बिहार का चुनावी रण, इस बार बदल सकते हैं समीकरण

बेहद खराब अर्थ-व्यवस्था, कोरोना और लॉकडाउन के बाद बढ़ी बेरोज़गारी के दौरान देश का यह पहला बड़ा चुनाव है। लिहाज़ा इसका राजनीतिक महत्त्व भी उतना ही गहरा है। कहने को यह बिहार विधानसभा का चुनाव है, लेकिन इसके नतीजे दिल्ली की राजनीति को भी काफी प्रभावित करेंगे। क्योंकि यह चुनाव नीतीश कुमार के अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों और लोकप्रियता के पैमाने को भी नये संदर्भों में तय करेगा। यही कारण है कि भाजपा खेमे में इसके सम्भावित नतीजों को लेकर चिन्तन-मन्थन शुरू हो गया है। इस चुनाव के नतीजे बिहार में तेजस्वी यादव के राजनीतिक भविष्य का भी फैसला करेंगे। कांग्रेस के पुनर्जीवित होने या नहीं होने का संकेत भी देंगे, जो वहाँ करीब 70 सीटों पर मैदान में है। चिराग पासवान खुद अपनी पार्टी की कमान सँभाले मैदान में हैं। उनका फैसला सही है या गलत? यह भी नतीजों से ज़ाहिर हो जाएगा; क्योंकि उनके पिता रामविलास पासवान अब नहीं रहे। देश की राजनीति के लिहाज़ से बहुत अहम बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

देश के बड़े दलित नेताओं में एक रामविलास पासवान के न रहने और उनकी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के एनडीए का कुनबा छोड़ अलग से ताल ठोकने ने बिहार विधानसभा के चुनाव को बहुत दिलचस्प बना दिया है। राज्य में पर्दे के सामने के गठबंधनों की तस्वीर साफ हो गयी है, लेकिन चुनाव के नतीजे और नतीजों के बाद की स्थिति पर्दे के पीछे के गठबंधन तय करेंगे। मुख्य मुकाबला महागठबंधन (राजद+कांग्रेस+अन्य) और गठबंधन (भाजपा+जदयू+अन्य) के बीच होगा, लेकिन चिराग पासवान की लोजपा कितनी सीटें जीतती है और कितनी सीटों पर गठबंधन का नुकसान करती है, यह बहुत महत्त्वपूर्ण होगा। एक तीसरा मोर्चा भी मैदान में है, जो चुनाव जीतने की दौड़ में तो नहीं दिखता, लेकिन जो भी सीटें जीतेगा, उसका दोनों मुख्य गठबंधनों को नुकसान होगा। दिवंगत रघुवंश प्रसाद सिंह के बेटे सत्यप्रकाश सिंह को जदयू में शामिल करके नीतीश कुमार ने अपना बज़न बढ़ाने की कोशिश की तो वैशाली के पूर्व सांसद रामा सिंह, जिनकी राजद से बढ़ती पींगों ने रघुवंश को खफा किया था; को तेजस्वी यादव अपने खेमे में ले आये। अब चुनाव प्रचार ज़ोर पकड़ चुका है और बिहार देश के राजनीतिक पन्नों पर दिलचस्प इबारत लिखने को तैयार है।

इस चुनाव में भाजपा के गठबंधन की भूमिका को लेकर कई सवाल उठे हैं; कुछ सम्भावनाएँ उभरी हैं। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्व यह है कि भाजपा ने एक रणनीति के तहत चिराग पासवान की लोजपा को अलग से चुनाव लडऩे दिया है। दिखावे के लिए लोजपा को कोसा है; लेकिन अंदरखाने प्रेम बना हुआ है। इसका कारण नतीजों के बाद खुद का मुख्यमंत्री बनाने की भाजपा की वर्षों की चाहत है। दूसरा यह कि बड़े पासवान के दिवंगत होने के बाद चिराग पासवान नतीजों के हक में आने के बाद अपनी पार्टी लोजपा का भाजपा में विलय कर सकते हैं या उसे समर्थन दे सकते हैं। भाजपा के नेतृत्व में बिना जदयू के सहयोग वाली सरकार बन सकती है और चिराग को केंद्र में मंत्री और उनकी पार्टी के किसी नेता को राज्य में उप मुख्यमंत्री का पद दिया जा सकता है।  नीतीश और उनकी पार्टी जदयू इस सारे घटनाक्रम के बाद फिलहाल तो भाजपा के साथ सहज दिखने का नाटक कर रही है, वास्तविकता यह है कि नीतीश भीतर से चिन्तित हैं। उन्हें साफ महसूस हो रहा है कि लोजपा का गठबंधन से बाहर जाकर सिर्फ उसके उम्मीदवारों के खिलाफ चुनाव लडऩा चिराग की उनके प्रति नाराज़गी भर नहीं है। जदयू के बहुत-से नेता मानते हैं कि इसके पीछे भाजपा की वह बड़ी महत्त्वाकांक्षा है, जिसमें वह अपना मुख्यमंत्री बनाना चाहती है। नीतीश के लिए चिन्ता यह भी है कि पिछले काफी समय से वह मुख्यमंत्री हैं और विरोधी लहर भी उन्हें ही झेलनी है।

