बापू तुम तो लड़ लेते थे..

प्रिय बापू,

आज बहुत दिनों बाद तुम्हें पत्र लिख रही हूँ। ऐसा नहीं कि पहले मन नहीं हुआ पर आज बहुत शिद्दत से तुम्हारी जरूरत महसूस हो रही है। तुम्हारे रास्तों की ताकत नजर आ रही है पर शायद मैं ही इस लायक न थी कि तुम्हें और तुम्हारी नीतियों को समझ पाती। स्कूल में पढ़ते हुए तो तुम्हारी लिखी किताब समझ ही नहीं आती थी। असल में स्कूल में तो अंकों के लिए पढ़ती थी या फिर क्लास में पास होने के लिएद्य तो किताबें भाती ही कहाँ थी! बस एक बात समझ में आती थी कि तुम भी बहुत होशियार विद्यार्थी नहीं थे। साधारण मेरे ही जैसे… याद है मुझे तुम्हारी किताब से ही मैंने ताकत जुटाई थी घर जाकर यह कहने की कि मैं भी साधारण सी विद्यार्थी हूँ.. जीवन में जब उन्होंने कुछ कर लिया तो शायद मैं भी कर ही लूँगी..

माफ़ करना बापू..इतनी बड़ी-बड़ी बात बना लेती थी क्योंकि कहने के लिए तो कोई ख़ास ताकत लगती नहीं थी उन दिनों! बचपन बड़ा ताकतवर होता है न बापू! कुछ भी कर जाएँ पर धीरे-धीरे सारा साहस खो क्यों जाता है बापू! तुम तो बहुत लड़ाके थे बापू… पर मेरे पास वैसे हथियार है कहाँ!

बापू बड़ी हलचल है मन में! तुम्हें पत्र लिखने की भी कई वजहें हैं। इन दिनों लोग अजीब से हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। मेरे जैसा दब्बू आदमी तो शायद जी ही न सके। कई घटनाएँ घट गईं तो तुम्हारे पास लौट आई बापू। जानती हूँ तुम दिखोगे नहीं! मिलोगे नहीं मुन्नाभाई की फिल्म की तरह! पर फिर भी तुमसे सम्वाद से कोई तो रास्ता निकलेगा ही! पहले भी तो तुमने ही रास्ते दिखाए औए बनाए हैं न!

बचपन में तो मां ने ही ये रास्ता बताया था, तुम तक पहुँचने वाला। पता है एक बार मैंने स्कूल के रास्ते से घर जाते हुए इमली वाले से ढेर सारी खट्टी इमली खरीदी। तीन रूपये की इमली थी और बापू मेरे पास सिर्फ डेढ़ ही रुपया था। लालच तो आँखों में उतर आया था। इमली वापस करने का तो सवाल ही नहीं था। मां के पास भी इतने पैसे कहाँ कि वो इमली ..इतनी सारी इमली खाने के लिए मिल जाती! मैं भीड़ में मिल गई और दोस्तों के पीछे छिपकर पैसे आगे बड़ा दिए। भीड़ तो थी ही.. इमली वाला पता नहीं लगा पाया! मैं खुश थी, मैं जीत गई थी। डेढ़ रूपये में तीन की इमली! घर पहुंचते पहुंचते हंसी छू-मंतर हो गई। माँ ने जैसे मेरे चेहरे पर पढ़ लिया था … वो कुछ नहीं बोली। उसने उस दिन मुझे तुम्हारी किताब ‘सत्य के प्रयोगÓ दी थी। बस एक पंक्ति ‘बापू से पूछना बेटा कि जो किया था, सही थाÓ मैं तुमसे जवाब नहीं माँगूंगी।

तुमने मुझे उस दिन से ही परेशां करना शुरू कर दिया था बापू! मैं बहुत नाराज थी तुमसे। कैसे तुम उस किताब से निकलकर मेरे कान में कुछ कहने लगे! और मैं सुनती चली गई तुम्हारे वो किस्से जिनसे निकलकर तुम बने थे बापू..

