बुन्देलखण्ड में बदलेंगे सियासी समीकरण

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी हलचल तेज़ है और प्रदेश के हिस्से वाले बुन्देलखण्ड में इस बार भी चुनावी मुद्दे वहीं हैं, जो लम्बे समय से चले आ रहे हैं। लेकिन मुद्दों के समाधान को लेकर लोगों की माँगों ने ज़ोर पकड़ा है। इनमें बुन्देलखण्ड राज्य की माँग तो है ही, मगर दूसरी ओर रोज़गार के न होने से पलायन जैसे मुद्दे भी इस बार हावी हैं। बताते चलें कि बुन्देलखण्ड के हिस्से में कुल सात ज़िले आते हैं, जिनमें चार लोकसभा सीटें और 19 विधानसभा सीटें हैं। बुन्देलखण्ड निवासियों का कहना है कि चुनाव तो आते-जाते हैं; लेकिन चुनाव दौरान किये गये सियासी दलों द्वारा किये वादे पूरे न होने से वे ख़ुद को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं। इन्हीं मुद्दों को लेकर ‘तहलका’ के विशेष संवाददाता ने लोगों से बातचीच की, तो उन्होंने अपने मन की बात रखी।

दरअसल सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने इस क्षेत्र की पूरी-की-पूरी 19 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज कर इतिहास रचा था। तब लोगों ने उम्मीद की थी कि भाजपा को सभी 19 सीटों पर जीत दिलायी है और केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार है, तो निश्चित तौर पर बुन्देलखण्ड का विकास होगा और साथ ही अलग से राज्य भी बनेगा। लेकिन सारी-की-सारी उम्मीदें धरी-की-धरी रह गयीं। अब इस बार के विधानसभा चुनाव आते ही लोगों ने नेताओं को पुराने वादे याद कराने की कोशिश कर रहे हैं। युवाओं का कहना है कि चुनावी वादे को सिर्फ़ वादा समझने वालों को जनता इस बार चुनाव में सबक़ सिखाएगी। समाजवादी नेता पूरन सिंह ने बताया कि सन् 2014 में जब लोकसभा का चुनाव था। तब झाँसी, ललितपुर लोकसभा सीट से भाजपा की वरिष्ठ नेता उमा भारती ने बुन्देलखण्ड के विकास को लेकर तमाम वादे किये थे। साथ ही बुन्देलखण्ड राज्य बनाने का वादा किया था। लेकिन वो वादा अब तक पूरा नहीं हुआ है। हालाँकि इतना ज़रूर हुआ है कि 28 फरवरी, 2019 को सियासत दबाव और लोगों को दिखाने के लिए बुन्देलखण्ड विकास बोर्ड का गठन हुआ है। बोर्ड में बैठे पदाधिकारी भी अपनी सियासी पकड़ के चलते बुन्देलखण्ड के नाम पर कुछ भी नहीं कर रहे हैं।

जहाँ तक 2022 के विधानसभा चुनाव की बात है, तो बुन्देलखण्ड में तीसरे चरण में 19 विधानसभा सीटों पर 20 फरवरी को मतदान होना है। इस बार भाजपा और सपा के बीच चुनावी जंग आर-पार की है। बसपा और कांग्रेस चुनावी माहौल बनाने में लगे हैं। लोगों का कहना है कि यह तो बात पक्की है कि सियासत में जुमलों और वादों का दौर चलता है; लेकिन इतना भी नहीं चलता है कि चुनाव जीतने के बाद भुला दिया जाए और जनता फिर भी ख़ामोश बैठी रहे।

बुन्देलखण्ड के विकास और यहाँ सूखा पडऩे से बेहाल किसानों की सहायता के लिए काम करने वाले विनीत कुमार ने बताया कि सन् 2007 से पहले लोगों ने यह सोचा था कि मायावती सदैव दलितों के हित की बात करती हैं। लेकिन जब सन् 2007 में बसपा ने जो दलित-ब्राह्मण कार्ड खेला था, जिसमें वे सफल भी हुईं; तब लोगों को लगा था कि दलितों के साथ सामान्य वर्ग का भी विकास होगा। उनकी समस्याओं का समाधान होगा। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। बस एक सामान्य सरकार की तरह बसपा सरकार भी आरोपों-प्रत्योरोपों से घिरी रहने वाली साबित हुई।

