बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान के बावजूद घट रहा बच्चियों का अनुपात

बेटियों की संख्या कम होना समाज और देश के लिए ही नहीं, बल्कि दुनिया के लिए भी अच्छी खबर नहीं है। देश में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे के बावजूद बेटियों की संख्या कम हो रही है। इस खबर का स्रोत सोशल मीडिया नहीं, बल्कि सरकार की ओर से राष्ट्रीय स्तर पर कराया गया सर्वे है। हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने पाँचवाँ राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (2019-2020) के पहले चरण के आँकड़े जारी किये हैं। यह सर्वे पूरे देश में कराया जाता है, लेकिन कोविड-19 महामारी के कारण आयी दिक्कतों की वजह से इस बार यह पूरे देश में नहीं हो सका। अभी देश के 22 राज्यों व 5 केंद्र शासित राज्यों के आँकड़ें ही जारी किये गये हैं। बाकी राज्यों व केंद्र शासित राज्यों में नवंबर 2020 से काम शुरू हुआ और उम्मीद है कि मई, 2021 तक यह सर्वे पूरा हो जाएगा। जिन राज्यों में यह सर्वे हुआ, उनमें बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तेलगांना, केरल, मेघालय, नागालेंड, असम, सिक्किम, कर्नाटक, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, अंडमान निकोबार, जम्मू और कश्मीर, लद्दाख एवं लक्षद्वीप हैं। सर्वे के आँकड़ों में एक सेक्शन बाल लिंगानुपात का भी है और चिन्ता की बात यह है कि आठ राज्यों में बाल लिंगानुपात पिछले चार साल की अवधि में घटा है। यानी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 (2015-16) और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (2019-2020) के दरमियान लड़के-लड़कियों के अनुपात में सुधार होने की बजाय गिरावट दर्ज की गयी है। बता दें कि शून्य से 6 वर्ष के बीच की उम्र में प्रति एक हज़ार लड़कों पर लड़कियों की संख्या को बाल लिंगानुपात कहा जाता है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार, भारत में बाल लिंगानुपात 927 था, जो कि 2011 जनगणना में घटकर 919 हो गया था। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 के पहले चरण में शामिल जिन आठ राज्यों में बाल लिंगानुपात में गिरावट दर्ज की गयी है, उनमें केरल, बिहार, महाराष्ट्र, हिमाचल, मेघालय, गोवा, नागलैंड व दादर व नागर हवेली हैं। केरल राज्य का नाम लेते ही एक आदर्श राज्य की तस्वीर खुद-ब-खुद सामने आ जाती है। इसकी वजह यह है कि यह राज्य मानव सूचकांक में देश के बाकी राज्यों से बेहतर प्रदर्शन करता रहा है। केरल में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 के आँकड़ों के मुताबिक, वहाँ 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या 1,047 थीं। बाल लिंगानुपात के सन्दर्भ में केरल ने उस समय सराहनीय प्रदर्शन किया था, लेकिन हाल ही में जारी सर्वे-5 के आँकड़ें बताते हैं कि यह संख्या अब 951 रह गयी है। यानी 96 अंक का नुकसान हुआ है। सबसे अधिक गिरावट दादर व नागर हवेली में दर्ज की गयी है। यह गिरावट 166 अंक की है। 2015-16 यानी सर्वे-4 के अनुसार, वहाँ प्रति 1000 लड़कों पर 983 लड़कियाँ थीं। लेकिन 2019-2020 में यह संख्या घटकर 817 रह गयी है। गोवा, पर्यटन के लिए दुनिया भर में मशहूर राज्य से भी बाल लिंगानुपात की खबर सुखद नहीं है। यहाँ 2015-16 में बाल लिंगानुपात 1000 / 966 था, चार साल बाद यह घटकर 1000 / 838 रह गया है। यानी 128 अंक की गिरावट। हिमाचल भी पर्यटन के लिए जाना जाता है, सैलानी गर्मी और सर्दी, दोनों मौसम में यहाँ जाते हैं। इस राज्य की साक्षरता दर भी अच्छी है; लेकिन बाल लिंगानुपात में सुधार करने की बजाय यहाँ भी स्थिति बिगड़ी है। 