बाहरी चोलों का भ्रम

कोई भी बच्चा जन्म लेने के बाद दो-ढाई साल तक न तो उस मज़हब के बारे में जानता है, जो उसे जीवन में उसके कुल, समाज के लोग अख़्तियार करना सिखाते हैं और न किसी दूसरे मज़हब के बारे में ही जानता है। शिशु अवस्था में उसे जाति, देश, सीमा, अपने-पराये, अच्छे-बुरे, मित्र-शत्रु की भी कोई पहचान नहीं होती। उसके लिए सब नया, अचम्भित-विस्मित करने वाला और सब कुछ वरण योग्य होता है। इसीलिए शिशु को परमहंस कहा गया है। यह भी कहा जाता है कि बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं।

यह धारणा यूँ ही नहीं उपजी, बल्कि यह एक ऐसा सत्य है, जिसे इंसान बड़ा होकर भी नहीं समझ पाता। वह जितना दुनियावी ज्ञान प्राप्त करता जाता है, उतना ही मज़हब, ज़ात-पात, ऊँच-नीच, भेदभाव, अपने-पराये और छल-कपट की दलदल में फँसता चला जाता है। अगर उसे इंसान बनने के बजाय कट्टरपंथी बनाया जाए, तो वह चालाक, धूर्त, पापी, अत्याचारी, क्रोधी, लालची, कामुक, स्वार्थी, डरपोक, अहंकारी और अधर्मी होता चला जाता है।

अगर कुछ बच्चों को जन्म लेते ही ऐसी परवरिश में बड़ा किया जाए, जहाँ उन्हें किसी मज़हब, ज़ात के बारे में कभी न बताया जाए और ईष्र्या, घृणा, क्रोध, लोभ-लालच, अहंकार, काम-वासना से दूर रखा जाए, तो न तो उन्हें कभी किसी मज़हब, ज़ात से मतलब होगा और न वे दुर्गुणों से भरे इंसान बनेंगे। लेकिन वहीं अगर किसी शिशु को जन्म से ही धार्मिक कट्टरता, जातिवादी, न$फरती, क्रोधी, लालची, अहंकारी और कामुक बनाया जाए, तो वह मानव समाज के लिए ख़तरा ही बनेगा। यहाँ तक कि अगर किसी शिशु को बोलना भी न सिखाया जाए, तो वह गूँगों जैसा व्यवहार वाला भी हो सकता है।

इसका मतलब यह हुआ कि बच्चे सब कुछ वही सीखते हैं, जो उनके आसपास से उन्हें सीखने को मिलता है। उसी के अनुसार उनका बर्ताव होता है। इसे हम संस्कार भी कहते हैं। यही वजह है कि संस्कारों को हर कोई महत्त्व देता है। आज दुनिया में जितने भी मज़हब हैं, सभी में अलग-अलग तरीक़े से ही सही, लेकिन बच्चे के जन्म से ही उसे संस्कार दिये जाते हैं; ताकि उसमें विकृत्ति पैदा न हो। अगर आज की पीढ़ी में विकृत्तियाँ पैदा हो रही हैं, तो इसके पीछे संस्कारों की कमी तो है ही, उससे बड़ी वजह यह है कि आज लोग अपने बच्चों में संस्कारों के नाम पर सिर्फ़ और सिर्फ़ मज़हबी होना सिखाते हैं। यही वजह है कि बड़े होकर अधिकतर बच्चे संस्कारी कम, धार्मिक ज़्यादा हो जाते हैं। अगर उन्हें केवल धार्मिकता सिखायी जाती, तो भी काफ़ी हद तक ठीक था; लेकिन उन्हें धार्मिक कट्टरता सिखायी जा रही है। कुछ ख़ास धार्मिक संगठन, जिन्हें कट्टरवादी संगठन कहना ग़लत नहीं होगा; आज की पीढ़ी को यही सब सिखा रहे हैं। ऐसे संगठन हर मज़हब में हैं।

एक सच्चाई यह है कि कट्टरवाद से लोग उन्मादी हो जाते हैं, जिससे धर्म के रास्ते ख़ून भरे और लोगों के हाथ ख़ून सने हो जाते हैं। आज की पीढ़ी के अधिकतर युवा इसी रास्ते पर चल पड़े हैं। दूसरी सच्चाई यह है कि इंसान का जन्म एक ही तरह से बिना किसी मज़हब की पहचान के होता है। जब कोई बच्चा कहीं भी जन्म लेता है, तो उसे किसी भी चीज़ का ज्ञान नहीं होता और न ही उसे देखकर कोई उसके मज़हब के बारे में बता सकता है। उसे उसका परिवार और परिवार से जुड़े लोग ही मज़हबी पहचान देते हैं। यह पहचान उसके ऊपरी लिबास से तय की जाती है। जिसे वह युवा होते-होते शारीरिक बनावट की शक्ल दे देता है। इस शक्ल को बड़ी आसानी से बदला जा सकता है। उदाहरण के लिए अगर कोई सनातनी दूसरे धर्म जैसा दिखना चाहे, तो बड़ी आसानी से दिख सकता है। इसी तरह अगर कोई दूसरे मज़हब का व्यक्ति अपनी वेशभूषा बदल ले, तो वह उसी मज़हब का दिखेगा, जैसी वेशभूषा उसने पहन ली हो। इससे साफ़ है कि कोई भी इंसान पैदाइशी किसी मज़हब विशेष का नहीं होता, उसे उस मज़हब के लोग जन्म लेने के आधार पर मज़हबी बनाते हैं। कई बार कुछ लोग जिस मज़हब में पैदा होते हैं, उसे छोडक़र दूसरे मज़हब को स्वीकार कर लेते हैं। इसका मतलब यह है कि अगर किसी इंसान को कोई मज़हब पसन्द नहीं है या वह उस मज़हब से सन्तुष्ट नहीं है, तो उसे बदल सकता है। उसे छोड़ भी सकता है। या फिर सभी मज़हबों से हमेशा के लिए दूरी बना सकता है। मतलब उन्हें नापसन्द कर सकता है।

आज तक बहुत-से लोगों ने ऐसा किया है और भविष्य में भी करेंगे। क्या इसके लिए किसी को ईश्वर सज़ा देगा? क्या मज़हबों में इसके लिए किसी के लिए कोई सज़ा है? नहीं न! क्योंकि न तो कोई मज़हब जबरन किसी को अपनी बात मनवाने के लिए प्रतिबद्ध है न ही ईश्वर के लिए लोग अलग-अलग हैं। फिर ये नफ़रत, ये बैर, ये कट्टरता क्यों? और किसके लिए? क्या ऐसा करने की कोई मज़हब इजाज़त या शिक्षा देता है? फिर भी लोग आपस में मज़हबी दीवारों में बँटे हुए हैं और आपस में लडऩे-मरने को तैयार हैं। क्यों? यह बात किसी को भी नहीं मालूम। इसका मतलब यह है कि लोग सिर्फ़ यह समझते हैं कि अगर वे अपने मज़हब को साथ कट्टरता से जुड़े रहेंगे, तो उन्हें स्वर्ग मिलेगा। लेकिन वे यह नहीं समझते कि जिस रास्ते पर वे चल रहे हैं, वह रास्ता उनके और उनकी नस्लों के लिए स्वर्ग नहीं, नरक का रास्ता तैयार कर रहा है। मरने के बाद को तो पता नहीं, जीते जी तो पक्का।