इसके अलावा एक और पेच है। खुद चिराग पासवान बिहार की राजनीति में मज़बूती से स्थापित होना चाहते हैं। वह अपने पिता की तरह सिर्फ केंद्र की राजनीति नहीं करना चाहते। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, चिराग पासवान की पार्टी की चुनाव रणनीति मशहूर और सफल रणनीतिकार प्रशांत किशोर बुन रहे हैं। प्रशांत कुछ महीने पहले तक नीतीश की पार्टी में थे और उनकी रणनीति तैयार करते थे; लेकिन उन्हें नीतीश ने रुसवा करके बाहर का रास्ता दिखा दिया था। प्रशांत ने खुद को इससे अपमानित महसूस किया था।

चिराग की राजद नेता और कांग्रेस वाले गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव की तारीफ और उन्हें अपना छोटा भाई कहने की रणनीति के पीछे प्रशांत किशोर की ही सोच थी। इसकी बजह एक भ्रम बनाये रखना था। इस कोण से देखें तो चिराग राजद-कांग्रेस गठबंधन से भी दूरी कम करने की कोशिश करते दिखे हैं। इसके पीछे निश्चित ही उनकी कोई रणनीति हो सकती है। ऐसे में नतीजों के बाद कुछ दिलचस्प गठबंधन आकार ले सकते हैं। हाल में जदयू नेता और प्रशांत के करीबी माने जाने वाले भगवान सिंह कुशवाहा ने एलजीपी का दामन थामा है। सन् 2019 की शुरुआत में जब प्रशांत किशोर जदयू के उपाध्यक्ष हुआ करते थे, तभी भगवान सिंह कुशवाहा को उनके काफी समर्थकों के साथ जदयू वाइन करवाया था। उस समय कुशवाहा को काराकट लोकसभा सीट से टिकट देने का वादा किया गया था।

अभी तक के सर्वे से ज़ाहिर होता है कि इस चुनाव में नीतीश कुमार के सामने बड़ी चुनौती है। चुनौती भाजपा के सामने भी है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जानते हैं चुनाव में खराब गत हुई, तो उनके राजनीतिक करियर पर ही सवालिया निशान लग जाएगा। ऐसे में अपनी पार्टी जदयू को सँभालना मुश्किल होगा, क्योंकि बड़े गिद्द नज़र जमाये बैठे हैं। नीतीश लोजपा को लेकर शुरू से चौकन्ने थे; क्योंकि चिराग पासवान ने डेढ़ महीने पहले ही नीतीश और जदयू पर निशाना साधना शुरू कर दिया था।

चिराग भले लोजपा को बहुत नापतौल कर एक रणनीति के तहत चला रहे हों, नीतीश भी कम घाघ नहीं हैं। वह राजनीति को बहुत अच्छी तरह समझते हैं। चुनाव से बहुत पहले वह वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह को अपने पाले में लाने की कोशिश में सफल हो गये थे। रघुवंश अस्पताल से एक पत्र के ज़रिये यह बता चुके थे कि वह राजद छोड़ रहे हैं; क्योंकि वह राजद की उनके विरोधी रामा सिंह को पार्टी में लानी की कोशिशों से बहुत रुष्ट थे। हालाँकि इसी दौरान रघुवंश प्रसाद का निधन हो गया। अब नीतीश उनके बेटे सत्यप्रकाश सिंह को जदयू में ले आये हैं। जदयू के अध्यक्ष अशोक चौधरी कहते हैं कि उनके साथ आने से पार्टी को लाभ मिलेगा।