2015-16 में बाल लिंगापुपात 1000 / 937 था, जो कि चार साल में गिरकर 1000 / 875 रह गया है। यानी यहाँ 62 अंक की कमी दर्ज की गयी है। बिहार में भी अनुपात में 20 अंक की कमी आयी है। 2015-16 सर्वे-4 के अनुसार, लड़कियों की संख्या 1000 लड़कों पर 934 थी, जो  2019-2020 में गिरकर 1000 पर 908 रह गयी है। मेघालय जो कि सर्वे-4 के अनुसार, बाल लिंगानुपात के सन्दर्भ में बेहतर राज्य था, वहाँ पहले बाल लिंगानुपात 1000 / 1,009 था, जो अब घटकर 1000 / 989 हो गया है। महाराष्ट्र में 2015-16 में बाल लिंगानुपात 1000 / 924 था, जो 2019-2020 में गिरकर 1000 / 913 पर आ गया है। वैसे महाराष्ट्र में जहाँ 2015-16 यानी सर्वे-4 के अनुसार, बाल लिंगानुपात में सुधार हुआ था। लेकिन अब 1000 लड़कों पर 11 लड़कियों की कमी हुई है। वहाँ इस मुद्दे पर काम करने वाली समाजसेविका वर्षा देशपांडे की कहना है कि इसका कारण सरकार द्वारा अब प्राथमिकता पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम का पालन नहीं कराना है। नागलैंड में भी बाल लिंगानुपात में 8 अंक की कमी आयी है।

गौरतलब है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 के आँकड़ों से खुलासा हुआ था कि बाल लिंगानुपात में अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों में पंजाब पहले नंबर पर था। उसके बाद केरल ने अच्छा प्रदर्शन किया था। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-3 (2005-06) में केरल में बाल लिंगानुपात 925 था, जो कि सर्वे-4 के अनुसार, 1047 पर पहुँच गया था। इसी तरह मेघालय ने बाल लिंगानुपात में 102 अंक और महाराष्ट्र ने 57 अंक का सुधार किया था। ध्यान देने वाली बात यह है कि सर्वे-4 में जिन शीर्ष छ: राज्यों पंजाब, केरल, मेघालय, हरियाणा, तमिलनाडु व महाराष्ट्र ने बाल लिंगानुपात में अच्छा प्रदर्शन किया था, उनमें से तीन राज्यों केरल, मेघालय व महाराष्ट्र में इस बार गिरावट दर्ज की गयी है। यह देश के लिए हैरान कर देने वाली नहीं, बल्कि शर्मनाक खबर है। क्योंकि भारत ऐसा देश है, जिसके राजनेता इसे विश्व में महाशक्ति बनने की बात करते हैं। यहाँ पर प्रधानमंत्री की बेटी बचाओ बेटी, पढ़ाओ योजना पर भी सवाल उठते हैं। गौरतलब है कि देश में बाल लिंगानुपात में गिरावट वाले गम्भीर मुददे को हल करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 जनवरी, 2015 को हरियाणा के ऐतिहासिक शहर पानीपत से बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना की शुभारम्भ किया था। इस महत्त्वाकांक्षी योजना का मकसद समाज की बेटियों के प्रति भेदभाव वाली मानसिकता में बदलाव लाना और महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देना है। यह महत्त्वाकांक्षी योजना त्रिस्तरीय प्रयास है। देश में लड़कियों की संख्या बढ़ाने और उन्हें सशक्त करने के लिए महिला व बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और मानव संसाधन विकास मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) मिलकर इस दिशा में प्रयास करते हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना शुरू में देश के उन 100 ज़िलों में लॉन्च की गयी, जहाँ बाल लिंगानुपात बहुत ही खराब था। फिर धीरे-धीरे इसका विस्तार करके इसे देश के सभी 640 ज़िलों में लागू कर दिया गया है। अब यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि बेटी पढ़ाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे के बावजूद आठ राज्यों में बाल लिंगानुपात क्यों गड़बड़ाया? जबकि ये आँकड़े सरकार की ओर से ही कराये गये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 के हैं। क्या मंत्री, आला अधिकारी इसका खुलासा करेंगे कि इन राज्यों में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना का क्या हुआ?

