बाग़ी ग़ुलाम

आज़ाद के जाने से कांग्रेस को झटका, पर पार्टी गाँधी परिवार के साथ

ग़ुलाम नबी आज़ाद के रूप में कांग्रेस से एक और दिग्गज की विदाई हो गयी। वह भी ऐसे समय में, जब पार्टी आठ साल की चोटों के बाद ख़ुद को खड़ा करने के लिए महँगाई और बेरोज़गारी जैसे बड़े जन मुद्दों के साथ देशव्यापी अभियान शुरू करने जा रही है। आज़ाद के जाने से कांग्रेस पर असर और नये अध्यक्ष की सम्भावनाओं पर बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

राज्यसभा का रास्ता बन्द होते ही बग़ावती हो गये, वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद डेढ़ साल के भीतर कांग्रेस से पाँच दशक का नाता तोडक़र अलग रास्ते पर चले गये। पिछले साल राज्यसभा से उनकी विदाई के मौक़े पर उनकी सेवाओं को याद करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी भावुक हो गये थे और उनकी आँखों में आँसू भी दिखे थे। कांग्रेस में बहुत-से लोगों को लगता है कि आज़ाद इन्हीं आँसुओं में बह गये। आज़ाद का कांग्रेस में इतिहास देखें, तो उसमें भी वे हमेशा पार्टी की शीर्ष सत्ता के साथ रहे। इंदिरा और राजीव गाँधी से लेकर नरसिंह राव, सीताराम केसरी और सोनिया गाँधी तक। आठ साल से सत्ता से बाहर बैठी कांग्रेस जब कमज़ोर दिख रही है, तब इसे मज़बूत करने के दावे करने वाले आज़ाद अपनी ज़मान मज़बूत करने के लिए कांग्रेस से बाहर निकल गये हैं।

उनके साथ और कितने नेता आने वाले दिनों में कांग्रेस से बाहर जाएँगे, अभी कहना मुश्किल है। लेकिन इसकी बहुत ज़्यादा सम्भावना नहीं दिखती। आनंद शर्मा और मनीष तिवारी जैसे नेता हैं, जिनके सुर बाग़ी हैं। लेकिन दोनों भाजपा के कट्टर विरोधी हैं; ख़ासकर आनंद शर्मा। कहते हैं एक बार आज़ाद को जम्मू-कश्मीर से राज्य सभा चुनाव जीतने देने के लिए भाजपा के दिवंगत नेता अरुण जेटली ने उनकी सिर्फ़ इसलिए गुपचुप मदद की थी और अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार को हरवा दिया था, ताकि आनंद शर्मा राज्यसभा में कांग्रेस के नेता न बनने पाएँ। जेटली मानते थे कि आनंद कट्टर भाजपा विरोधी हैं। लिहाज़ा आज़ाद जीतकर नेता बनते हैं, तो भाजपा को वह ज़्यादा सुहाता है। इतने बड़े नेता के कांग्रेस छोडऩे से पार्टी को नुक़सान तो हुआ है। लेकिन इसकी कांग्रेस की चुनावी सम्भावना पर शायद ही असर पड़े, क्योंकि 50 साल तक आज़ाद कांग्रेस आलाकमान से नज़दीकियों के बूते राज्य सभा में ही ज़्यादा रहे। उनके कांग्रेस से बाहर जाने से लोगों को इतनी हैरानी नहीं हुई, जितनी उनकी उस चिट्ठी की भाषा से हुई, जो उन्होंने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा देते हुए अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गाँधी को लिखी। आज़ाद को नज़दीक से जानने वाले जानते हैं कि वह अपनी भाषा का बहुत ख़याल रखने वाले नेता हैं। पार्टी के नेताओं के मुताबिक, चिट्ठी में राहुल गाँधी के प्रति उनकी भाषा को ज़्यादातर नेताओं ने पसन्द नहीं किया है।

सीडब्ल्यूसी के एक सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर इस संवाददाता से कहा- ‘ऐसा लगता है पत्र में लिखी भाषा किसी और की है। राहुल गाँधी को निशाने पर रखने के लिए जैसी भाषा उन्होंने लिखी है, वह उन जैसे वरिष्ठ नेता को शोभा नहीं देती। उनके पत्र ने कांग्रेस में राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनाने वालों का इरादा और पक्का कर दिया है।’