उसके बाद सन् 2012 में अखिलेश यादव की सरकार बनी, तो लोगों ने यह आशा की थी कि अखिलेश यादव एक युवा नेता हैं और विदेश से पढक़र आये हैं। अखिलेश ज़रूर प्रदेश के विकास के साथ बुन्देलखण्ड का विकास करेंगे, जिससे इस छिटके क्षेत्र में पानी की क़िल्लत दूर होगी। किसानों को राहत मिलेगी और ग़रीबों व बेरोज़गारों का पलायन रुकेगा। हालाँकि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बुन्देलखण्ड में तालाबों के जीर्णोद्धार करने के साथ नये तालाब भी बनवाये हैं। लेकिन तालाबों की ख़ुदार्इ से लेकर और उसकी मिट्टी का ठेका ख़ासकर एक-दो विशेष जाति के लोगों को दिये जाने से बाक़ी लोगों में नाराज़गी देखी गयी। साथ ही लोगों को एम-बाई फैक्टर (मुस्लिम-यादव) के बढ़ते दबदबे से लोगों के साथ ख़ासकर महिलाओं और स्कूलों में नाराज़गी बढ़ी थी। क्योंकि थानों में और सरकारी दफ़्तरों में एम-बाई फैक्टर की ही सुनी जा रही थी। इन्हीं सब घटनाओं से क्षुब्ध होकर लोगों ने सन् 2017 के विधानसभा के चुनाव में एक तरफ़ा सभी 19 विधानसभा सीटों पर भाजपा को ऐसिहासिक जीत दिलायी।

जब प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बने, तो फिर लोगों ने यह उम्मीद की थी कि योगी आदित्यनाथ पूर्वांचल के लोगों की परेशानियों से वाक़िफ़ हैं और प्रदेश के विकास के साथ-साथ बुन्देलखण्ड में विकास की गंगा बहाएँगे और पलायन को रोकेंगे। लेकिन उन्होंने भी इस महती क्षेत्र के साथ वही सब किया, जो दूसरे सियासतदान करते हैं; सिर्फ़ और सिर्फ़ वादे, और कुछ नहीं।

बुन्देलखण्ड निवासी राजेश शुक्ला ने बताया कि बुन्देलखण्ड की कई बुनियादी समस्याओं के अलावा इसके हिस्से वाले सातों ज़िलों- बाँदा, जालौन, हमीरपुर, झाँसी, ललितपुर, महोबा और चित्रकूट की अपनी-अपनी अलग-अलग बुनियादी समस्याएँ हैं। किसी ज़िले में कुछ विकास हुआ है, तो किसी ज़िले में विकास न के बराबर ही हुआ है। ऐसे में सरकार का दायित्व तो यह बनता था कि प्रत्येक ज़िले की समस्याओं और पूरे बुंदेलखण्ड के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए विधिवत् योजनाओं को साकार करना किया जाए। लेकिन किसी भी सियासी दल ने यह कभी सोचा तक नहीं है। राजेश शुक्ला का मानना है कि बुन्देलखण्ड में झाँसी ज़िले का विकास जिस तरह हुआ है, उस तरह अन्य छ: ज़िलों में नहीं हैं। ऐसे में बाक़ी छ: ज़िले काफ़ी पिछड़े हुए हैं। सन् 2020 में कोरोना महामारी ने तो बुन्देलखण्ड को और भी पिछड़ा कर दिया है। किसानों की हालत ख़राब है। पढ़े-लिखे लोगों को रोज़गार नहीं मिल रहा है। अब फिर से बुन्देलखण्ड में अपराध बढऩे लगा है। उनका कहना है कि बुन्देलखण्ड की जनता चाहती है कि सरकार किसी भी पार्टी की बने, पर युवाओं को रोज़गार मिले और किसानों को दिये जाने वाले बजट को और बढ़ाया जाए, तब जाकर कुछ होगा; अन्यथा बुन्देलखण्ड पिछड़ता ही जाएगा।

भाजपा नेता बी.एल. आर्या ने बताया कि बुन्देलखण्ड के लोगों का अपना अलग ही मिजाज़ है और तौर-तरीक़े भी अलग हैं; तो यहाँ की सियासत भी अलग है। क्योंकि यहाँ के नेता तो चाहते हैं कि बुन्देलखण्ड राज्य बने, जिसको लेकर स्थानीय नेताओं से लेकर विधायक और सांसद आवाज़ उठाते रहते हैं। उनका कहना है कि बुन्देलखण्ड राज्य की माँग को लेकर संसद में महोबा-हमीरपुर से भाजपा सांसद पुष्पेंद्र चंदेल और बाँदा से सांसद आर.के. पटेल ने कई बार बुन्देलखण्ड राज्य की माँग को उठाया है। इसी तरह उत्तर प्रदेश विधानसभा में बुन्देलखण्ड की आवाज़ 19 विधायकों ने भी उठायी है।