यहाँ पर प्रसंगवश इसका उल्लेख करना संगत लग रहा है कि वित मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2020-21 के बजट भाषण में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना की भरपूर प्रंशसा करते हुए लड़कियों के स्कूलों और उच्च शिक्षण संस्थानों में नामांकन के आँकड़ें बहुत गर्व के साथ देश के सामने रखे थे। निर्मला सीतारमण ने बताया था कि देश में लड़कियों की शिक्षा तक लड़कों के समान ही पहुँच के मौके बढ़ाने के वास्ते 5,930 आवासीय कस्तूरबा गाँधी स्कूल खोलने का फैसला लिया गया है। इसी तरह विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग आदि में लड़कियों की संख्या बढ़ाने के मकसद से देश के शीर्ष संस्थान आईआईटी, एनआईटी आदि में विशेष इंतज़ाम किये गये हैं। परिणामस्वरूप एनआईटी संस्थानों में 2017-18 आकदिमक वर्ष में लड़कियों की संख्या 14 फीसदी थी और 2019-2020 में यह संख्या बढ़कर 17.53 फीसदी तक पहुँच गयी। आईआईटी में बी.टेक कोर्सेस में 2016 में लड़कों के मुकाबले लड़कियों का अनुपात 8 फीसदी था, जो कि 2019-2020 में 18 फीसदी हो गया। याद दिला दें कि प्रधानमंत्री ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना सम्बन्धित एक कार्यक्रम में कहा था कि बेटियाँ बोझ नहीं होती, बल्कि परिवार को उन पर गर्व करना चाहिए। बेटी संग सेल्फी का ज़िक्र भी नरेंद्र मोदी ने किया था और लोगों को बेटियों के साथ सेल्फी खिंचवाने के लिए प्रोत्साहित भी किया था। मगर 2015 से लागू यह योजना कितनी कारगर है? इसका जवाब आठ राज्यों के बाल लिंगानुपात  के आँकड़े आने पर मिल गया है।

दरअसल इस योजना के तहत देश में लड़कियों की संख्या बढ़ाने के लिए पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994 का कड़ाई से पालन करवाना भी शामिल है। गौरतलब है कि इस अधिनियम के तहत जन्म से पूर्व शिशु के लिंग की जाँच पर प्रतिबन्ध है। ऐसे में अल्ट्रासांउड या अल्ट्रासोनोग्रॉफी कराने वाले जोड़े, व्यक्ति, जाँच करने वाले डॉक्टर, लैब कर्मियों आदि को जेल और भारी आर्थिक दण्ड की सज़ा का प्रावधान है। क्या इस कानून का कड़ाई से पालन हो रहा है? तत्कालीन महिला व बाल विकास मंत्री मेनका गाँधी ने अप्रैल 2015 में इस कानून को बेअसर बताते हुए बाल लिंग की जाँच को वैध यानी कानूनी जामा पहनाने की वकालत कर डाली थी। उन्होंने कहा था कि बीते 20 वर्षों में यह कानून असफल रहा है। बाल लिंग जाँच को कानूनी रूप दिया जाना चाहिए। माता-पिता गर्भ में पल रहे अपने शिशु का लिंग जान लें और फिर सरकारी एंजेसियाँ उनके इस अजन्मे शिशु के विकास को ट्रैक करें। इस बयान की खूब आलोचना हुई। बाद में मेनका गाँधी ने सफाई दी कि यह उनकी निजी राय है, न कि इसका ताल्लुक पॉलिसी स्टेटमेंट से है। लैंगिक बराबरी और बाल लिंगानुपात में सुधार के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों ने मेनका गाँधी की इस मुद्दे पर घेरेबंदी करते हुए उन्हें सलाह दी कि देश भर में 50,000 पंजीकृत अल्ट्रासांउड मशीन हैं, उनकी निगरानी करना आसान है; न कि लाखों गर्भवती महिलाओं का पीछा करना। गर्भवती महिलाओं की पीछा करना उनकी निजी ज़िन्दगी में दखल देना है। दरअसल बाल लिंगानुपात में गिरावट तक ही संकुचित रह जाने वाला मसला नहीं है, इसके किसी भी समाज, देश, दुनिया के सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आर्थिक विकास पर दूरगामी प्रभाव पड़ते हैं। इतिहास इसका गवाह है।