बिगड़ रहा पृथ्वी का जीवन चक्र

तेज़ी से घट रही है चीलों, गिद्धों समेत कई पशु-पक्षियों की संख्या

जीवन चक्र पृथ्वी पर तमाम जीवधारियों के बीच चलने वाला ऐसा एक चक्र है, जिससे प्रकृति में जीवन चक्र (सन्तुलन) बना रहता है। लेकिन अब ये सन्तुलन बिगडऩे लगा है, जिसकी वजह से बीमारियाँ, प्राकृतिक आपदाएँ बढऩे लगी हैं। इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह है पृथ्वी पर साफ़-सफ़ाई करने वाले व अन्य जीवधारियों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आ रही है।

विज्ञान की भाषा में कहें, तो शाकाहारी जीवधारियों को छोडक़र सभी जीवधारी एक-दूसरे का भोजन भी हैं। इसे प्रकृति का सन्तुलन कहते हैं। लेकिन अब पृथ्वी पर कई तरह के जीवों की संख्या लगातार तेज़ी से घट रही है, जिसके चलते असन्तुलन बढऩे के साथ-साथ आये दिन नयी-नयी बीमारियाँ पनप रही हैं।

प्रकृति ने अपने बनाये हर जीव को इतना सक्षम बनाया है कि वे अपना निर्वाह कर सकें। इंसान इन जीवों में सबसे ज़्यादा समझदार और सक्षम है। लेकिन इंसान लालच में इतना अंधा हो चुका है कि आज वह बिना आधुनिकता की चाहत में प्राकृतिक नुक़सान करता जा रहा है। इससे इंसान ख़ुद भी मुसीबतों से घिरता जा रहा है और दूसरे जीवों को भी संकट में डाल रहा है। इस प्राकृतिक बिगाड़ और बर्बादी के प्रति इंसानों ने अपनी आँखें बन्द करके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और तेज़ कर दिया है।

दूसरी तरफ़ ऐसे जीव भी हैं, जो केवल अपना पेट भरने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन वो प्रकृति के मित्र बने हुए हैं और उसे किसी भी प्रकार कोई नुक़सान नहीं पहुँचा रहे हैं। वहीं इंसान केवल अपने विषय में सोच रहा है। बहुत-ही कम ऐसे इंसान हैं, जो प्रकृति और दूसरे जीवों की रक्षा को अपना धर्म समझते हैं। ज़्यादातर को दूसरे जीवों की चिन्ता ही नहीं है। यही वजह है कि धरती पर से कई जीव विलुप्त हो चुके हैं और कई विलुप्त होने के कगार पर हैं। हमें विलुप्त हो रहे जीवों की सुरक्षा के बारे में सोचना चाहिए, ताकि प्रकृति को सुरक्षित रखा जा सके।

चील और गिद्ध

चील और गिद्ध दो ऐसे मांसाहारी पक्षी हैं, जो अधिकतर मरे हुए जीवों का मांस ही खाते हैं। हालाँकि ज़िन्दा जीवों में चील साँपों, पक्षियों, मछलियों और छोटे जानवरों को और गिद्ध फ़सल बर्बाद करने वाले कीटों और बहुत मजबूरी में मछलियों को भी खाना पसन्द करते हैं। बाक़ी ज़िन्दा जीवों का शिकार करते इन्हें शायद ही देखा जाता हो। मांसाहारियों में भी चील और गिद्ध ही ऐसे जीव हैं, जो सभी प्राणियों का मांस खा सकते हैं। अफ्रीका के गिद्ध तो सभी मांसाहारियों से आगे हैं। चील अपने भोजन में 20 से 30 फ़ीसदी और गिद्ध अपने भोजन में 70 से 90 फ़ीसदी हड्डियाँ तक खा सकते हैं।

एक अनुमान के मुताबिक, दुनिया के सभी मांसाहारी जीव मिलकर 47 फ़ीसदी मांस का भक्षण करते हैं, जबकि बाक़ी 53 फ़ीसदी मांस का भक्षण चील और गिद्ध करते हैं। चीलों और गिद्धों में हड्डियाँ पचाने की भी क्षमता होती है। इन दोनों जीवों को इंसानों का मित्र कहा जा सकता है, क्योंकि ये दोनों ही पक्षी उन जीवों और उस मांस को खाकर नष्ट कर देते हैं, जो कि लोगों के लिए घातक होता है। अगर कोई मरा हुआ जीव या मांस कहीं सड़ रहा हो, तो ये दोनों ही पक्षी और इनके साथ में कौवे ऐसे मांस को खाकर विषाणुओं और रोगाणुओं के फैलने की सम्भावना को ख़त्म कर देते हैं।

हज़ारों मीटर ऊँची उड़ान भरने में माहिर ये दोनों पक्षी आसमान की उस ऊँचाई तक जा सकते हैं, जहाँ तक हेलीकॉप्टर भी नहीं पहुँचता और अगर दूसरे पक्षियों को उस ऊँचाई पर छोड़ दो, तो उनकी मौत हो जाएगी। गिद्ध की उड़ान को सन् 1973 में रूपेल्स वेंचर ने आइवरी कोस्ट में 37,000 फीट रिकॉर्ड किया था। गिद्ध की तरह ही चील और बाज भी ऊँची उड़ानें भरने वाले पक्षी हैं। लेकिन गिद्ध के बारे में कहा जा सकता है कि गिद्ध एक ही बार में उड़ान भरकर 1,000 किलोमीटर की दूरी तक तय कर सकता है।