कांग्रेस को यह नुक़सान ज़रूर हुआ है कि हाल के वर्षों में उसके ऐसे नेता पार्टी छोडक़र चले गये, जो खाँटी कांग्रेसी माने जाते थे। आज़ाद के बारे में दो साल पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि वह कांग्रेस को छोडऩे की सोच भी सकते हैं। लेकिन राज्य सभा में उन्हें न भेजने के बाद उनका मूड ही बदल गया और बग़ावत उनके शब्दों से झलकने लगी।

ग़ुलाम नबी आज़ाद ऐसे नेता हैं, जो हमेशा कांग्रेस की शीर्ष सत्ता के क़रीब रहे। इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी के बाद जब सन् 1991 में नरसिम्हा राव का वक़्त आया, तो वह उनके साथ हो गये। लेकिन जब हवा राव के ख़िलाफ़ हुई, तो वह उनके ख़िलाफ़ होने वालों में सबसे पहले नेता थे। सीताराम केसरी अध्यक्ष बनें, तो आज़ाद उनके साथ हो गये और जैसे ही सोनिया गाँधी सक्रिय हुईं, आज़ाद ने केसरी को बाहर करने में पूरा सहयोग दिया।

उन्हें कांग्रेस ने पाँच बार राज्यसभा भेजा। गाँधी परिवार के ही कारण वह जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने। इस दौरान वो इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की सरकारों में केंद्र में मंत्री रहे। अब जब पार्टी ने नये लोगों को अवसर देने के लिए उन्हें राज्यसभा नहीं भेजा, तो वह गाँधी परिवार से ही बाग़ी हो गये।
इसमें कोई दो-राय नहीं कि कांग्रेस में आज भी उसकी सबसे बड़ी धुरी गाँधी परिवार ही है। नहीं भूलना चाहिए कि इक्का-दुक्का नेताओं के कांग्रेस छोडऩे के बावजूद सन् 2014 और सन् 2019 में चुनावी हार से भी कांग्रेस में कोई टूट नहीं हुई। हालाँकि यह सही है कि सन् 2019 की हार के बाद राहुल गाँधी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़े से पार्टी में मायूसी भर गयी और इसका निचले स्तर तक व्यापक असर हुआ। राहुल इस्तीफ़े का फ़ैसला न करते, तो शायद स्थिति कुछ और होती।

राहुल के इस्तीफ़े के पीछे कुछ ठोस कारण थे, जिनमें एक आज़ाद जैसे नेताओं का उनसे सहयोग न करना था। यह नेता एसी कमरों में बैठने के आदी हो गये थे और ज़मीन पर उतरना उन्होंने छोड़ दिया था। इस्तीफ़े के बावजूद मोदी सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चे पर अकेले राहुल गाँधी ही खड़े दिखे। राफेल से लेकर महँगाई-बेरोज़गारी के मुद्दों तक।

अपने पत्र में ग़ुलाम नबी आज़ाद ने राहुल गाँधी के व्यक्तित्व और नेतृत्व को निशाने पर लिया और आरोप लगाया कि जैसे मनमोहन सिंह की सरकार रिमोट कंट्रोल से चलती थी, वैसे ही कांग्रेस पार्टी रिमोट कंट्रोल से चल रही है। उनके मुताबिक, पार्टी में वरिष्ठ नेताओं की बात नहीं सुनी जाती है और अधिकतर फ़ैसले राहुल गाँधी और उनके क़रीबी ‘पीए और गार्ड’ लेते हैं। मनमोहन सिंह की सरकार में जब वह मंत्री थे, तब उन्होंने कुछ नहीं कहा। यहाँ तक कि जब राहुल गाँधी पार्टी अध्यक्ष बने थे आज़ाद उनके लिए तालियाँ बजाने वालों में सबसे आगे थे।