बुन्देलखण्ड की सियासत के जानकार सन्तोष पटेल का कहना है कि इस बार चुनाव में बुन्देलखण्ड के सातों ज़िलों में चुनावी मिजाज़ बदला-बदला सा नज़र आ रहा है। सन् 2017 में भाजपा ने सभी 19 सीटों पर जीत दर्ज की थी। लेकिन इस बार शायद भाजपा दोबारा जीत हासिल नहीं कर सकेगी। वैसे पूरे राज्य की तरह बुन्देलखण्ड में भी जाति-धर्म के ध्रुवीकरण की सियासत होती है, जिससे वोटों को बँटवारा आसानी से हो जाता है। लेकिन इस बार बुन्देलखण्ड में सातों ज़िलों की अलग-अलग सीटों पर कहीं बसपा, तो कहीं सपा का माहौल बनता दिख रहा है। वहीं भाजपा के लिए अपनी दोबारा जीत के लिए माहौल बनाना पड़ रहा है। कांग्रेस तो खोये हुए जनाधार पाने के लिए संघर्ष कर रही है। इस बार अगर भाजपा के विधायकों के प्रति लोगों का रोष और सरकार की नीतियों का विरोध मतदान में दिखता है, तो चुनावी परिणाम चौंकाने वाले साबित होंगे।

इधर कांग्रेस नेता मनोज तिवारी का कहना है कि बुंदेलखण्ड में भाजपा, कांग्रेस, सपा और बसपा का अपना जनाधार है। इस जनाधार में सेंध लगाने के लिए सियासत दल और प्रत्याशी हर सम्भव कोशिश करते हैं। इस बार भी कर रहे हैं। लेकिन इस बार मतदाता ज़्यादा सजग हो गया है। वजह साफ़ है कि वे जानते हैं कि कोरोना महामारी में जिन्होंने अपने परिजनों को खोया है, उसकी वजह प्रदेश सरकार की उदासीनता और तानाशाही है। मरीज़ों के लिए ऑक्सीजन को लेकर उनके परिजनों को जिस तरह जूझना पड़ा है; दवाएँ नहीं मिलीं। अस्पताल में जाने के लिए एम्बुलेंस नहीं मिली। अपनों की जान बचाने के लिए कई-कई गुने दाम चुकाने पड़े। बावजूद इसके भी बहुत लोगों की जान चली गयी। यह सब बुन्देलखण्ड के निवासी भूलने वाले नहीं हैं। उनका कहना है कि मौज़ूदा दौर का यह दुर्भाग्य है कि सियासतदान चुनाव में विकास के मुद्दों की चर्चा करते हैं। आज की सियासत जनहित और देशहित की बात भुलाकर सत्ता का लाभ लेने के लिए चुनाव के दौरान बड़ी आसानी से धर्म और जाति का चुनाव बना देती है, जिससे भोला-भाला मतदाता उनके जाल में फँसकर मतदान कर देता है। उनका कहना है कि भाजपा के जो 19 विधायक चुनकर आये थे, उनमें से आधे से अधिक विधायकों के ख़िलाफ़ जनता का आक्रोश मतदान के दिन साफ़ दिखेगा।

ग्रामीण महिला पूजा मिश्रा का कहना है कि सन् 2017 में भाजपा ने जिस तरह बड़ी जीत दर्ज की थी, वो प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी के नाम पर की थी। लेकिन यहाँ के विधायक यह सोचते हैं कि उन्होंने अपने दम पर जीत हासिल की है। सो उन्होंने पूरे पाँच साल में जनता की एक नहीं सुनी। अब इस बार जनता उनकी सुनने को तैयार नहीं है। क्योंकि बुन्देलखण्ड में खनिज सम्पदा के अलावा कई स्रोत हैं, जिसके बल पर विकास किया जा सकता था। लेकिन विधायकों ने जमकर खनिज, बालू में लूटपाट की है; जिसका जबाब जनता चुनाव में देगी।