तुम्हारा वो वाकया मुझे याद है जिसने मेरा जीवन बदल दिया ‘दूसरी चोरी के समय 15 साल का रहा हूँगा।यह चोरी मेरे माँसाहारी भाई ने सोने के कड़े के टुकड़े की थी। उन्होंने छोटा सा 25 रुपये का कर्ज कर लिया था। भाई के हाथ में सोने का कड़ा ठोस था। उसमें से तोला भर सोना काट लेना कठिन न था।Ó अंतत: मैंने पत्र लिखकर अपना दोष स्वीकार कर लेने और मांफी मांगने का निश्चय किया। मैंने पत्र लिखकर अपने हाथ से उन्हें दे दिया। पत्र में सब दोष स्वीकार किया और अपने किए का दंड माँगा।यह विनती कि मेरी गलती के लिए वह अपने आप को कष्ट में न डालें और प्रतिज्ञा की कि कि भविष्य में फिर ऐसा अपराध नहीं करूँगाÓ इतनी हिम्मत मैं नहीं जुटा पाई बापू। तुम तो  किसी से लडऩे से पहले खुद से लड़ लेते थे और किसी सीमा तक जीत भी जाते ही थे। मैं कहाँ इतनी साहसी थी बापू!

आजकल तुम नहीं आते बापू… नाराज हो या मैं तुम्हें खो चुकी हूँ! अभी उस दिन जब बेटे के साथ पिछली सीट पर बैठे गाडी में चली जा रही थी और दुनिया जहान की मासूमियत में लिपटी कहानियाँ सुनाता हुआ बेटा जैसे मुझे किसी और ही दुनिया में ले जा रहा था। कितने दिन होते हैं ऐसे जब ऐसे सुन सकूँ उसकी मासूम हंसी को.. आवाज को! बस तभी.. अगर मैं सही-सही उंगली रख सकूँ तो बस तभी पीछे से कार को टक्कर लगी। टकराने से लेकर आगे गिरने तक की पूरी स्थिति में मैं भले ही कुछ सोच न सकीं पर हाथ ने आगे बढ़कर बेटे को संभाल लिया। सोच ही रही थी कि उतर कर देखूँ तब तक जैसे गाडी का दरवाजा भड़भड़ाकर खुल गया। लाल आँखों और बहती पान की पीक वाले आदमी ने हाथ बढाकर मुझे जैसे नीचे ही उतार लिया। एक क्षण को तो लगा था कि शायद माफी मांगेगा पर यहाँ तो नजारा ही अलग था। हाथ को हवा में लहराते हुए वो जोर से चीखा ‘ऐसे गाडी चलवाती है तू.. बैलगाड़ी से चलाकरÓ मैं बोल नहीं पाई, जैसे किसी चीज ने भीतर ही भीतर बाँध लिया हो। ड्राइवर के आने से कुछ हिम्मत आई पर बोल कुछ न सकी। ड्राइवर जैसे लडऩे और भिडऩे के लिए आगे बढ़ गया ‘गलती तेरी है और मैडम पर चिल्लाता है!Ó जैसे रुलाई बस फूट पडऩे को ही थी। न जाने कहाँ से सारी ताकत जुटाकर मैंने ड्राइवर से कहा ‘जाने दो उसे, छोडो, चलोÓ ड्राइवर ने गुस्से और हैरानी से मुझे देखा ..गुस्से से उसने सड़क पर थूक दिया। बेटा भी नाराज था मुझसे। वो आदमी लाल-लाल आँखों से आगे बढ़ गया..मैंने ध्यान से देखा अब, उसकी बेल्ट के साथ एक बन्दूक साफ़-साफ़ नजर आ रही थी। जाते हुए उसने बंदूक पर हाथ फेरा कर मुझे मुड़कर देखा भीद्य गाडी में बैठकर जब बेटे को सम्भाला तो उसने बात करने से मना कर दिया जैसे…जैसे… एक ताकतवर छवि को मैंने धूमिल कर दिया हो!

मैं लड़ नहीं पाई बापू! तुम बहुत याद आए… बहुत ज्यादा। मैं हार गई थी क्या बापू? मैं जानती हूँ तुम होते तो लड़ लेते जरुर! पर तुम्हारी लड़ाई तो अंदर की शान्ति से शुरू होती थी न! जब मैं शांत नहीं थी तो लड़ती कैसे?सब नाराज थे पर अब मैं शांत थी अंदर से बहुत ज्यादा शांत। मैंने सड़क पर एक वहशीपन का नंगा नाच नहीं होने दिया था पर तुम्हारी जरूरत बहुत महसूस हुई थी बापू… क्या मैंने गलत किया था?

