ट्रीय रैंकिंग्स को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि उच्च शिक्षा में बहुत बेहतर करने वाले तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल में ईसाई मिशनरियों द्वारा स्थापित और संचालित किये जाने वाले टॉप कॉलेजों की संख्या अच्छी-खासी है। पश्चिम बंगाल के सेंट जेवियर्स कॉलेज, तमिलनाडु के लोयोला और मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज और केरल के मर इवानियोस कॉलेज कुछ ऐसे ही उत्कृष्ट कॉलेज हैं, जो एनआईआरएफ-2020 के टॉप रैंकिंग में शामिल हैं। राजधानी दिल्ली में स्थित देश के बेहतरीन कॉलेजों में शुमार सेंट स्टीफेंस कॉलेज भी अल्पसंख्यक ईसाई मिशनरी का संस्थान है, जो इस वर्ष राष्ट्रीय रैंकिंग्स में चौथे पायदान पर है। हिन्दी भाषी राज्यों में भी ईसाई मिशनरियों के कुछ कॉलेज उच्च शिक्षा में अच्छा कार्य कर रहे हैं; लेकिन यह दु:खद है कि ये कॉलेज राष्ट्रीय रैंकिंग्स में स्थान नहीं बना पा रहे हैं। झारखण्ड के रांची शहर में स्थित सेंट जेवियर्स कॉलेज, बिहार में पटना वीमेंस कॉलेज तथा उत्तर प्रदेश के प्रयागराज (इलाहाबाद) शहर का इविंग क्रिश्चियन कॉलेज आदि कुछ ऐसे ही कॉलेज हैं। इन मिशनरियों द्वारा चलाये जाने वाले कुछ कॉलेजों को स्वायत्तता भी प्राप्त है। एनआईआरएफ सूची के कॉलेज कैटेगरी के अब तक के आँकड़े यही बयाँ कर रहे हैं कि वर्तमान में देश के बहुत सारे राज्यों में आज भी ईसाई मिशनरियाँ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बेहतर कार्य कर रही हैं। सिख धर्म से सम्बन्धित दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी भी दिल्ली में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज और श्री गुरु गोबिंद सिंह कॉलेज ऑफ कॉमर्स सिख समुदाय के उत्कृष्ट अल्पसंख्यक कॉलेज हैं, जो एनआईआरएफ-2020 के कॉलेज कैटेगरी में टॉप रैंकिंग्स में शामिल रहे हैं। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी ने भी उच्च शिक्षा के लिए पंजाब समेत कुछ अन्य राज्यों में ढेरों कॉलेज खोले हैं, जो अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इस्लाम धर्म से सम्बन्धित व्यक्तिगत प्रयासों से कुछ बेहतरीन कॉलेजों को खोला गया है। केरल के कोझिकोड में फारूक कॉलेज और तमिलनाडु के तिरूचिरापल्ली शहर में स्थित जमाल मोहम्मद कॉलेज ऐसे ही कॉलेज हैं, जो एनआईआरएफ-2020 के कॉलेज कैटेगरी में क्रमश: 54वें और 88वें स्थान पर काबिज़ हैं। इन दोनों कॉलेजों को स्वायत्तता भी प्राप्त हैं। हिन्दी राज्यों में भी मुस्लिम समुदाय द्वारा उच्च शिक्षा से जुड़े कुछ अल्पसंख्यक कॉलेजों को संचालित किया जा रहा हैं, जैसे कि बिहार के गया शहर में स्थित मिर्जा गालिब कॉलेज तथा उत्तर प्रदेश के आजमढ़ में शिब्ली नेशनल कॉलेज; लेकिन इन कॉलेजों को अभी राष्ट्रीय रैंकिंग्स में स्थान बनाने में काफी वक्त लगेगा। यहाँ यह भी नोट करना ज़रूरी है कि बहुत सारे अल्पसंख्यक समुदायों के कॉलेजों को समय-समय पर सरकारी अनुदान मिलता है। अल्पसंख्यक समुदायों के शिक्षा के क्षेत्र में किये जाने वाले प्रयासों को अगर हम ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखें, तो पता चलता है कि ईसाई और सिख समुदायों ने संगठन के तौर पर (जैसे कि मिशनरी और गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति को बनाकर) शिक्षा के बेहतर संस्थानों को स्थापित किया; लेकिन मुस्लिम समाज ने जो भी शैक्षणिक संस्थान शुरू किये, उनमें ज़्यादातर व्यक्तिगत आधार पर ही आरम्भ किये हैं, जिनमें मदरसों की संख्या ज़्यादा है। जैन और पारसी जैसे अल्पसंख्यक समुदायों ने भी उच्च शिक्षा में सराहनीय प्रयास किया है।

धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के अलावा रामकृष्ण मिशन और आर्य समाज से जुड़ी संस्थाओं ने भी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रामकृष्ण मिशन से जुड़े पश्चिम बंगाल के तीन कॉलेज रामकृष्ण मिशन विद्यामन्दिर, रामकृष्ण मिशन विवेकानंद सेंटेनरी कॉलेज तथा रामकृष्ण मिशन रेजिडेंशियल कॉलेज एनआईआरएफ-2020 की कॉलेज कैटेगरी सूची में टॉप 20 में शामिल हैं। आर्य समाज से जुड़े दयानंद एंग्लो वैदिक (डीएवी) प्रबन्धक समिति ने भी दिल्ली, हरियाणा और पंजाब समेत अन्य राज्यों में कई बेहतरीन कॉलेज खोले हैं, जो उच्च शिक्षा में अच्छा काम कर रहे हैं। एनआईआरएफ-2020 के कॉलेज कैटेगरी की सूची में 9वें स्थान पर काबिज़ दिल्ली का हंसराज कॉलेज इसका बेहतरीन उदाहरण है; जिसका प्रबन्धन इसी समिति द्वारा किया जाता है।

हिन्दी राज्यों में बेहतर सरकारी प्रयास की ज़रूरत

वर्तमान में हिन्दी राज्यों में बड़ी तादाद में विद्यार्थी कॉलेजों में पढ़ रहे हैं और अभी कुछ वर्षों में उच्च शिक्षा को लेकर इनमें आकर्षण बढ़ा हैं। दुर्भाग्य यह है कि इन राज्यों में उत्कृष्ट कॉलेज और बेहतर सुविधाएँ न होने से इन राज्यों के छात्र उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं। हिन्दी राज्यों के लिए दरअसल यह बेहद शर्म की बात है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे विशाल राज्यों से एक भी कॉलेज टॉप 200 में शामिल नहीं हैं। हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखण्ड जैसे हिन्दी भाषी राज्यों का भी कोई कॉलेज टॉप 200 की सूची में शामिल नहीं है। अन्य हिन्दी राज्यों में हरियाणा और राजस्थान के कॉलेजों का प्रदर्शन भी निराशाजनक ही रहा है। यहाँ यह भी गौर करने वाली बात है कि तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल समेत अन्य कुछ राज्यों में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन करने वाले ईसाई मिशनरियों के कॉलेजों का प्रदर्शन भी हिन्दी राज्यों में बेहद खराब रहा है और इनके सारे कॉलेज एनआईआरएफ सूची के कॉलेज पिछले तीन वर्षों से रैंकिंग सूची से लगातार बाहर हैं। समय की माँग है कि हिन्दी भाषी राज्यों में राज्य सरकारों को उत्कृष्ट कॉलेज मॉडल बनाने पर ज़ोर देना चाहिए, ताकि इन राज्यों के छात्रों का पलायन रोका जा सके और उन्हें अपने ही राज्य में बेहतर शिक्षा दी जा सके। इस कार्य से छात्रों का आर्थिक बोझ तो कम होगा ही, साथ ही हिन्दी राज्यों की अर्थ-व्यवस्था भी थोड़ी मज़बूत होगी। हिन्दी राज्यों की सरकारों को यह भी चाहिए कि जो कॉलेज उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर कार्य कर रहे हैं, उन्हें वो लगातार सम्मानित करें और उन्हें ज़्यादा आर्थिक मदद देने के साथ-साथ स्वायत्तता भी दें; ताकि ऐसे कॉलेज उच्च शिक्षा के सभी ज़रूरी पैमानों पर खरे उतर सकें और दूसरे पिछड़े कॉलेज भी इससे सीख लेकर अपना प्रदर्शन सुधार सकें।

 एनआईआरएफ की रैंकिंग प्रक्रिया से आज देश के सभी कॉलेजों समेत अन्य कैटेगरी के शैक्षणिक संस्थानों को अपना प्रदर्शन सुधारने का मौका मिल रहा है और उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न शैक्षिक मापदण्डों पर खरा उतरते हुए प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है। आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में, जहाँ हर संस्थान अपने को श्रेष्ठ बताता है; भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा की सभी महत्त्वपूर्ण श्रेणियों में रैंकिंग प्रणाली को हर साल जारी करना उच्च शिक्षा के लिहाज़ से एक बेहतर कदम माना जा सकता है। हालाँकि उच्च शिक्षा से जुड़े कुछ विद्वानों तथा संस्थाओं ने इस रैंकिंग प्रणाली की आलोचना भी की है। उनका कहना है कि रैंकिंग में ज़्यादातर सरकारी संस्थानों को ही बेहतर दिखाया जा रहा है। शिक्षा मंत्रालय को रैंकिंग्स से जुड़ी तमाम उलझनों को शीघ्र ही दूर करना चाहिए; ताकि उच्च शिक्षा से जुड़े अधिकतर विद्वानों और संस्थानों को भरोसे में लिया जा सके। इस रैंकिंग को सन् 2015 में शुरू किया गया था और इस वर्ष जारी यह पाँचवीं रैंकिंग हैं। भारत सरकार द्वारा जारी होने के नाते इस रैंकिंग्स प्रणाली पर छात्रों एवं उनके अभिभावकों समेत उच्च शिक्षा से जुड़े लोगों व संस्थाओं का विश्वास धीरे-धीरे मज़बूत होगा और आने वाले समय में इस रैंकिंग प्रणाली का महत्त्व और अधिक बढ़ेगा। सम्भव है कि देश के बहुत सारे छात्र अच्छे करियर की उम्मीद में उन्हीं संस्थानों में प्रवेश लेने की कोशिश करें, जिन उच्च संस्थानों ने वरीयता सूची में बेहतर स्थान बनाया हो।

 (लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पीएचडी स्कॉलर हैं।)