बात पत्थर पर लकीर की

एक पुरानी कहावत है पत्थर पर लकीर। इसका अर्थ होता है वो लिखित जो मिट न सके। इस कारण सारे नेता पत्थरों पर नाम लिखवाने की होड़ में इस तरह धक्का-मुक्की  करते हैं जैसे किसी ज़माने में पहली पंक्ति के दर्शक सिनेमा की टिकटों के लिए किया करते थे। सही भी है, अब नेताओं के कर्म ऐसे तो हैं नहीं कि इन्हें भगत सिंह या लाला लाजपतराय की तरह याद रखा जाए, तो लोगों में जिंदा रहने की ललक इन्हें नींव के पत्थर हों या उद्घाटन की शिलाएं उन पर अपने नाम खुदवाने को प्रेरित करती हैं। वैसे देश में हजारों शिलान्यास ऐेसे हैं जिनकी शिलाओं पर लिखे नामों पर परिंदें बीठें करते रहते हैं। उन शिलाओं के आसपास घास फूस इक_ा हो गया है। पर नाम अभी हंै। इन पर लिखा होता है कि यह नींव का पत्थर फलां नेता के ‘कर कमलों’ से फलां सन में रखा गया। अब वे ‘कर कमल’ थे या खुर्दरे हाथ, इस बहस में हम पडऩा नहीं चाहते। पर उस शिला की हालत देख कर वह नेता जिसका नाम उस पर खुदा है यह ज़रूर चाहता होगा कि काश यहां उसका नाम न लिखा होता। पर फिर भी ये नेता नाम लिखवाने की होड़ में लगे रहते है।

पर यदि इन लोगों ने 10वीं कक्षा में अंग्रेजी के महान कवि पीबी शैली की कविता ‘ओज़ीमंडयास’ ध्यान से पढ़ी और समझी होती तो शायद ये पत्थरों पर नाम लिखाने के पीछे सिर फुटैल न करते। हालांकि हमें पता नहीं कि इनमें कितने हैं जो 10वीं पास हैं, क्योंकि प्रमाण पत्र तो आजकल हमारे पास भी एमए के हैं। खैर बात थी कविता और पत्थर पर लिखने की। इस कविता में शैली ने उस व्यक्ति का जि़क्र किया है तो दूर देश से आया था और उसने पत्थर का एक ऐसा बुत देखा था जिसकी दो बड़ी टांगें रेत में गड़ी थी और सिर दूर पड़ा था। उसके चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट थी। बुत तराश ने यह चेहरा मिस्र के बादशाह रेमीसेसे से मिलता जुलता बनाया था। यह वह बादशाह था जो खुद को बादशाहों का भी बादशाह समझता था। अब उसका यह हश्र है। तो नींव पत्थर पर नाम लिखाने वालों के नाम का क्या होगा, इस पर हम कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते।

हमारी बिरादरी अच्छी है, पत्थर पर नाम का कोई चक्र ही नहीं। हमारे बीच न गलियारे के शिलान्यास में कोई झगड़ा है और न इस बात में कि किसका नाम लिखा गया या नहीं लिखा गया। हमें गलियारे से कुछ लेना देना नहीं। इसका बड़ा कारण है कि हमारे लिए मुल्कों की सरहदें कोई मायने नहीं रखती हम सभी बिंदास कहीं भी जा सकते हैं। हमने कौन सा पासपोर्ट या वीज़ा लेना होता है। पर इस गलियारे के बनने की हमें खुशी है। अब मानव और मानव के बीच ”मैन-टू-मैन- संपर्क बढऩे की उम्मीद जगी है। लोग एक दूसरे को ज़्यादा समझने लगेंगे। जब आम आदमी आम आदमी से मिलेगा तो ऐसे बहुत से मसले सामने आएंगे जो दोनों देशों के लोगों को परेशान करते हैं। गुरु की शिक्षा भी तो दुनियां भर में प्रेम-प्यार बढ़ाने की है। आज गुरुनानक देव जी के जन्म का 550 वां साल शुरू हो गया। ऐसे में उनके जन्म स्थान और उनके ज्योति जोत समाने के स्थान, दोनों तक लोगों का जाना आसान हो जाएगा। पर मौजूदा हालात में यह इतना आसान नहीं लगता।

चलो ले-दे कर किसी तरह शिलान्यास हो गया, पर डेरा बाबा नानक से सरहद तक के गलियारे का निर्माण कैसे होगा। यह एक यक्ष प्रश्न है। यह काम सरकार करेगी या ठेकेदारों से करवाया जाएगा, यह तय नहीं है। इतिहास को देखें तो पाएंगे कि नेताओं को ठेकेदारों से काम करवा कर ही फायदा होता है। अरे भाई ‘कमीशन’ तय होती है। वैसे हिंदी में उसे ‘दलाली’ कहते हैं पर ‘दलाल’ से ‘कमीशन एजेंट’ शायद बेहतर शब्द है। वैसे मतलब तो एक ही है। पर हमारे यहां अंग्रेजी में गाली, गाली नहीं लगती। इस कारण किसी भारतीय भाषा में बोलने से बेहतर है अंग्रेजी में ही बोल दो। खैर टेंडर मंगवाए जाएंगे। फिर देखा जाएगा कि कौन ठेकेदार किस पार्टी का समर्थक है। काम कैसा करेगा, इसमें विभाग की कोई रूचि नहीं होगी। रूचि होगी तो अपनी ‘दलाली’ में।

अब हमारे देशभक्त राजनीतिज्ञ यह भी सोच रहे होंगे कि इस गलियारे से उन्हें राजनीति में कितना फायदा होगा। अगर फायदा नहीं हो तो फिर गलियारे का क्या लाभ? कमोवेश यही समस्या पड़ोसी मुल्क में भी है। इन हालात को देखते हुए हम तब तक हम अपनी उंगलियां ‘क्रास’ रखेंगे जब तक यह पवित्र कार्य पूरा नहीं हो जाता।