अब क्या करेंगे आज़ाद?
आज़ाद अब अपना कोई राजनीतिक संगठन बनाएँगे, जिसका कांग्रेस से मिलाजुला लोकतांत्रिक कांग्रेस जैसा कोई नाम रख सकते हैं। आज़ाद के प्रधानमंत्री मोदी के साथ अच्छे रिश्ते माने जाते हैं। लेकिन उन्होंने ख़ुद कहा है कि न तो वह भाजपा के साथ जाएँगे, न भाजपा से कोई तालमेल करेंगे। वैचारिक स्तर पर वह हमेशा भाजपा की विचारधारा के विपरीत दिखे हैं। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाने का उन्होंने कड़ा विरोध किया था। भाजपा के साथ जाने की बात करते, तो कश्मीर में उन्हें घुसने नहीं दिया जाता। निश्चित ही वह राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस जैसी विचारधारा वाला दल बनाएँगे और जम्मू-कश्मीर की राजनीति में भी दख़ल रखेंगे। वह ममता बनर्जी के तीसरे मोर्चे के साथ खड़े हो सकते हैं। इस मोर्चे में एनसीपी नेता शरद पवार भी हो सकते हैं। हालाँकि पवार कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए से अलग होना नहीं चाहते। कई बार चर्चा रही है कि अपनी उम्र देखते हुए पवार एनसीपी का कांग्रेस में विलय कर सकते हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.सी. राव भी साथ आ सकते हैं। यह सभी कभी कांग्रेस में रहे हैं।

भारत जोड़ो यात्रा
कांग्रेस को 7 सितंबर से पहले मोदी सरकार के ख़िलाफ़ पिछले आठ साल का अपना सबसे बड़ा आयोजन भारत जोड़ो यात्रा के रूप में शुरू करना है। इसका मक़सद जनता में मोदी सरकार की नाकामियों को उजागर कर माहौल को बदलना है, जो लगातार चुनावी नाकामियों के कारण कांग्रेस के लिए मुसीबत बना हुआ है। चूँकि यह पद यात्रा होगी और वह भी 3,500 किलोमीटर लम्बी, कांग्रेस उम्मीद कर रही है कि यह उसके कायाकल्प में मददगार साबित होगी। इससे उसका कार्यकर्ता भी सक्रिय होगा। कांग्रेस ने चूँकि अध्यक्ष का चुनाव आगे खिसका दिया है। इससे ज़ाहिर होता है कि पार्टी भारत जोड़ो यात्रा कार्यक्रम को कितना ज़्यादा महत्त्व दे रही है।
कांग्रेस नेताओं- दिग्विजय सिंह और जयराम रमेश के मुताबिक, यात्रा का मक़सद देश में बनाये गये नफ़रत के माहौल, संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता का हनन, महँगाई और बेरोज़गारी बढऩे को लेकर जनता के बीच जाने को लेकर है। यह पदयात्रा 12 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों से होकर गुज़रेगी और तमिलनाडु के कन्याकुमारी से शुरू होकर कश्मीर में ख़त्म होगी।
पार्टी ने इस यात्रा में शामिल होने के लिए कांग्रेस नेताओं के अलावा सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों और समान विचारधारा के लोगों के लिए भी रास्ता खुला रखा है। इस यात्रा को लेकर राहुल गाँधी 23 अगस्त को सिविल सोसायटी के कई प्रमुख लोगों के साथ बैठक कर चुके हैं।
इस बैठक में कांग्रेस को अच्छा समर्थन मिला और इसमें स्वराज इंडिया के योगेंद्र यादव, योजना आयोग की पूर्व सदस्य सैयदा हमीद, एकता परिषद् के पी.वी. राजगोपाल, सफ़ाई कर्मचारी आन्दोलन के बेजवाड़ा विल्सन और कई अन्य सामाजिक और ग़ैर-सरकारी संगठनों के क़रीब 150 प्रतिनिधि शामिल हुए। सिविल सोसायटी के प्रतिनिधियों ने घोषणा की है कि वे देश को जोडऩे के इस अभियान से जुड़ेंगे और इसके समर्थन में अपील भी जारी करेंगे।

कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव कार्यक्रम

नामांकन 24-30 सितंबर
चुनाव 17 अक्टूबर
नतीजा 19 अक्टूबर
मतदाता प्रतिनिधि क़रीब 9,200