उधर पिता के जाने से चिराग अकेले पार्टी और उसकी रणनीति को पूरी तरह पिछले एक साल से देख रहे हैं। चिराग ने पिता रामविलास पासवान के निधन पर जैसा भावुक ट्वीट किया, उससे यह भी ज़ाहिर है कि उन्हें और लोजपा को सहानुभूति के वोट चुनाव में मिल सकते हैं। पिता की सेहत को लेकर चिराग उनकी मौत से कुछ समय पहले से ही चिन्तित थे और मानसिक रूप से इस नुकसान के लिए खुद को तैयार कर चुके थे। उनके एक-दो ट्वीट इसे ज़ाहिर करते हैं। खुद रामविलास कह चुके थे कि चिराग की पार्टी के सभी फैसले करेगा और तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं को उन्हें ही मानना होगा। चिराग की कोशिश अब लोजपा को बिहार में सहयोगी नहीं, बल्कि केंद्र वाली पार्टी बनाने की है। चिराग की लोजपा चुनाव में दूसरे दलों के मज़बूत लोगों को साथ लेने में कोई शर्म-लिहाज़ नहीं कर रही। यहाँ तक की भाजपा के नेता, जिन्हें सीटें जदयू में जाने से टिकट नहीं मिला; लोजपा में आ रहे हैं। इनमें भाजपा के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष राजेंद्र सिंह और पूर्व विधायक उषा विद्यार्थी और रामेश्वर चौरसिया तक शामिल हैं। चिराग की कोशिश लोजपा को बिहार की ‘आप पार्टी’ बनाने की है।

चुनौती राजद नेता तेजस्वी यादव के सामने भी है। वह पहली बार किसी चुनाव में मज़बूती से मुख्यमंत्री पद के दावेदार बने हैं। पिछले चुनाव में उनकी पार्टी ने सबसे ज़्यादा सीटें जीती थीं। उनके पिता लालू प्रसाद यादव जेल में हैं। भले जेल से उनकी राजनीतिक गतिविधियाँ चल रही हैं और उनकी जमानत मंज़ूर भी हो गयी है, लेकिन इससे उनके प्रत्यक्ष मैदान में होने जैसा लाभ नहीं मिल सकेगा। ऐसे में तेजस्वी खूब सक्रिय हैं। वह इसी 28 अक्टूबर को पहले चरण के मतदान से पहले कमर कस लेना चाहते हैं। नीतीश कुमार पर सीधे हमले करने के अलावा वह हाल के सैलून में नीतीश सरकार की नाकामियों, खासकर लॉकडाउन के दौरान बेरोज़गार होने वाले लोगों, को बड़ा मुद्दा बना रहे हैं। राज्य में किसानों की हालत और कृषि बिलों को भी किसानों के खिलाफ बताकर भाजपा पर चोट कर रहे हैं।

बीच में जब राजद नेता तेजस्वी यादव का नाम पूर्णिया के शक्ति मलिक हत्याकांड में उछला तो महागठबंधन के खेमे में चिन्ता पसर गयी हालाँकि जल्द ही पुलिस ने उन्हें क्लीन चिट दे दी, तो उसकी जान-में-जान आयी। क्लीन चिट के बाद जदयू और  भाजपा नेतृत्व पर करारा हमला करते हुए तेजस्वी ने इसे उनकी डर्टी पॉलिटिक्स करार दिया। क्लीन चिट मिलने से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से उन्होंने सीबीआई से जाँच करवाने की माँग की थी। तेजस्वी ने कहा कि उन पर झूठा इल्ज़ाम लगाया गया।

तेजस्वी यादव ने जदयू पर सीधा आरोप लगाया कि पार्टी ने दलित कार्ड का इस्तेमाल करने की कोशिश की। उनका राजनीतिक मकसद तेजस्वी-तेजप्रताप को फँसाना था। उन्होंने कहा- ‘मैं साफ-सुथरी राजनीति करना चाहता हूँ, पर राजनीति का स्तर गिरता जा रहा है। हताशा में डर से मुझ पर और मेरे भाई पर झूठा इल्जाम लगाया गया।’ वैसे तेजस्वी के खिलाफ चुनाव में भाजपा और जदयू के पास कहने के लिए कुछ है नहीं। कांग्रेस को लेकर भी भाजपा को राष्ट्रीय स्तर के हिसाब से ही हमला करना होगा, जबकि राजद और कांग्रेस के पास भाजपा-जदयू के खिलाफ कहने के लिए बहुत कुछ है।