हथियारों की जबान कितनी ताकतवर हो गई है बापू! हर आदमी हथियारों की जबान ही जानता और दिखाना चाहता है।तुम सचमुच ताकतवर थे बापू.. तुम्हारे हथियार भी तो बड़े ताकतवर थे…

बापू.. उस दिन भी कमजोर ही पड़ गई मैं! दो दिन से किसी के रोने की आवाज सुनाई दे रही थी बिलकुल पड़ोस वाले घर से। रोज रात को शायद मीरा ही थी, जो रो रही थी। उसकी आवाज में मेरा दिल दहला दिया। सोचा जाकर दस्तक दूँ पर जैसे किसी ने हाथ पकड़ लिया हो। एक दृएक कदम भारी हो गया। पर साहस तो तुमने सिखाया ही था तो हिम्मत करते हुए जाकर दरवाजा खड़का ही दिया। राकेश दरवाजे पर मुझे देख चैंक गया ‘आइए…Ó मैं झेंप गई ‘नहीं बस वो दो दिन से मीरा की आवाज रोज रात को सुनाई देती है,जोर से रोने की तो मैं…Ó राकेश गंभीर हो गया ‘आइए, खुद पूछ लीजिए मीरा से! मैं उसे मारता-पीटता नहीं हूँ..Ó कहकर राकेश गुस्से में घर से बाहर चला गया। मीरा भी सामने ही थी। उसने नाराज आँखों से मुझे देखा…जैसे मेरे आने भर से उन दोनों के बीच कोई दीवार खडी हो गई हो। हिम्मत करके पूछा ‘सब ठीक है मीरा?Ó मीरा ने रुखाई से जवाब दिया ..क्यों आपको लगता है कि आपको मेरे घर में दखल देने का अधिकार है? मेरे पिता की तबियत खराब है, बहुत ज्यादा। मैं जा नहीं पा रही हूँ इसीलिए रो रही थी। आप अब राकेश से मांफी मांगेंगी, अपने इस व्यवहार के लिए?Ó

मैं समझ नहीं पाई,कि क्या करूँ!पता नहीं, यह सच था या मीरा बहाना कर रही थी! पर मैं अवांछित थी, इतना तो समझ ही गई थी। दो दिनों तक मैं बाहर निकलती तो राकेश और मीरा मुझे देखकर मुंह फेर लेते। मैं बहुत परेशान थी, पर कोई रास्ता नहीं सूझता था। लौटकर फिर तुम्हारे पास आई… तुमने सत्य के प्रयोग में अपनी गलती स्वीकारने के कई माध्यम बताएँ हैं, उनमें से एक मैं भी अपनाना  चाहती थी…

आपने ब्राइटन में उस महिला को पत्र लिखा था न! जो आपकी मदद कर रही थी, पर आप उससे अपने विवाह की बात नही कह पाए थे! ‘यह तय करके मैंने उसे पत्र लिखाÓ यह पत्र मिलने के बाद आप मुझे अपने यहाँ आने के अयोग्य समझें तो मुझे तनिक भी बुरा नहीं लगेगा। आपके स्नेह का ऋण मुझपर सदा बना रहेगाद्य यह तो मुझे कहना चाहिए कि आपमेरा त्याग न करें तो मुझे खुशी होगी। अब भी मुझे अपने यहाँ आने देने लायक समझेंगी तो मेरे लिए यह आपके प्रेम की एक नई निशानी होगी, और उस प्रेम का पात्र बनने के लिए सदा प्रयत्न करता रहूँगा।Ó

मैंने भी निश्चय किया कि शायद यही मेरी राह भी होगी। ऐसा ही एक पत्र मैंने भी लिखा, बहुत साहस करके। आपने भीे तो कई बार पत्र लिखा और फाड़ दिया, भेजने के निश्चय से पहले! मैं भी कई ड्राफ्ट लिखकर फाड़ती रही पर अंतत: लिख ही दिया। साहसी तो हूँ नहीं बापू तो चेहरा बचाकर पत्र दरवाजे से सरका भर दिया। दो दिन के इंतजार के बाद मीरा को देखा, मुझे देख वो हल्के से मुस्कराई और घर के भीतर चली गई। मैं फूल सी हल्की हो गई। बस जीत गई मैं.. सबकुछ बदला नहीं है अभी! लोग मानते हैं आपकी माफी को भी, बस साहस होना चाहिए अपनी गलती स्वीकारने का!