गिद्ध के पंख 1.8 मीटर से 2.9 मीटर तक चौड़े और बेहद मज़बूत होते होते हैं, जबकि चील के पंख 1.5 मीटर से 2.3 मीटर तक लम्बे होते हैं। इन दोनों जीवों में चील का हमला गिद्ध से भी तेज़ होता है, लेकिन दोनों का हमला इतना ख़तरनाक होता है कि ये दोनों पक्षी अपनी टक्कर से शेर को भी गिरा सकते हैं। किसी जीव पर इनकी हमले की रफ़्तार क़रीब 200 किलोमीटर प्रति घंटे से लेकर 350 किलोमीटर प्रति घंटे की हो सकती है।

जीव वैज्ञानिकों चिन्ता जताते हैं कि अगर ये दोनों महाबलशाली पक्षी धरती पर नहीं रहे, तो इंसानों का जीवन भी दुश्वार हो जाएगा। पिछले एक दशक के दौरान भारत, नेपाल, श्रीलंका, चीन और पाकिस्तान में गिद्धों की संख्या 95 फ़ीसदी तक कम हुई है। देखने में आ रहा है कि जैसे-जैसे ये दोनों पक्षी विलुप्त होते जा रहे हैं, इंसानों में रोग बढ़ते जा रहे हैं।

इनके विलुप्त होने के मुख्य कारणों में पशुओं की प्राकृतिक मौत से ज़्यादा उनका काटा जाना, पशुओं को विषैली दवाएँ खिलाना और फ़सलों पर कीटनाशकों का उपयोग करना है। इन पक्षियों के शिकार में भी तेज़ी आयी है। बिजली के तारों, विषैली गैसों और बढ़ते तापमान से भी इनकी मौत का कारण बने हैं। प्रकृति प्रेमियों, जीव वैज्ञानिकों और सरकारों को इन दोनों पक्षियों के बचाव के साथ-साथ इनकी संख्या बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए।

गैंडा और हाथी

गैंडों और एशियाई हाथियों की संख्या भी कम हो रही है। भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण पूर्व एशिया में हाथियों की कम होती संख्या चिन्ता का विषय है। साल 1986 से एशियाई हाथी को आई.यू.सी.एन. रेड लिस्ट में लुप्तप्राय प्राणी के रूप में दर्ज हो चुके हैं। पिछले क़रीब 75 सालों में हाथियों की संख्या में 50 फ़ीसदी की गिरावट आयी हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह हाथियों का तेज़ी से हो रहा शिकार है। साल 2003 में जंगली हाथियों की संख्या क़रीब 41,000 से 52,000 के बीच आँकी गयी थी। अब कहा जा रहा है कि इनकी संख्या 40,000 से भी कम रह गयी है। हालाँकि एक अनुमान के मुताबिक, भारत में जंगली हाथियों की संख्या क़रीब 26,000 से 28,000 के बीच है, जो एशिया के हाथियों की कुल संख्या का 60 फ़ीसदी है।

वहीं सुमात्रन गैंडों की संख्या पाँच दशक पहले क़रीब 800 थी और अब यह घटकर 275 से भी कम रह गये हैं। फ़िलहाल दुनिया में जीवित गैंडों की पाँच प्रजातियाँ मौज़ूद हैं। आज गैंडों की घटती आबादी ने अध्ययनकर्ताओं और जीव वैज्ञानिकों में चिन्ता पैदा की है। डेनमार्क के कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में कहा गया है कि गैंडे की संख्या में 20 लाख वर्षों से निरंतर लेकिन धीरे-धीरे कमी आयी है।

उल्लू और कठफोड़वा

भारत में उल्लू को धन की देवी लक्ष्मी की सवारी कहा जाता है। लेकिन यही उल्लू अब यहाँ तेज़ी से कम हो रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण इन पक्षियों की भारी संख्या में तस्करी होना है। काला जादू करने वाले इस जीव के अंगों का इस्तेमाल करने के लिए इसकी हत्या कर देते हैं। कहा जाता है कि उल्लू की क़ीमत 200 रुपये से कई लाख रुपये तक हो सकती है।

हरे पेड़ को काट देने वाली मज़बूत चोंच वाले कठफोड़वा पक्षी की प्रजाति भी विलुप्त होने के कगार पर है। साल 2021 में अमेरिका के मछली और वन्यजीव सेवा विभाग ने इसे विलुप्त प्रजाति घोषित कर दिया है। भारत में भी इनकी प्रजाति पर ख़तरा मंडरा रहा है। सफ़ेद उल्लू की प्रजाति तो बिलकुल विलुप्त हो चुकी है।

विलुप्त होने की ओर प्रजातियाँ

एक अध्ययन बताता है कि दुनिया में कुल 5,583 ऐसी प्रजातियाँ हैं, जो विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन प्रजातियों में 26 नयी प्रजातियों को सन् 2017 में शामिल किया गया था। इन प्रजातियों को बचाने के लिए सामूहिक प्रयास की ज़रूरत है। हालाँकि इन प्रजातियों को बचाने के लिए वैज्ञानिक और जीव प्रेमी कई क़दम उठा रहे हैं; लेकिन जीवों को बचाने का प्रयास करने वालों की संख्या में उन्हें मारने वाले शिकारियों की संख्या कई गुना ज़्यादा है। सन् 2016 में आईयूसीएन ने अनुमान जताया था कि धरती पर बढ़ते प्रदूषण और समुद्रों में गिरायी जा रही निरंतर गन्दगी से मछलियों की संख्या भी कम हो रही है।