रघुवंश प्रसाद सिंह के न रहने और उनके बेटे के जदयू में चले जाने से पैदा हुई कमी को तेजस्वी ने वैशाली के पूर्व सांसद रामा सिंह को साथ जोडक़र की है। राजद ने उनके पत्नी वीणा देवी को महनार से अपना उम्मीदवार घोषित किया है। बता दें रामा सिंह की राजद से बढ़ती नज़दीकियों के चलते ही, रघुवंश तेजस्वी से खफा हुए थे। रामा सिंह वह नेता हैं, जो चुनाव में रघुवंश जैसे दिग्गज को हरा चुके हैं। यहाँ यह भी दिलचस्प है कि वैशाली की राजनीति में 2014 के लोकसभा चुनाव में रामा सिंह ने लोजपा के टिकट पर रघुवंश प्रसाद सिंह को शिकस्त दी थी। यही नहीं, 2019 के चुनाव में उन्हें वीणा देवी ने ही हराया था। ऐसे में उनका राजद से जुडऩा मायने तो रखता ही है।

उधर हम अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की प्रतिष्ठा पहले ही चरण के चुनाव में दाव पर लगी है। एनडीए के तहत हम सात सीटों पर चुनाव लड़ रही है, इनमें छ: पर पहले चरण में ही चुनाव होने हैं। पार्टी के सभी वीआईपी प्रत्याशी भी पहले चरण में ही मैदान में हैं। इनमें एक इमामगंज से जीतनराम माँझी स्वयं मैदान में हैं। वहीं, पूर्व मंत्री और पार्टी के वरिष्ठ नेता अनिल कुमार टेकारी से लड़ रहे हैं। मांझी की समधिन ज्योति देवी बाराचट्टी से और दामाद देवेंद्र मांझी मखदुमपुर से चुनाव लड़ रहे हैं।

भाजपा के सामने चुनौती

यह चुनाव भाजपा के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है। वह पिछले छ: विधानसभा चुनाव हार चुकी है और जहाँ सबसे बड़ा दल बनी भी, वहाँ दूसरे दलों के साथ उसे सत्ता साझी करनी पड़ी है, या उसने चुनाव के बाद जोड़-तोड़ से सरकार बनायी है जैसे हरियाणा, कर्नाटक और मध्य प्रदेश। महाराष्ट्र जैसा बड़ा राज्य उसके हाथ से निकल चुका है। पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में उसे आने वाले समय में विधानसभा के चुनाव झेलने हैं; ऐसे में बिहार में उसकी हार भाजपा को बड़ा नुकसान और जनता में उसके प्रति नकारात्मक संदेश दे सकती है; लिहाज़ा भाजपा बिहार में यह चुनाव हर हाल में जीतना चाहती है।

लोजपा बिहार में उसके साथ नहीं लड़ रही। वहाँ भाजपा को मुकेश सहनी की विकासशील इंसाफ पार्टी (वीआईपी) को 11 सीटें देनी पड़ी हैं, जो आज तक कोई चुनाव नहीं जीती है। यही नहीं, भाजपा ने कहा है कि अपनी सरकार आने पर सहनी को विधानपरिषद् की सीट भी दी जाएगी। करीब 20 उपजातियों वाली निषाद जाति को ध्यान में रखकर भाजपा ने यह फैसला किया है। वीआईपी अभी तक कोई सीट नहीं जीत सकी है, लेकिन भाजपा को लगता है कि उसका, जदयू और वीआईपी का वोट मिलकर फायदा दे सकता है। जदयू के साथ समझौते में भाजपा के हिस्से 121 सीटें आयी हैं। इनमें से 11 वीआईपी ले गयी है, जिसके बाद भाजपा 110 सीटों पर लड़ेगी, जो जदयू की अपने बूते लड़ी जाने वाली 115 सीटों से पाँच कम हैं। जदयू को बँटबारे में 122 सीटें मिली हैं, जिनमें से 7 उसने सहयोगी हम पार्टी को दी हैं। कुल 243 विधानसभा सीटों में सरकार बनाने के लिए 122 सीटें जीतना ज़रूरी है। निश्चित ही इस बार के मुकाबले में यह चुनौती भरा काम किसी भी गठबंधन के लिए है।