पर बापू…उस रात मीरा फिर रो रही थी….अगले दिन अख़बार उठाने गई तो मीरा भी अख़बार उठाने आई थी… ‘हाथ मजबूत कर दिए आपने उसके! शुक्रिया!Ó मुझे काटो तो खून नहीं! मैं फिर हार गई बापू… तुम्हारे लिए लडऩा आसान था बापू! तुम पहचानते थे अपने विरोधियों को! विरोधियों में भी साहस था, अपना कू्रर चेहरा सामने लाने का! आज कैसे लडूँ बापू..हथियार बदल गए और चेहरे पहचाने नहीं जाते!

आखिऱी बार मैं उस दिन बिलकुल ही हार गई बापू..बेटे ने बताया कि उसकी कक्षा में पढने वाली बच्ची ने आत्महत्या कर ली।  जानते हो बापू..आत्महत्या के वजह क्या थी? वाहे वीडियो गेम, जो उसकी कक्षा का हर विद्यार्थी खेल रहा था, इस बच्ची के माता-पिता ने मन कर दिया था। और इस बात पर क्लास के विद्यार्थियों ने उसे अपने समूह से बाहर कर दिया था! बच्ची यह बर्दाश्त नहीं कर पाई और उसने यह कदम उठा लिया!

कमजोर क्यों पड़ जाते हैं बच्चे? कौन सा वो क्षण है जब जीवन की जंग से हार जाने का निर्णय ज्यादा ताकतवर हो जाता है। बापू तुम तो कई बार कमजोर पड़े …सुनते हैं तुम्हें तो ट्रेन के कम्पार्टमेंट से निकाल दिया गया था। तुम ट्रेन के डिब्बे से उतार दिए गए। पर तुम जिन्दगी के डिब्बे से उतरने को तैयार नहीं हुए। तुमने उन किसानों के साथ जीवन बिताना तय किया और उनके साथ पूरे के पूरे बदल गए। बापू क्या वो तुम्हारी हार थी! नहीं न! फिर ये बच्चे क्यों हार जाते हैं जिन्दगी की छोटी छोटी लड़ाइयों से! बापू तुम अपने बचपन में भे कई बार हारे.. गलतियाँ भी कीं। ऐसा नहीं कि तुम जन्म से महान थे, तुम्हें तुम्हारी गलतियों ने बड़ा बनाया। तुममें तब भी साहस आया जब तुम्हें विदेश जाना था और पञ्च तुम्हें बिरादरी से बाहर कर रहे थे। ‘यह लड़का आज से बिरादरी से बाहर माना जाएगा।जो कोई इसे मदद देगा या विदा करने जाएगा,बिरादरी उससे जवाब तलब करेगी और उसपर सवा रूपये का जुर्माना होगा।Ó ‘मुझ पर इस फैसले का कोई असर नहीं हुआ। मैंने मुखिया महाशय से विदा ली।Ó

ये बच्ची क्यों नहीं लड़ पाई बापू.. एक माता-पिता के रूप में मैं उस दिन हार गई थी बापू। हम सिखा नहीं पाए अपने बच्चों को उन ताकतवर अहिंसक हथियारों से लडऩा जिनसे तुम लड़ते थे।

तुम लड़ लेते थे बापू… मैं थोड़ी कायर ही रह गई। या बहुत दिन हुए जिसे सत्य माना,उसे प्रयोग किए हुएद्य देखो इतनी बातों के बीच तुमने ही रास्ता दिखा दिया..मैं इस भ्रम में क्यों हूँ कि मैं कुछ कर भी सकती हूँ! समझ जाती हूँ, सबको अपना सत्य खुद ढूँढना होगा! रास्ता तुम दिखा सकते हो, पर चयन की लिए कदम तो खुद उठाना होगा न!

जाती हूँ, जाकर बस जाकर बेटे के सिरहाने पर तुम्हारी किताब रख कर आती हूँ… शायद अपने सत्य के प्रयोग के रास्ते वो ढूँढ ले…तुम्हारे ही सहारे…