गाँधी या ग़ैर-गाँधी अध्यक्ष!
कांग्रेस ने अध्यक्ष पद के चुनाव की तारीख़ भले 17 अक्टूबर तय कर दी है; लेकिन साफ़ नहीं अध्यक्ष बनेगा कौन? क्या कांग्रेस ने ख़ुद को मानसिक रूप से एक ग़ैर-गाँधी अध्यक्ष चुनने के लिए तैयार कर लिया है? राहुल गाँधी को पार्टी अध्यक्ष देखने की चाह रखने वाले नेता मानते हैं कि राहुल अध्यक्ष नहीं बनते हैं, तो भाजपा सबसे ज़्यादा ख़ुश होगी और कांग्रेस का एक बहुत बड़ा वर्ग निराश। लेकिन ख़ुद राहुल गाँधी अध्यक्ष नहीं बनना चाहते। प्रियंका गाँधी को लेकर तो राहुल ने ही न कह दिया है और ग़ैर-गाँधी के अध्यक्ष बनने का समर्थन कर रहे हैं। ग़ैर-गाँधी के रूप में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नाम की पार्टी के भीतर काफ़ी चर्चा है; भले ख़ुद गहलोत राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनाने की बात कह रहे हों। देखें, तो कांग्रेस के इतिहास में सन् 1947 के बाद कुल 19 नेता कांग्रेस अध्यक्ष बने, जिनमें से 14 ग़ैर-गाँधी थे। ऐसे में अबकी बार कोई ग़ैर-गाँधी अध्यक्ष बनता है, तो हैरानी की उतनी बड़ी बात नहीं होगी।

देश की आज़ादी के बाद के इन 75 वर्षों में 34 साल कांग्रेस में ऐसे रहे, जब कोई ग़ैर-गाँधी पार्टी का अध्यक्ष रहा। बा$की के 41 वर्षों में से अकेले सोनिया गाँधी 22 साल (पूर्णकालिक और अंतरिम मिलाकर) अध्यक्ष रही हैं। अर्थात् जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी और राहुल गाँधी सभी मिलाकर भी उनसे कम समय तक अध्यक्ष रहे हैं। अब एक बार फिर ग़ैर-गाँधी के अध्यक्ष होने का रास्ता खुलता दिख रहा है।

ज़्यादा सम्भावना वाले अशोक गहलोत के अलावा केंद्र में मंत्री रहे महाराष्ट्र के दलित नेता सुशील कुमार शिंदे, राहुल गाँधी के क़रीबी माने जाने वाले मल्लिकार्जुन खडग़े, मुकुल वासनिक, जयराम रमेश और सोनिया गाँधी की क़रीबी लोकसभा की अध्यक्ष रहीं मीरा कुमार के नाम ग़ैर-गाँधी नेताओं में चर्चा में हैं। जिस तरह राहुल गाँधी अध्यक्ष बनने के लिए मना कर रहे हैं, उससे इन नेताओं में से किसी एक या किसी अन्य ग़ैर-गाँधी का रास्ता खुलता दिख रहा है।

अक्टूबर में नया अध्यक्ष चुना जाना है और यह तय है कि कोई ग़ैर-गाँधी भी अध्यक्ष बनेगा, तो वह गाँधी परिवार का क़रीबी होगा। गाँधी परिवार के विरोधी भले कांग्रेस में मुट्ठी भर हों, वह चाहेंगे कि चुनाव किया जाए। वैसे अध्यक्ष के लिए चुनाव कराने के कांग्रेस के भीतर सबसे बड़े समर्थक ख़ुद राहुल गाँधी हैं।

पार्टी का बड़ा तबक़ा राहुल गाँधी या प्रियंका गाँधी को अध्यक्ष बनाने के हक़ में है। कुछ की राय है कि सोनिया गाँधी ही पूर्णकालिक अध्यक्ष बन जाएँ। उनका मानना है कि गाँधी परिवार से बाहर जाते ही कांग्रेस बिखर जाएगी। देखा जाए तो ग़ैर-गाँधी नेता अभी तक गाँधी परिवार के आसरे ही पद पाते रहे हैं या चुनाव जीतते रहे हैं।
भले सन् 2014 के बाद कांग्रेस कमज़ोर हुई हो; लेकिन आज भी कांग्रेस के पास भाजपा के बाद सबसे ज़्यादा विधायक राज्यों में हैं। पर जो एक चीज़ बदली है, वह यह है कि गाँधी परिवार का करिश्मा फीका पड़ा है। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गाँधी के खुलकर मैदान में उतरने के बावजूद पार्टी का वोट बैंक नहीं बढ़ा। यह अस्थायी दौर हो सकता है; क्योंकि अभी भी गाँधी परिवार का पैन-इण्डिया इम्पैक्ट है, इसमें कोई शक नहीं।