भाजपा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री मोदी पर ही पूरी तरह निर्भर है। उसने अलग से लड़ रही लोजपा को मोदी की फोटो अपने पोस्टरों में इस्तेमाल न करने की चेतावनी दी है; लेकिन ऐसा होता दिखा नहीं है। इस बार चुनाव का ज़िम्मा अध्यक्ष जेपी नड्डा ही सँभाल रहे हैं। सीटों का बँटवारा भी उन्होंने ही किया है। गृह मंत्री अमित शाह, जो हाल तक भाजपा के चुनाव प्रबन्धों में गहरी रुचि दिखाते रहे हैं, इस बार बहुत सक्रिय नहीं दिखे हैं। इसका कारण उनका स्वास्थ्य बताया जा रहा है।

मुस्लिम वोट

बिहार विधानसभा चुनावों में जातीय समीकरण के साथ मुस्लिम वोट भी बहुत महत्त्व रखते हैं। इस बार मुस्लिम मतों के विभिन्न दलों के बीच विभाजित होने की बहुत ज़्यादा सम्भावना नहीं दिख रही है। करीब 17 फीसदी मुस्लिम वोट बिहार की पाँच दर्ज़न से अधिक सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाने की क्षमता रखते हैं। सूबे में अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) के करीब 26 फीसदी मत के बाद सबसे ज़्यादा मत मुस्लिमों के ही हैं। ईबीसी मत जहाँ कई पार्टियों के बीच बँटते हैं, वहीं मुस्लिम आमतौर पर एकजुट होकर भाजपा के कारण एनडीए के खिलाफ वोट करते हैं।

पिछले चुनाव की बात करें, तो मुस्लिम मतों के एकजुट होने से महागठबंधन के उस समय सहयोगी नीतीश के जदयू, लालू के राजद और कांग्रेस, तीनों को अपने-अपने हिस्से की सीटों पर फायदा मिला था। इस बार नीतीश भाजपा के साथ हैं, तो मुस्लिम मत एकजुट होकर महागठबंधन की तरफ जाने से राजद और कांग्रेस दोनों को बड़ा फायदा मिलेगा; जबकि नीतीश को नुकसान झेलना पड़ेगा। मुस्लिम मत प्रभाव वाली सीटों पर एनडीए के समीकरण इससे गड़बड़ा सकते हैं।

बिहार में करीब 64 सीटें ऐसी हैं, जहाँ मुस्लिम वोटर की तादाद 20-70 फीसदी के आसपास है। यदि मुस्लिम इन सीटों पर किसी एक तरफ जाते हैं, तो उसका असर पड़ेगा ही। कोचधमन, आमौर, जोखीहाट, बलरामपुर, मनिहारी, सिकटा आदि ऐसी सीटें हैं, जो मुस्लिम बहुतायत वाली हैं। चुनाव में मंदिर, नागरिकता कानून जैसे मुद्दे कांग्रेस, राजद बहुत मज़बूती से उठा रहे हैं; लिहाज़ा यह ध्रुवीकरण मुस्लिम मतों की एकजुट बन सकता है, जिसका सबसे ज़्यादा लाभ निश्चित भी राजद-कांग्रेस को मिलेगा। असदुद्दीन ओवैसी भले चुनाव में उम्मीदवार उतार रहे हैं और विपक्ष आरोप लगा रहा है कि वह भाजपा को फायदा देने के लिए आये हैं; ऐसे में देखन दिलचस्प होगा कि मुस्लिम किस हद तक उनका समर्थन करते हैं। हालाँकि इसकी सम्भावना ज़्यादा नहीं दिखती।

नीतीश ने मुस्लिम वोटों के लिए राजद के माई समीकरण को ध्वस्त करने की पूरी कोशिश की है। जदयू ने 115 उम्मीदवारों में से 11 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिये हैं। यही नहीं, उन्होंने 19 यादव जाति के लोगों को भी टिकट दिया है। नीतीश जानते हैं कि उनके भाजपा के साथ जाने से मुस्लिम वोट उन्हें नहीं मिलेगा; लिहाज़ा उन्होंने 11 टिकट मुस्लिमों को देकर इसकी काट निकाली है। नीतीश ने इसी कारण से हर वर्ग को साधने की कोशिश की है। सवर्ण, अति-पिछड़ों और अल्पसंख्यक वोटरों में सेंधमारी की कोशिश में उन्होंने अपने वोटों का बिखराव रोकने की कोशिश की है; लेकिन क्या इसका फायदा हो पायेगा? यह तो नतीजों से ही पता चलेगा।

