बिहार बीमारू राज्यों में सबसे नीचे क्यों है?

बिहार विधानसभा के चुनाव तीन चरणों में पूरे होने के साथ नयी सरकार का गठन 29 नवंबर तक हो जाएगा। इस बीच चुनाव प्रचार अपने चरम पर है। पहले चरण में 28 ज़िले तो दूसरे में 10 ज़िलों में मतदान होगा। चुनाव के प्रचार में इस बार केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में लाये गये कृषि सुधारों से जुड़े कानूनों को लेकर विपक्ष जहाँ एनडीए के नेतृत्व वाली बिहार में नीतीश सरकार को घेर रहा है, तो सरकार भी अपने विरोधियों को घेरने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रही है।

इस बार के चुनाव प्रचार में फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की दु:खद मौत जैसे मुद्दों के अलावा बिहार में गरीबी पर चर्चा न होना कहीं ज़्यादा दु:खद है। विडंबना यह है कि लम्बे समय यह बिहार बीमारू राज्य की श्रेणी में हैं और देश में सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे नीचे बरकरार है। 1980 में आर्थिक स्थिति का उल्लेख करते हुए बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के माथे पर बीमारू राज्य का ठप्पा लगा था। हाल के वर्षों में इन राज्यों ने कई मानव विकास संकेतकों पर प्रगति दर्ज की गयी; लेकिन देश को वैश्विक स्तर पर योगदान दिलाने में इन प्रदेशों से ज़्यादा मदद नहीं मिली। मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) में 188 देशों की सूची में भारत की 131वीं रैंक पर ही कायम है। नीति आयोग के अनुसार, पूर्वी भारत के राज्य, खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, एमपी और राजस्थान लगातार सामाजिक रूप से पिछड़े बने हुए हैं, जबकि इन राज्यों में कारोबार को सुगम बनाया गया है; ताकि मानव विकास सूचकांक में सुधार लाया जा सके। देश के राज्यों से सामाजिक बदलावों को लेकर बहुत कम आँकड़े मिलते हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं को लेकर 1998-99 और 2015-16 के बीच के आँकड़े दर्शाते हैं कि बीमारू व अन्य राज्यों में कितना ज़्यादा अन्तर है। करीब दो दशकों में बीमारू राज्य निचले पायदान पर ही हैं, जबकि केरल, पंजाब, गोवा और दिल्ली शीर्ष पर बने हुए हैं। बिहार भारत का सबसे गरीब राज्य बना हुआ है।

बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) अपेक्षाकृत संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम का नया समग्र आकलन हैं, जिसमें वैचारिक और सांख्यिकी समस्याओं में कुछ सुधार देखा गया है, जिसे मानव विकास सूचकांक में उपयोग किया जाता है। एचडीआई को महज़ आय से जोड़े जाने पर इसकी काफी आलोचना की गयी थी। एमपीआई को ऑक्सफोर्ड के सबीना अल्केर और जेम्स फोस्टर ने तैयार किया, जिसमें गरीबी को मापने के लिए 10 संकेतकों का उपयोग किया गया। इनमें तीन अहम आयाम- शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर को रखा गया। अगर व्यक्तिगत तरीके से देखें, तो एक-तिहाई या इससे अधिक देश के लोग सूचकांक के हिसाब से गरीब हैं। सूचकांक के ज़रिये गरीब और उनकी गरीबी के स्तर को मापा जाता है कि वे किन-किन चीज़ों से महरूम हैं। यहाँ तक की इस पैमाने पर भी बिहार सबसे निचले स्तर पर रहा। सांख्यिकी और कार्यक्रम मंत्रालय की रिपोर्ट और कार्यान्वयन (7 जनवरी, 2020 को जारी) के अनुसार, प्रति व्यक्ति आय के मामले में गोवा अव्वल रहा, तो उसके बाद दिल्ली और सिक्किम रहे। इन आँकड़ों के अनुसार, बिहार में प्रति व्यक्ति आय सबसे कम रही। मौज़ूदा कीमत के आधार पर 2018-19 में प्रति व्यक्ति सालाना आय महज़ 43,822 रुपये रही।

प्रति व्यक्ति आय का मतलब आर्थिक इकाई से है; जैसे देश, राज्य या शहर में लोग। इसका आकलन करने के लिए एक इकाई की कुल आय को आबादी से विभाजित किया जाता है।

गोवा की प्रति व्यक्ति आय भारत के औसत से 3.01 गुना अधिक है और सबसे गरीब राज्य बिहार से 7.18 गुना ज़्यादा। बिहार में वर्ष 2018-19 के दौरान 43,822 रुपये सालाना रही; जबकि 2017-18 में यह 38,631 रुपये थी।

गोवा 33 भारतीय राज्यों और केंद्र शसित प्रदेशों में सबसे अमीरों में शीर्ष पर रहा। गोवा की प्रति व्यक्ति सालाना आय 2018-19 के अनुसार 4,67,998 रुपये थी। दूसरे नंबर पर दिल्ली रही जहाँ प्रति व्यक्ति सालाना आय लगभग 3,65,529 रुपये रही; जबकि तीसरे स्थान पर सिक्किम रहा और चौथे स्थान पर चंडीगढ़ व पाँचवें नंबर पर पुड्डुचेरी रहा।

सबसे गरीब राज्यों में बिहार, उत्तर प्रदेश, मणिपुर, झारखंड और असम रहे। नीचे से शीर्ष-5 में शामिल इन राज्यों की औसत घरेलू प्रति व्यक्ति उत्पाद 80 हज़ार रुपये सालाना से भी कम रही।

पलायन और दुर्दशा बड़ा मुद्दा

तमाम मुद्दों के साथ ही कृषि कानूनों को लेकर काफी हंगामा चल रहा है। विपक्ष बिहार में पलायन के मुद्दे को ज़ोरदार तरीके से उठा रहा है, जबकि सत्ताधारी फिर से अपने काम व अन्य मुद्दों के नाम पर वापसी के लिए खूब मेहनत में जुटे हैं। देश में अचानक किये गये लॉकडाउन के दौरान देश भर से बिहार के करीब 30 लाख प्रवासियों हुए थे, जो इस बार के चुनाव में बड़ा मुद्दा बना हुआ है। हालाँकि जिस वजह से बिहार की लम्बे समय से हालत खस्ता है, उससे बाहर निकलने के लिए विकास को मुख्य मुद्दा होना चाहिए था। लेकिन क्या वर्तमान राजनीति में ऐसे मुद्दों पर विचार की कल्पना की जा सकती है?