अपना नाम न छापने की शर्त पर कांग्रेस के एक सांसद ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘मोदी हमेशा नहीं रहेंगे। जनता उनके कई फ़ैसलों से असहमत हो रही है और अगला चुनाव उनके लिए मुश्किल होने वाला है। भाजपा नेतृत्व गाँधी परिवार को ख़त्म करना चाहता है; क्योंकि वह अपने लिए उसे ही सबसे बड़ी चुनौती मानता है। लिहाज़ा कोई गाँधी ही कांग्रेस को दोबारा सत्ता में ला सकता है; क्योंकि जनता में इस परिवार की साख है।’

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, आने वाले समय में राज्य ईकाइयाँ आलाकमान को यह प्रस्ताव भेज सकती हैं कि राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनाया जाए। कांग्रेस के भीतर सबसे ज़्यादा सहमति राहुल गाँधी के नाम पर है। उनके बाद प्रियंका गाँधी के हक़ में भी काफ़ी नेता हैं।
राहुल गाँधी ने हाल में पार्टी की भारत जोड़ो यात्रा को लेकर सिविल सोसायटी के कई प्रमुख लोगों से बैठक की, जिसके बाद उन्होंने कहा कि यह यात्रा उनके लिए तपस्या जैसी है और भारत को एकजुट करने की लम्बी लड़ाई के लिए वह तैयार हैं। हालाँकि यहाँ यह सवाल उठता है कि यदि वे लम्बी लड़ाई के लिए तैयार हैं, तो यह काम वह कांग्रेस अध्यक्ष बनकर क्यों नहीं करना चाहते?

भारत जोड़ो यात्रा के लिए बनी समिति के सदस्य दिग्विजय सिंह कहते हैं कि राहुल गाँधी को पार्टी का नया अध्यक्ष बनने को लेकर मजबूर नहीं किया जा सकता और वह नहीं बनना चाहते हैं, तो उन्हें जबरदस्ती तो नहीं बनाया जा सकता। लेकिन इसके बावजूद एक सच यह भी है कि कांग्रेस के अधिकांश नेता चाहते हैं कि राहुल गाँधी अपना फ़ैसला बदल दें और अध्यक्ष बनें।

राहुल गाँधी भले पिछले तीन साल से कांग्रेस अध्यक्ष नहीं हैं, पार्टी में उनकी ही टीम बन रही है। राज्यों में अध्यक्ष से लेकर पार्टी में प्रमुख लोग उनके समर्थक हैं। निश्चित ही वह अपनी टीम बना रहे हैं। ठीक वैसे ही, जैसे उनके पिता राजीव गाँधी ने अपने समय में ग़ुलाम नबी आज़ाद और आनंद शर्मा जैसे युवा नेताओं को साथ जोडक़र किया था।


“मैं भाजपा में तब शामिल होऊँगा, जब कश्मीर में काली बर्फ़ गिरेगी। भाजपा ही क्यों? उस दिन मैं किसी भी पार्टी में शामिल हो जाऊँगा। जो लोग यह कहते हैं या इस तरह की अफ़वाहों को फैलाते हैं, वे मुझे नहीं जानते हैं।’’
ग़ुलाम नबी आज़ाद
(12 फरवरी, 2021 को एक बयान में)

Shri Mallikarjun Kharge takes over the charge of Union Minister of Railways, in New Delhi on June 19, 2013.

“राहुल गाँधी के अलावा कोई ऐसा नहीं, जिसकी अखिल भारतीय अपील हो। पार्टी का नेतृत्व करने वाले व्यक्ति को कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर और पश्चिम बंगाल से गुजरात तक समर्थन होना चाहिए। वह व्यक्ति पूरी कांग्रेस पार्टी में जाना-पहचाना, स्वीकृत व्यक्ति होना चाहिए। मुझे ऑप्शन (विकल्प) बताएँ, राहुल गाँधी के अलावा पार्टी में और कौन है?’’
मल्लिकार्जुन खडग़े
वरिष्ठ कांग्रेस नेता