तीसरा मोर्चा

बिहार में ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन, बसपा, उपेंद्र कुशवाहा की रालोजपा और जनवादी पार्टी (समाजवादी) आदि ने तीसरा मोर्चा बनाया है। बिहार चुनाव में सत्ताधारी नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस और विपक्षी महागठबंधन को टक्कर देने के लिए पहले से बने तीसरे मोर्चे ने तैयारी की है। असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम को पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा साथ लाये हैं। ओवैसी पिछले कुछ चुनावों से बिहार में अपनी िकस्मत आजमा रहे हैं और थोड़ा बहुत जनाधार सीमांचल इलाके में बनाने में सफल रहे हैं। हालाँकि इसके बावजूद उनका रोल वोट कटुवा का ही रहेगा। कुशवाहा की पहल पर ही तीसरा मोर्चा बना; क्योंकि राजद से उनकी बात नहीं बनी। उसके बाद नीतीश कुमार से बात चली; लेकिन वहाँभी मामला नहीं जमा। ओवैसी का मानना है कि बिहार की जनता दोनों प्रमुख गठबंधनों के बाहर भी धर्मनिरपेक्ष विकल्प की तलाश रही है। हालाँकि विपक्षी दल उन पर आरोप लगाते हैं कि वह जो भी करते हैं, उससे धर्मनिरपेक्ष वोट का बँटबारा होता है और फायदा भाजपा का। कुशवाहा का वोट बैंक भी है; लेकिन कितनी सीटें यह तीसरा मोर्चा जीत पायेगा? कहना मुश्किल है। इन दलों की कोशिश तो यही दिखती है कि कुछ सीटें जीतकर नतीजों के बाद पेच फँसने की स्थिति में सौदेबाज़ी की जाए।

चिराग जदयू के विरोधी क्यों

चिराग पासवान ने भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने बताया है कि क्यों वह नीतीश कुमार से नाराज़ हैं। सार्वजनिक हो चुके इस पत्र में उन्होंने नीतीश कुमार के प्रति नाराज़गी जतायी है। वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा की प्रशंसा। चिराग ने मुख्यमंत्री नीतीश के व्यवहार, कार्यशैली और बिहार में अफसरशाही के रोल को अपने आक्रोश की बजह बताया है। चिराग के मुताबिक, राज्यसभा चुनाव के दौरान पार्टी के संस्थापक और नेता रामविलास पासवान के प्रति मुख्यमंत्री नीतीश का व्यवहार बेहद खराब था। चिराग के मुताबिक, मुख्यमंत्री नीतीश ने रामविलास पासवान का अपमान किया। लोकसभा चुनाव के दौरान सीटों के बँटवारे में मुख्यमंत्री ने लोजपा को एक राज्यसभा सीट देने की घोषणा की थी;  लेकिन फिर उन्होंने समर्थन नहीं दिया। मुख्यमंत्री उनके (पासवान के) नामांकन के समय नहीं पहुँचे और बाद में विधानसभा आये। इस वजह पार्टी के नेता और कार्यकर्ताओं में आक्रोश था। जदयू नेता मुझे कालिदास और दलाल कहते हैं; जिससे मेरी पार्टी के कार्यकर्ता बहुत खफा हैं। हमारा प्रधानमंत्री मोदी के प्रति पूर्ण विश्वास है; इसके बावजूद एनडीए के सहयोगी नेताओं की बातें लोजपा-भाजपा के रिश्तों में दरार लाने का काम करेंगी।

चुनाव कार्यक्रम

बिहार में इस बार कुल 243 सीटों के लिए तीन चरणों में विधानसभा चुनाव कराये जाने हैं। पहले दौर में 28 अक्टूबर को 71 सीटों पर, दूसरे दौर में 3 नवंबर को 94 सीटों पर और आखरी यानी तीसरे दौर में 7 नवंबर को 78 सीटों पर मतदान होगा। चुनाव नतीजे 10 नवंबर को आएँगे। वैसे बिहार विधानसभा का मौज़ूदा कार्यकाल 29 नवंबर को खत्म हो रहा है।

एनडीए (गठबंधन)

पार्टी का नाम      सीटें

जदयू     115

भाजपा 110

वीआईपी            11

हम       07

महागठबंधन

पार्टी का नाम      सीटें

राजद    144

कांग्रेस   70

सीपीआई माले    19

सीपीआई           06

सीपीएम             04

मुख्यमंत्री पद के प्रमुख दावेदार

नीतीश कुमार (69 वर्ष)

तेजस्वी यादव (30 वर्ष)

चिराग पासवान (39 वर्ष)